ड्रामा चालू आहे…खुशदीप



मेरे एक मित्र हैं। पत्रकार रह चुके हैं। अब राजनीति में हैं। देश के एक बड़े राजनेता की कोर टीम से जुड़े हैं। मुझे खुशी है कि राजनीति में होते हुए भी मेरे मित्र के अंदर दिल धड़कता है। इनसान को अब भी इनसान समझते हैं, महज़ वोट नहीं। मेरे मित्र ने अपने राजनेता की सोच को एक बार मेरे साथ शेयर किया। मित्र के मुताबिक उस राजनेता का विज़न है, चुपचाप अपना काम करते रहो। कोई क्या कहता है, उसकी परवाह किए बिना लक्ष्य की ओर बढ़ते रहो। शार्टकट पर चलने की जगह लॉन्गटर्म अप्रोच। क्या देश के लिए बेहतर है, बस उसकी फ़िक्र की जाए। बिना कोई ड्रामा किए।


बिना कोई ड्रामा किए को मैंने जानबूझकर अंडरलाइन किया है। इस राजनेता का ये विज़न पश्चिम के किसी विकसित और पूर्णत: साक्षर देश के लिए तो फिट हो सकता है। भारत जैसे नाटकीयता प्रिय देश के लिए कतई नहीं। आप शांति से लाख अच्छे काम कर रहे हों लेकिन आपका कोई नोटिस नहीं लेगा। नोटिस तभी लेगा जब आप अपने काम को तड़का लगाना सीख जाएं। तड़के से मेरा अभिप्राय ड्रामा से ही है। ये तड़का जरूरत के हिसाब से तय किया जा सकता है। दाल में तड़का लगाया जाता है। लेकिन आप चाहें तो तड़के में दाल भी लगा सकते हैं।


इस देश में ड्रामे के बिना कोई काम चल ही नहीं सकता। बस आपको ये अदा आनी चाहिए कि हर वक्त आपके ऊपर फोकस कैसे रहे? सुर्खियों में कैसे बने रहा जाए? आपको ये कला नहीं आती तो आप औरों के लिए प्रासंगिक ही नहीं रहेंगे। प्रचार की ताकत अपार है।


मैं अपनी बात को एक और उदाहरण से समझाता हूं। देश अगर एक रंगकर्म हैं तो दिल्ली इसका सबसे बड़ा मंच। आप को औरों की नज़रों में आना है तो इस मंच पर आकर अपनी प्रस्तुति देनी ही होगी। वो भी पूरे तामझाम के साथ। किसान की खुदकुशी कोई ऐसी घटना नहीं है जो देश में पहली बार हुई हो। बीते दो दशक में इसी देश में करीब पौने तीन लाख किसान खुद ही अपनी जीवनलीला समाप्त कर चुके हैं। महाराष्ट्र का विदर्भ तो विशेष तौर पर किसानों की कब्रगाह सा ही बन गया है। वहां तो किसान खेत में जाकर पहले अपनी चिता सजाता है और फिर उस पर लेटकर खुद को भस्म कर लेता है। नितकर्म की तरह ये चलता रहता है लेकिन दिल्ली में किसी के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती।


लेकिन अब देखिए। राजस्थान के दौसा से आकर गजेंद्र सिंह ने पेड़ पर साफ़े से फंदा तैयार कर अपनी जान दी तो मानो पूरा देश ही हिल गया। यहां किसान से ज़्यादा उसकी जान देने की जगह, तरीका और टाइमिंग अहम है। दिल्ली का जंतर मंतर। राजनीतिक दल की रैली। ज़मीन अधिग्रहण का मुद्दा। पीएम को ललकारते सीएम। मीडिया का पूरा लाव-लश्कर। लेकिन गजेंद्र ने यहां जो किया उसके आगे और सब गौण हो गया। गजेंद्र खुद सो गया, किसानों की दुर्दशा पर देश को जगाने के लिए। होना तो चाहिए था, इस घड़ी तमाम मतभेदों को भुलाकर सारे राजनीतिक दल कंधे से कंधा जोड़कर बैठते। मंथन करते कि देश का अन्नदाता अपनी जान अपने हाथों से लेने के लिए क्यों मजबूर है। सियासी नफ़े-नुकसान को पीछे़ छोड़़ ईमानदारी से किसान के लिए राहत का कोई रास्ता निकालते। यहां मीडिया को भी संवेदनशीलता का परिचय देना चाहिए था। निरर्थक तू-तू, मैं-मैं के इस खेल से दिल्ली के स्टेज-एक्टर्स को फौरी फायदा हो सकता है, लेकिन किसान का हर्गिज़ नहीं। देश का हर्गिज नहीं। कोई ये नहीं भूले कि देश हैं तो हम सब हैं। देश की रीढ़ किसान खड़ा नहीं होगा तो ये देश भी कभी खड़ा नहीं हो पाएगा।


गजेंद्र सिंह की मौत को लेकर जो  हो रहा है, वो हम सब देख रहे हैं। दिल्ली में निर्भया गैंगरेप को लेकर जिस तरह का आक्रोश सड़कों पर फूटा था, वो भी हम सबने देखा था। लेकिन क्या बलात्कार या महिलाओं पर अत्याचार की घटनाएं देश के दूर-दराज़ के इलाकों में नहीं होतीं। इनसाफ़ तो दूर वहां थाने में रिपोर्ट तक दर्ज़ नहीं कराई जाती।


