मरहूम शेक्सपीयर चचा क्या खूब कह गए हैं…नाम में क्या रखा है…वाकई नाम में क्या रखा है…आइडिया का एक एड आता है जिसमें इनसानों को नाम से नहीं बस नंबर से याद किया जाता है…वाकई ऐसा होता तो कितना अच्छा होता…मैं तो कहता हूं दुनिया से आधे झगड़े फसाद ही खत्म हो जाते…दो इनसान मिलते….अपना अपना नंबर बोलते…न जात का पता चलता, न मज़हब का…इशारों में बात करते तो और भी अच्छा होता…बोली न होने से न भाषा का झगड़ा रहता, न प्रांतवाद का…बस एक रंग का चक्कर ज़रूर तब भी रह जाता…लेकिन भारतीय तो ज़्यादातर गेहूंए रंग के ही होते हैं…कम से कम देश के अंदर नस्लभेद या रंगभेद की दिक्कत नहीं आती…
अरे ये क्या मैं तो उपदेश की शैली में आ गया…बात शुरू की थी मरहूम शेक्सपीयर की अमर कृति रोमियो-जूलिएट के कालजयी कोट से- नाम में क्या रखा है…गुलाब का नाम अगर कुछ और होता तो क्या उसकी खूबसूरती या खुशबू कम हो जाती…
वैसे हमारे देश में बच्चे के जन्म लेने के साथ ही नाम चुनने पर बड़ा ज़ोर दिया जाता है…पंडित जी से वर्णमाला से कोई अक्षर निकाला जाता है और फिर शुरू हो जाती है नाम रखने की कवायद…पूरा ज़ोर होता है कि नाम सार्थक हो और बिल्कुल अनयूज़्युल…इस प्रचलन का एक तो फायदा हुआ कि अब बच्चों के शुद्ध हिंदी में एक से बढ़कर एक सुंदर नाम रखे जाने लगे हैं…चलो हिंदी की किसी मामले में तो प्रासंगिकता अब भी बनी हुई है…
अब आता हूं अपने नाम पर…खुशदीप…ओ राम जी, तेरे इस नाम ने बड़ा दुख दीना…दूसरों को बेशक ये नाम पसंद आता हो लेकिन इस नाम की वजह से मैं बचपन से ही विचित्र स्थितियों का सामना करता आ रहा हूं…बचपन में मम्मी-पापा से शिकायत करता था कि इस नाम का बच्चा मुझे और कोई क्यों नहीं मिलता…अब मम्मी-पापा क्या जवाब देते…एक और राज़ की बात बताऊं…बचपन में मेरे बाल मरफी बॉय की तरह लंबे हुआ करते थे…और मम्मी मुझे ऊनी लाल रंग का जम्पर सूट पहना देती थी तो सब मुझे खरगोश बुलाना शुरू कर देते थे…उस खरगोश से ही मेरा निक नेम निकला…खरगोशी…फिर खोशी….घरवाले और सारे करीबी इसी नाम से बुलाते और स्कूल में खुशदीप…
खोशी से तो मुझे कभी दिक्कत नहीं रही लेकिन खुशदीप…उफ तौबा…पहली बार में तो कोई मेरा नाम ठीक से समझता ही नहीं…छूटते ही कहता है कुलदीप….मैं समझाता हूं…नहीं जनाब, खुशदीप…फिर सुनने वाला ऐसा भाव देता है जैसा बोलने पर बड़ा ज़ोर पड़ रहा हो…अच्छा खुशदीप…स्कूल में कोई नई मैडम अटैंडेंस लेती तो रजिस्टर पर नाम पर सरसरी नज़र डालकर ही बुलाती…खुर्शीद….मैं बड़ा हिचकता, डरता उन्हें ठीक कराता…खुर्शीद नहीं खुशदीप…मुझे स्कूल ले जाने वाला रिक्शावाला तो और भी गज़ब ढहाता…सुबह घर आता और हॉर्न के साथ ही ज़ोर से पूरे मोहल्ले को सुनाता हुआ आवाज़ देता…खु…दीप….मैं छोटे से बड़ा हो गया लेकिन मज़ाल है कि उस रिक्शे वाले के मुंह से मेरे खुशदीप का श कभी निकला हो…
