हिंदी ब्लॉग जगत बहुत दिनों से हाइबरनेशन यानि शीतनिद्रा में था…भला हो जर्मन डायचे वेले का जो इसने शीतनिद्रा को भंग किया…लगता है हर ब्लॉगर तरकश के सारे तीरों के साथ उठ खड़ा हुआ है…कुछ पुरस्कारों के समर्थन में, कुछ विरोध में…कुछ नामितों के समर्थन में, कुछ नामितों के विरोध में…एक नामित, दूसरे नामित के विरोध में….और जो इनमें से कुछ नहीं, वो भी चिंतित है…हिंदी ब्लॉगिंग के इतिहास को लेकर… सुनहरे भविष्य को लेकर…हाय ऐसे ही हो-हल्ला मचता रहा तो बाहर वाले क्या सोचेंगे…कैसे होगा हिंदी का उत्थान…
अरे भाई जी, ये हो-हल्ला ही तो किसी ज़िंदा कौम की पहचान है…
क्या ख़ूब कह गए हैं साहिर लुधियानवी साहब…
मैं ज़िन्दा हूं यह मुश्तहर कीजिए,
मेरे क़ातिलों को ख़बर कीजिए’…
अब हाइबरनेशन का ज़िक्र किया है तो पहले इसका ठीक से मतलब भी जान लिया जाए…इस संदर्भ में इंटरनेट पर खोजने पर सुरक्षित गोस्वामी का लेख बहुत सटीक लगा…सुरक्षित जी लिखते हैं…
‘बयॉलजी में एक शब्द प्रयोग होता है – हाइबरनेशन…हिंदी में इसे शीत निद्रा कहते हैं…आपने सुना होगा कि ध्रुवीय भालू, कछुए, मेंढक और सांप जैसे बहुत से जानवर सर्दियों में जमीन के नीचे ऐसी जगह में छिप जाते हैं, जहां ठंड का असर उन पर न हो…वहां उस सुरक्षित जगह पर वे पूरे मौसम यानी तीन या चार महीने तक लगातार सोए रहते हैं….इसी लंबी नींद की अवस्था को हाइबरनेशन या शीत निद्रा कहते हैं….
असल में प्रतिकूल मौसम की वजह से शरीर के लिए आवश्यक ऊर्जा देने वाला भोजन उन्हें पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल पाता, इसलिए वे अंडरग्रांउड हो जाते हैं और महीनों नींद जैसी अवस्था में पडे़ रहते हैं…उस समय अत्यंत धीमी गति से बस उनकी सांस चलती रहती है, जो उन्हें जीवित रखती है…इस दौरान वे खाना- पीना या शिकार या कोई भी अन्य गतिविधि नहीं करते, जैसे बेहोशी या कोमा की स्थिति में हों…उनके शरीर में पहले से जमा चर्बी और पोषक तत्वों से उनका जीवन बचा रहता है…जब मौसम बदलता है, तब वे उस शीत निद्रा से जागते हैं, धीरे-धीरे जमीन से बाहर निकलते हैं और सामान्य जीवन में फिर से लौट आते हैं…
इसी प्रकार आपने यह भी सुना होगा कि प्राचीन काल में हिमालय में अनेक योगी समाधि की अवस्था में महीनों, सालों बैठे रहते थे…इस अवस्था में वे भी अपने शरीर की सुध- बुध खो बैठते थे….यदि समाधि लंबे समय की है तो उनके जटा- दाढ़ी बढ़ जाती थी और कभी- कभी तो शरीर पर दीमक भी लग जाते थे…
मनुष्य प्राकृतिक रूप से शीत निदा जैसी कोई अवस्था नहीं प्राप्त करता…संभवत: हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने अन्य जीवों की शीत निदा को देख कर ही अपने तप और साधना द्वारा यह अवस्था प्राप्त करने की विधि विकसित की होगी…साधक बताते हैं कि एक तो इस अवस्था में जाने पर जीवित रहने के लिए शरीर से ऊर्जा का क्षय न्यूनतम होता है…इस तरह से मनुष्य जीवन का भी संचय करता है और अपनी ऊर्जा का भी, जिसे वह बाद में किसी बड़े उद्देश्य के लिए लगा सकता है…इसके अलावा, साधक यह भी कहते हैं कि समाधि में सत, चित और आनंद की अवस्था प्राप्त होती है, जो अन्यथा नहीं मिल सकती…इस प्रकार ऐसे योगी सैकड़ों साल तक शुद्घ, बुद्घ और चैतन्य बने रह सकते हैं.’..
हिंदी ब्लॉगिंग के निष्क्रिय कालखंडों को भी इसी हाइबरनेशन से जोड़ कर देखा जा सकता है…अब डायचे वेले की टंकार पर हिंदी ब्लॉगिंग के भी सभी ऋषि-मुनि अपनी कंदराओं से बाहर निकल आए हैं…कुछ शांत प्रवचन करते हुए तो कुछ दुर्वासा ऋषि का रौद्र रूप लेकर…जहां टिप्पणियां सरस्वती नदी की धार जैसे लुप्त हो गई थी, वहां अब कई पोस्टों पर उनका उफ़ान ख़तरे के निशान को पार कर चुका है…
चलिए अब ये हंगामा जिस पर बरपा है, उसकी भी बात कर ली जाए…सम्मान-पुरस्कार…खास तौर पर इनके साथ मिलने वाले प्रशस्ति-पत्र पर…मेरे एक मित्र ने इनकी निरर्थकता पर बड़ा दिलचस्प ऑब्जर्वेशन दिया है…उसका कहना है कि इस काग़ज के टुकड़े से तो टिश्यू पेपर अच्छा है…कुछ काम तो आता है…प्रशस्ति पत्र को उलटे ज़िंदगी भर संभालने का टंटा और करना पड़ता है…
अब समझ आ रहा है कि अमर ब्लॉगर डॉ अमर कुमार जी ने ताउम्र कोई सम्मान या पुरस्कार क्यों स्वीकार नहीं किया…शायद चिकित्सकों को दिए जाने वाला प्रतिष्ठित डॉ बी सी रॉय अवॉर्ड भी नहीं…(इस बिंदु पर किसी को ज़्यादा जानकारी हो तो कृपया टिप्पणी के ज़रिए बताएं…डॉक्टर साहब ने खुद ही एक बार मेरी पोस्ट पर एक टिप्पणी के ज़रिए ये ज़िक्र किया था…मैं उस पोस्ट को ढूंढ नहीं पा रहा हूं…लेकिन डॉक्टर साहब के इस विलक्षण आयाम को लेकर और दुरूस्त होना चाहता हूं)…
अंत में कवि धूमिल जी को नमन करते हुए पुरस्कारों की ये व्याख्या…
एक आदमी,
पुरस्कार बेलता है,
एक आदमी पुरस्कार खाता है,
एक तीसरा आदमी भी है,
जो न पुरस्कार बेलता है, न पुरस्कार खाता है,
वह सिर्फ़ पुरस्कार से खेलता है,
मैं पूछता हूँ–
‘यह तीसरा आदमी कौन है ?’
हिंदी ब्लॉग की संसद मौन है…
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