कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पे…खुशदीप

आज की दुनिया को समझना, आज के रिश्तों को समझना…बड़ा मुश्किल है…खास कर हम जैसों के लिए जिन्होंने छोटे शहरों से आकर महानगर को ठिकाना बनाया है…बेसिकली हमारा ढांचा ऐसा बना है जो संयुक्त परिवार में पला-बढ़ा…बचपन मोहल्लों के ऐसे परिवेश में गुज़रा जहां के बुज़ुर्ग सभी बच्चों को अपना ही समझते थे, नज़र रखते थे…बच्चे भी उनके सामने हमेशा नज़रें नीची रखकर ही बात करते थे…

लेकिन महानगर में आकर सब बदल गया है…किसी को किसी से मतलब नहीं…ये भी नहीं पता कि पड़ोस में कौन रहता है…बच्चे भी अब पहले से कहीं ज़्यादा स्मार्ट हो गए हैं…अच्छी बात है…अपना भला बुरा समझते हैं…लेकिन दिक्कत यह है कि उन्हें be  practical का पाठ हम ही घरों पर सिखाते हैं..नैतिकता या इन्सान बनने की बात उन्हें कोई नहीं सिखाता…nuclear family होने की वजह से घर में बुज़ुर्ग भी नहीं हैं उन्हें कुछ समझाने वाले…ऐसे में हम किस मुंह से दोष देते हैं कि देश में भ्रष्टाचार बढ़ रहा है…पैसा-पॉवर  ही सब कुछ माना जाने लगा है…इन हालत में रिश्तों के मायने ही क्या रह जाते हैं..
फिल्म पेज 3 में नए ज़माने के इन हालत पर ही अजय झिन्झार्न और संजय नाथ ने क्या खूब लिखा है,,, 

कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पे,
दो पल मिलते हैं, साथ-साथ चलते हैं,
जब मोड़ आए तो बच के निकलते हैं,
कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पे…


यहां सभी अपनी ही धुन में दीवाने हैं,
करे वही जो अपना दिल ही माने हैं
कौन किसको पूछे कौन किसको बोले,
सबके लबों पर अपने तराने हैं,
ले जाए नसीब किसी को कहां पे,
कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पे…


ख्वाबों की ये दुनिया है ख्वाबों मे ही रहना है,
राहें ले जाएं जहां संग संग चलना है
वक्त ने हमेशा यहा नये खेल खेले,
कुछ भी हो जाए यहां बस खुश रहना है,
मंज़िल लगे करीब सबको यहां पे
कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पे,
दो पल मिलते हैं, साथ-साथ चलते हैं,
जब मोड़ आए तो बच के निकलते हैं,
कितने अजीब रिश्ते हैं यहां पे…

अब एक सवाल क्या ब्लॉगिंग के रिश्ते भी ऐसे ही हैं…छोडिये जोर मत दीजिये लता ताई की दिलकश आवाज़ में यही गाना सुनिए…
 
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