आज की दुनिया को समझना, आज के रिश्तों को समझना…बड़ा मुश्किल है…खास कर हम जैसों के लिए जिन्होंने छोटे शहरों से आकर महानगर को ठिकाना बनाया है…बेसिकली हमारा ढांचा ऐसा बना है जो संयुक्त परिवार में पला-बढ़ा…बचपन मोहल्लों के ऐसे परिवेश में गुज़रा जहां के बुज़ुर्ग सभी बच्चों को अपना ही समझते थे, नज़र रखते थे…बच्चे भी उनके सामने हमेशा नज़रें नीची रखकर ही बात करते थे…
कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पे,
दो पल मिलते हैं, साथ-साथ चलते हैं,
जब मोड़ आए तो बच के निकलते हैं,
कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पे…
यहां सभी अपनी ही धुन में दीवाने हैं,
करे वही जो अपना दिल ही माने हैं
कौन किसको पूछे कौन किसको बोले,
सबके लबों पर अपने तराने हैं,
ले जाए नसीब किसी को कहां पे,
कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पे…
ख्वाबों की ये दुनिया है ख्वाबों मे ही रहना है,
राहें ले जाएं जहां संग संग चलना है
वक्त ने हमेशा यहा नये खेल खेले,
कुछ भी हो जाए यहां बस खुश रहना है,
मंज़िल लगे करीब सबको यहां पे
कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पे,
दो पल मिलते हैं, साथ-साथ चलते हैं,
जब मोड़ आए तो बच के निकलते हैं,
कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पे…
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आजकल अपनी सुविधानुसार सब बदल लिया जाता…हम ना भी चाहें तो सामने वाला बदल जाता है..क्या करें?
ये रिश्ते भी
अजीब रिश्ते
कभी आग
तो कभी
ठंदी बर्फ
एक से नही रह्ते है
बदलते हैं मौसम की तरह।
पूरी कविता अब मुझे याद नही। आजकल खूब चिन्तन कर रहे हो। शुभकामनायें।
ब्लाग जगत के रिश्ते विचारों के आदान-प्रदान के हैं तो इन्हें बस ऐसे ही रहने दे तो दूर तक निभेंगे।
खुशदीप जी,
छोटे शहरों और महानगरों में रिश्तों पर आपकी हैरानगी के पीछे अर्थ-तंत्र ही तो है । पिछले 18 वर्षों से प्रतिदिन छोटे शहर रोहतक से दिल्ली (नोएडा कह लो) के बीच रिश्तों को समझने की नाकाम कोशिश कर रहा हूं । शुक्र है सुकून अपने छोटे शहर में आकर ही मिलता है ।
एक अजीब रिश्ता निभा रहा हूं । पूरा दिन महानगर के नाम और बाकी समय अपने छोटे शहर के लिए … जहां आज भी रेलवे स्टेशन से घर तक के रास्ते पर दुआ-सलामी के लिए दर्जनों चेहरे मिलते हैं … पूरी आत्मीयता के साथ ।
पूरा दिन महानगर में पलने वाली रिश्तों की नियमावली के अनुसार तो बाकी समय छोटे से शहर की अपनेपन की खुशबु में । अजीब रिश्ता है न, इसको पीछे मज़बूरी अर्थ की – पूरे अर्थ-तंत्र की ।
आदर सहित
सी पी बुद्धिराजा
बात इतनी सी है कि अर्थ सब पर हावी हो चुका है. इसलिये सब रिश्ते नाते एक ओर…
riste to aaj bhee hai lakin risto ki paribhasha badal gayee hai..
1.ab baap ko …buddha khsat kaha jata hai..
2.maa ko budhiya ….ya bina paise ki naukarani …
3.bhai bhai ka dusman ……
bas ek aham riste ko log nibhate hai…..wo pata nahi kis dar se—
4.mai ,meri bibi aur maree sasural…
5.aur sab riste matlab ke hai…
jai baba banaras….
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"बच्चे भी अब पहले से कहीं ज़्यादा स्मार्ट हो गए हैं…अच्छी बात है…अपना भला बुरा समझते हैं…लेकिन दिक्कत यह है कि उन्हें be practical का पाठ हम ही घरों पर सिखाते हैं..नैतिकता या इन्सान बनने की बात उन्हें कोई नहीं सिखाता…nuclear family होने की वजह से घर में बुज़ुर्ग भी नहीं हैं उन्हें कुछ समझाने वाले…ऐसे में हम किस मुंह से दोष देते हैं कि देश में भ्रष्टाचार बढ़ रहा है…पैसा-पॉवर ही सब कुछ माना जाने लगा है…इन हालत में रिश्तों के मायने ही क्या रह जाते हैं…
खुशदीप जी,
कमी आज के बच्चों में नहीं है, यह वह नई पीढ़ी है जो In your face बोलती है, जैसा दिखाई देता है उसी के अनुकूल बनने का प्रयास कर रही है, इस पीढ़ी को सरवाइव जो करना है…
मेरे विचार में विफल रही है आपकी-मेरी जेनरेशन… जिसने सुविधानुसार नैतिकता-ईमानदारी के मानदंड ही बदल डाले… कभी कोई स्टैन्ड ही नहीं लिया… हम सबको आज दिक्कत यह हो रही है कि नई पीढ़ी हमारी सीख सुनने के बजाय आँखों में आँखें डाल सवाल उठा देती है कि जिन लम्बे चौड़े आदर्शों को जीवन में उतारने के लिये हमें कहते हो, कितना अपने जीवन में उतारा है आपने ?
