अंग्रेज चले गए और….खुशदीप

अंग्रेज़ों ने हमसे क्या लूटा…और बदले में भारत को क्या दिया…सवाल पुराना है…लेकिन ज्वलंत है…और शायद हमेशा रहेगा भी…अदा जी ने इस मुद्दे पर दो बेहद विचारोत्तेजक और सारगर्भित लेख लिखे…

‘रीढ़ की हड्डी’ है कि नहीं ….?? http://swapnamanjusha.blogspot.com/2009/11/blog-post_02.html

रीढ़ की हड्डी ??? वो क्या होती है ??? http://swapnamanjusha.blogspot.com/2009/11/blog-post.html

इन लेखों पर प्रतिक्रियाएं भी एक से बढ़ कर एक आईं…प्रवीण शाह भाई ने अंग्रेज़ों को लेकर देश में विचार की जो प्रचलित धारा है, उसके खिलाफ जाकर कुछ सुलगते प्रश्न उठाए…अदा जी ने साक्ष्यों के साथ उनका जवाब भी बखूबी दिया…लेकिन मेरा आग्रह कुछ और है…ये ठीक है हमें अपने अतीत को नहीं भुलाना चाहिए…हमें अपने इतिहास, संस्कृति, धरोहरों पर गर्व करना चाहिए…लेकिन सिर्फ अतीत के भरोसे बैठे रह कर क्या हम सही मायने में विकसित देश बन सकते हैं…

यहां मैं आपसे एक प्रश्न करना चाहूंगा…1945 की 6 अगस्त और 9 अगस्त की काली तारीखों को जापान के हिरोशिमा और नागासाकी को परमाणु बम की विभीषिका ने तबाह करके रख दिया…लेकिन जापान ने क्या किया…क्या वो सिर्फ अमेरिका को कोसता रहा…जापान दोबारा उठ कर खडा नहीं हुआ…64 साल बाद जापान की जो आर्थिक संपन्नता की तस्वीर आज दिखती है वही शायद अमेरिका को सबसे करारा जवाब है…

मेरा इस परिचर्चा को नया मोड़ देने का मकसद सिर्फ यही है कि हम इस पर विचार करें कि आज़ादी के 62 साल बाद हम कहां तक पहुंच पाए हैं…आजादी के मतवालों ने प्राणो का बलिदान देकर हमें खुली हवा में सांस लेने की नेमत बख्शी…लेकिन बदले में हमने क्या किया…

जागृति फिल्म में कवि प्रदीप का गीत था…

हम तूफान से लाए हैं कश्ती निकाल के,
मेरे बच्चों रखना तुम इसको संभाल के…

क्या हम सही में रख पाए उस कश्ती को संभाल के…क्या भूख से हमें आजादी मिल गई है…क्या भेदभाव खत्म हो गया है…दलितों के उत्थान का नारा देते देते क्या समाज समरस हो गया है…अशिक्षा से देश को मुक्ति मिल गई है…राजे-महाराजों की रियासतों की तरह प्रांतवाद नई शक्ल में सिर नहीं उठाने लगा है…अंग्रेजों ने फूट डालो, राज करो को भारत पर हुक्म चलाने के लिए मूलमंत्र बनाया…क्या आज यही काम हमारे राजनेता नहीं कर रहे हैं…मेरी चिंता बीता हुआ कल नहीं आज और आने वाला कल है…यहां मैं अदा जी के लेख पर शरद कोकास भाई की टिप्पणी की आखिरी तीन पंक्तियों का उल्लेख ज़रूर करना चाहूंगा…

स्थितियाँ पूरी तरह से बदल गई हैं । अब केवल अपने गौरव गान से भी कुछ हासिल नही होना है , अतीत की सच्चाइयों का सामना करना होगा और वर्तमान और भविष्य के लिये व्याव्हारिकता के साथ निर्णय लेने होंगे…

शरद भाई ने जो कहा, वही आज का सबसे बड़ा सच है…आज भौगोलिक उपनिवेशवाद नहीं आर्थिक उपनिवेशवाद हमारे लिए सबसे बड़ा खतरा है…कोकाकोला और पेप्सी के सिप लेते हुए हम मैक़्डॉनल्ड के फिंगरचिप्स के चटखारे ले रहे हैं…माल्स जाकर विदेशी ब्रैंड के कप़ड़े खरीदने को हम अपनी शान समझते हैं…जुबानी जमाखर्च और बौद्धिक जुगाली कितनी भी की जा सकती है लेकिन सच यही है कि हम आईना देखने को तैयार नहीं है…अगर ऐसा नहीं होता तो फिर किसी को ये क्यों कहना पड़ता…

जिन्हें नाज़ है हिंद पर,
कहां हैं, कहां हैं, कहां हैं…

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