गजेंद्र सिंह जैसी दु:खद घटना का संदेश पूरे देश को क्या जाता है। विदर्भ के किसी गांव में कोई किसान खुद जान देता है तो दिल्ली या मुंबई के सियासी गलियारों में पत्ता तक नहीं खड़कता। तो क्या उस किसान को भी ऐसी जगह ही पहुंचकर जान देनी चाहिए जहां सुर्खियां मिलने की पूरी संभावना हो। सवाल पीड़ा देने वाला है लेकिन है देश की कड़वी हक़ीक़त। खैर….ड्रामा चालू आहे।

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Khushdeep Sehgal
10 years ago

मनोज जी सही कह रहे हैं…सरकार की एक योजना है- SEZ (स्पेशल इकोनॉमिक जोन)। इस योजना में औद्योगिक विकास के नाम पर किसानों की ज़मीन लेकर कॉरपोरेट को कौड़ियों के दाम पर सौंप दी जाती है। मैंने गुजरात प्रवास के दौरान खुद देखा कि आईएएस से रिटायर्ड होकर उद्योगपति बने एक शख्स को भी इंडस्ट्री लगाने के लिए SEZ में कई प्लॉट आवंटित कर दिए गए। उसने इंडस्ट्री तो क्या लगानी थी उन जगहों पर फाइव स्टार होटल, रिसॉर्ट, स्पॉ खडे़ कर दिए। ऐसी जगह जहां किसान का भला तो क्या ही होगा बल्कि वो उनके आसपास भी नहीं फटक सकता।

जय हिंद…

Manoj Kumar
10 years ago

क्या औधोगिक विकास के लिए किसान की आत्महत्या जरूरी है ? रोजगार और विकास का झांसा देकर हज़ारो और लाखो में किसानो की जमीन हड़पकर करोड़ो और अरबो में बड़े घरानो को सौप देना चाहती है . अरे अगर 56 इंच के सीने वाली सरकार में इतना दम है तो पहले भूमाफिया , बिल्डरों , नेताओ और बड़े घराने के लोगो ने जो फर्जी जमीन कब्जा राखी हैं उनका अधिग्रहण करके दिखाए है हिम्मत ? क्या करेंगे ये सरकार ऐसा ? नही करेगी बस गरीब किसान का खून चूसना आता है . किसान की आत्महत्या देखकर भी पीछे नही हट रही यह सरकार लानत है ऐसी सरकार पर !

Khushdeep Sehgal
10 years ago

अच्छा किया गुरुदेव ड्रामों के इस देश से दूर बसेरा बना लिया…

जय हिंद…

Udan Tashtari
10 years ago

देश की कड़वी हक़ीक़त

Khushdeep Sehgal
10 years ago

सतीश भाई, आपको और विवेकजी को साधुवाद जो तपती दोपहरी में हाल में पैदल यात्रा कर महाराष्ट्र के यवतमाल में किसानों की दुर्दशा देख कर आए हैं। डिजिटल इंडिया के सब्ज़बाग दिल्ली के एयरकंडीशन्ड कमरों में बैैठ कर कितने भी दिखाएंं जाएं लेकिन जब तक किसान रूपी भारत का कल्याण नहीं होगा, हमारा देश कभी विकसित नहीं बन पाएगा। हां, कॉरपोरेट ज़रूर भारत का ख़ून चूस चूस कर अपनी तिजौरियां भरते जाएंगे। लेकिन उन्हें भी कर्मों का हिसाब तो देना ही पड़ेगा, यहां नहीं तो ऊपर वाले की अदालत में ही सही।

जय हिंद…

Satish Saxena
10 years ago

इस देश में आज किसान अपने आपको हारा और बंधुआ मज़दूर मानने को मजबूर है और शायद ही कोई नेतृत्व उन्हें दिल से प्यार करता हो सब के सब इन भेंड़ों से अपनी रुई लेने आते हैं और यह झुण्ड अपना बचाव भी नहीं कर पाता ! इनकी पूरे साल की कमाई (उत्पादन ), सरकार की मदद से, अपनी मनमर्जी का पैसा देकर, कुटिल शहरी व्यापारी ले जाकर खरीद की मूल्य से आठगुने, दसगुने भाव पर बेंच कर अपनी तिजोरी भरते हैं और इलेक्शन के समय राजनेताओं को मदद के बदले धन देते हैं ताकि वे अगले ५ वर्षों के लिए दुबारा सत्ता में आ जाएँ और फिर इन्हें नोचते रहें , उनकी खुशकिस्मती से यह असंगठित भेड़ें भी करोड़ों की संख्या में हैं , सो कोई समस्या दूर दूर तक नहीं ! दैहिक, मानसिक शोषण और प्रताड़ना की यह मिसाल, पूरे विश्व में अनूठी व बेमिसाल है ! यही एक देश है जहाँ मोटे पेट वाले बेईमान सबसे अधिक भारत माता की जय बोलते नज़र आते हैं !

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