ब्लॉगिंग में भी नई सोच वाली नई पीढ़ी केवल लिहाज की खातिर न तो किसी का झूठा स्तुतिगान करेगी और न ही इसी कारण किसी को मीठा-मीठा बोलेगी… वह यह जाहिर कर ही देगी कि कोई वाकई में किस धरातल पर खड़ा है…
…
दराल साहब का कहना ही ठीक है खुशदीप भाई !
रिश्ते सुविधानुसार होते हैं , सामयिक होते हैं …में ही सब कुछ छुपा है !
संवेदनाएं , स्नेह, मान सम्मान की जरूरत ही कहाँ है लोगों को ! और बच्चे तो वही बनते हैं जो हम बड़े चाहते हैं ! बाबुल के पेंड से आम तो गिरने से रहे …
शुभकामनायें आपको !!
Nice post and beautiful song.
nice article … and nice lyrix of the song too.
ऎसे रिशते तो पश्चिम मे भी नही मिलते जितने हमारे यहां मिलने लगे हे…. सच मे कितने अजीब हो गये हे हम ओर हमारे यह रिश्ते….आज का रिश्ता पेसो का रिश्ता ही हे…
सुन्दर विषय उठाया आपने, यह फिल्म बहुत कुछ सोचने को विवश करती है।
रिश्तों पर विचारणीय पोस्ट …यह सच है की आज रिश्तों के मायने बदल गए हैं …कोशिश तो की जाती है निबाहने की ..पर स्वयं के चरों ओर की परिधि से बाहर नहीं आ पाते ..चाहे वो ब्लोगिंग के रिश्ते हों या ज़िंदगी के आस पास के …रिश्ते बनाने आसान हैं निबाहने मुश्किल …
यह साझापन तो उस वक्त टूटना आरंभ हो गया था जब गण टूट रहे थे और राज्यों उभर रहे थे। लेकिन पूंजीवाद का यह युग साझापन टूटने की अंतिम कड़ी है। फिर टूटने को कुछ बचेगा नहीं।
रिश्तों को समाज ने परिभाषित किया| हम जिस समाज में रहते हैं हमारे बीच एक भावनात्मक रिश्ता बन जाता है| इसलिए अगर आज ये रिश्ते टूट रहे हैं, या कहें दरार आ रहे हैं तो इसके लिए जिम्मेदार कहीं ना कहीं मनुष्य ही है| इसलिए प्रयास ऐसे होने चाहिए कि रिश्ते को सही शब्दों से परिभाषित किया जाये| हम सिर्फ़ आंसू बहाकर चुप रह जायेंगे तो समाधान नहीं निकल सकता| मैं तो मानता हूँ अगर समाज की विकृति हमें परेशान करती है तो उसे प्रगति के रास्ते पर लाने के ठोस प्रयास किये जाएँ| बेशक हमें ही शुरुआत करनी होगी|इसी विषय से मिलता जुलता कुछ यहां भी लिखा है – http://dilkealfaaz.blogspot.com/2011/03/blog-post_11.html
ऐसा नही है की रिश्ते शब्द ही गाली की तरह हो चूका है –हाँ उसके मायने संकुचित हो चुके है –हम पहले ज्वाइंट फेमिली में रहते थे माँ-बाप ,दादा -दादी ,चाचा -चाची,बुआ ,भाई -बहन सब साथ -साथ रहते थे –उनके अपने प्राब्लम होते थे तो निराकरण सब मिलकर करते थे –आज हम दो हमारे दो होते है –और समस्या होने पर हम चारो उसका निराकरण करते है -चारो में भी प्रेम होता ही है –फिर रिश्ते शब्द को गाली क्यों ? रिश्ते आज भी निभाए जा रहे है –पर अपनी परिधि में —
अब एक सवाल क्या ब्लॉगिंग के रिश्ते भी ऐसे ही हैं..
मियां रेगिस्तान में ओअसिस ढूंढ रहे हो !
रिश्ते आजकल सुविधानुसार होते हैं , सामयिक होते हैं , मतलबी होते हैं ।
इंसान जब कोई रिश्ते बनाता है तो एक दूसरे के प्रति बहुत सी जिम्मेदारियां भी साथ मैं लता है और इन सब बन्धनों को आज का इंसान कुबूल नहीं करना चाहता. यहाँ तक कि शादी के मुकाबले live-in relationship कि तरफ भागता दिखाई दे रहा है. आप का सवाल कि ब्लॉगिंग के रिश्ते भी ऐसे ही हैं का जवाब है हाँ अधिकतर ऐसे ही होते हैं, क्यों कि यहाँ टिप्पणिओं और तारीफों का ही रिश्ता हुआ करता है. बस कुछ लोग ऐसे हैं जो इंसानियत कि कद्र करते हैं, ब्लॉगिंग के आभासी रिश्ते को ,करीबी रिश्तों मैं बदल लेते हैं लेकिन अधिकतर धोका ही मिलता है.
बस गाना सुन रहे हैं…