कॉलेज आते आते मेरा ये मिशन बन गया कि अपनी नामराशि का कम से कम एक बंदा तो ढ़ूंढ कर ही छोड़ूंगा…साल पर साल बीतते गए लेकिन कामयाबी नहीं मिली…एक दिन अखबार में मैं खुशदीप नाम देखकर उछल पड़ा…अरे नहीं जनाब मैंने कोई तीर नहीं मारा था और न ही मेरा नाम पुलिस की वांटेड लिस्ट में था जो अखबार में आता…मैंने सोचा आज तो मैंने अपने नाम का बंदा ढूंढ ही लिया…लेकिन ख़बर पढ़ी तो वो बंदा नहीं बंदी निकली…खुशदीप कौर…भारतीय हॉकी टीम की प्लेयर…चलो बंदा न सही बंदी ही सही…कोई तो खुशदीप मिला (या मिली)…
नब्बे के दशक के आखिर में इंटरनेट का चमत्कार हुआ तो मेरी कोशिश फिर वही थी कि सर्च पर डालकर देखूं कि दुनिया में और कितने खुशदीप हैं…वहां एक नाम मिला खुशदीप बंसल (कोई मशहूर आर्किटेक्ट हैं), एक डॉक्टर भी हैं…जानकर बड़ी तसल्ली हुई कि कम से कम कुछ और खुशदीप तो हैं जिन्हें नाम को लेकर वैसे ही हालात से गुज़रना पड़ा होगा जैसे कि मैं हमेशा गुज़रता आया हूं…
लेकिन अपने नाम को लेकर सबसे ज़्यादा मज़ा ब्लॉगिंग में आ रहा है…कुलवंत हैप्पी ने कुछ दिन पहले बताया था कि उनके एक पंजाबी उपन्यास के नायक का नाम खुशदीप है…अभी दो दिन पहले मेरी पोस्ट पर वंदना जी ने टिप्पणी भेजी थी, जिसका पहला शब्द था…hushdeep ji (हुशदीप जी)…बस शू…. और आगे जोड़ देतीं तो जीवन का आनंद आ जाता…ऐसे ही एक बार शिखा वार्ष्णेय जी ने मेरा नाम शखुदीप टाइप किया था…सुनने में ही कितना क्यूट लगता है, बिल्कुल मेल शूर्पनखा जैसा….ज़ाहिर है वंदना जी और शिखा जी दोनों ही मेरी वेलविशर्स हैं, टाइपिंग ने धोखा दिया…लेकिन क्या हसीन धोखा था…
अब आता हूं असली बात पर मैं देख रहा हूं ब्लॉगिंग में अ से शुरू होने वाले नाम के जितने भी ब्लॉगर्स हैं सभी बड़ा धाकड़ लिखते हैं…मसलन
डॉ अमर कुमार
अनूप शुक्ल
अनिल पुसदकर
अरविंद मिश्र
अजित व़डनेरकर
अविनाश वाचस्पति
अजित गुप्ता
अवधिया जी
अदा
अजय कुमार झा
अनीता कुमार
डॉ अनुराग
अमरेंद्र त्रिपाठी
आशा जोगलेकर
अर्चना
अमर सिंह
अलबेला खत्री
अपनत्व
अल्पना वर्मा
अन्तर सोहेल
अब मेरा लेखन भी ज़ोरदार हो जाए तो क्या मैं भी अपना नाम खुशदीप से अुशदीप रख लूं…
वैसे मेरे गुरुदेव समीर लाल समीर तो सरस्वतीपुत्र हैं लेकिन अगर उनके नाम पर भी अ वाला फंडा अपनाया जाए तो उनका नाम हो जाएगा अमीर लाल समीर…
लेकिन सबसे क्लासिक नाम चेंज होगा…हरदिलअज़ीज अपने ताऊ का…
आssssssऊ….यानि आऊ (क्या कहा, ये सुनकर किसका नाम याद आ गया, शक्ति कपूर का…आप भी न बस…ताऊ का रामपुरी लठ्ठ देखा है न…हां नहीं तो…)
स्लॉग ओवर
गुल्ली की स्कूल और मोहल्ले से शिकायतें आने का सिलसिला बढ़ता ही जा रहा था…एक दिन पिता मक्खन ने गुल्ली को बुला कर प्यार से समझाया…देखो तुम्हारी जब भी शिकायत आती है मेरे सिर का एक बाल चिंता से सफ़ेद हो जाता है…
गुल्ली…आज समझ आया कि दादा जी के सारे बाल सफ़ेद क्यों हैं ?
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