अभी अन्ना की आंधी चल रही है…हर कोई उसके साथ बहने को बेताब है…लेकिन आंधी के गुज़रने के बाद जब हम ठंडे दिमाग से सोचेंगे तो समझ आएगा कि क्या गलत है और क्या सही…टीम अन्ना ने देश से भ्रष्टाचार को मिटाने का जो मुद्दा चुना है, मैं शत-प्रतिशत उसके साथ हूं…लेकिन इसके लिए लोकतंत्र को बंधक बनाने के जो तरीके अपनाए जा रहे है, उनसे मैं सहमत नहीं हूं…अन्ना को गांधी बताया जा रहा है…लेकिन गांधी ऐसा कभी नहीं करते जैसा अन्ना ने राजघाट पर किया…इतने लोगों और कैमरों की उपस्थिति में ये कैसा ध्यान था…मुझे समझ नहीं आया…
गांधी को अनशन के लिए लाइम-लाइट अपने ऊपर रखने के लिए कभी कोशिश नहीं करनी पड़ी…गांधी खुद प्रकाश-पुंज थे…वो एक कमरे से भी अनशन शुरू कर देते थे तो ब्रिटिश हुकूमत के पसीने आने शुरू हो जाते थे…मेरा सवाल है कि अन्ना को अनशन के लिए इतने ताम-झाम की ज़रूरत क्यों है…और ये ताम-झाम जिस हाई-टेक अभियान के ज़रिए जुटाया जा रहा है वो आंदोलन के गांधीवादी होने पर खुद सवाल उठा देता है…अगर इस अभियान के लिए पैसे का स्रोत अमेरिका की फोर्ड फाउंडेशन और बदनाम लेहमन ब्रदर्स से निकलता है तो माफ़ कीजिएगा फिर ये पूरा आंदोलन ही बेमानी है…
ये सही है कि निकम्मी सरकार को लेकर देश के लोगों में बहुत गुस्सा है…भ्रष्टाचार के चलते मेरे, आपके, हम सबकी जेब में बड़ा छेद होता जा रहा है…लेकिन इस गुस्से को कैश कर देश को अस्थिर करने की कोई बड़ी साज़िश रची जा रही है तो हमें उसके लिए भी सचेत रहना होगा…सिविल सोसायटी क्यों इस रुख पर अड़ी है कि हमने जो कह दिया सो कह दिया, आपको वो मानना ही पड़ेगा…चलिए मान लेते हैं आपकी बात…बना देते हैं आपके जनलोकपाल बिल को ही क़ानून…लेकिन ऐसा कोई भी क़ानून बना और किसी ने भी उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी तो वो पहली बार में ही उड़ जाएगा…फिर आप ऐसा बीच का रास्ता क्यों नहीं निकालते कि सबकी सहमति से ऐसा फुलप्रूफ सिस्टम बने जिस पर बाद में उंगली उठाने की कोई गुंजाइश ही न बचे…
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