हां, मैंने बढ़ाई थी अपनी पसंद…

आज दो अक्टूबर है…दो हस्तियों का जन्मदिन…एक सत्य का पुजारी…दूसरा ईमानदारी की मिसाल…एक गांधी, दूसरा शास्त्री…इस पावन दिन पर मैं अपना गुनाह कबूल कर अपने दिल का बोझ हल्का कर रहा हूं…औरों की मैं जानता नहीं, अपने पर अपना बस चलता है…इसलिए दो अक्टूबर से ही पहल कर रहा हूं…घर की सफ़ाई करनी है तो सबसे पहले अपने से ही शुरुआत क्यों न की जाए…मन साफ़ होगा तभी तो हम दूसरों को कोई नसीहत देने का हक रख सकते हैं…

आज से करीब 25-30 साल पहले अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा और जीनत अमान की एक फिल्म आई थी दोस्ताना…इस फिल्म मे मॉड लड़की बनी ज़ीनत अमान इंस्पेक्टर बने अमिताभ बच्चन से थाने में शिकायत करने पहुंचती हैं कि उन्हें किसी राह चलते मनचले ने छेड़ा है…अमिताभ मनचले की तो खबर लेते ही हैं लेकिन जीनत अमान के कम कपड़ों को देखकर कहते हैं…अगर कोई घर खुला रखकर छोड़ेगा तो फायदा उठाने वाले तो आएंगे ही... ऐसा ही कुछ अभी ब्लॉगवाणी के पसंद प्रकरण में भी हुआ…

आपने एक ऐसा ज़रिया छोड़ रखा है जिसका कोई भी अपने स्वार्थ के लिए बेजा इस्तेमाल कर सकता है…कौन ब्लॉगर चाहेगा कि उसकी पोस्ट एग्रीगेटर पर दूसरी पोस्टों के अंबार के नीचे दबी रहे…उसकी ख्वाहिश यही रहेगी कि कि उसने जो लिखा है उसे ज़्यादा से ज़्यादा पाठक पढ़ें…अब एग्रीगेटर पर पोस्ट के अंबार में दबे न, इसके लिए सबसे अच्छा तरीका है या तो ज़्यादा पसंद वाले साइड कॉलम में अपनी पोस्ट को जल्दी से जल्दी जगह मिल जाए…या फिर ज़्यादा पढ़े वाले कॉलम में पोस्ट का टाइटल आ जाए…ज्यादा टिप्पणियों वाला कॉलम दूसरे पाठकों पर निर्भर करता है, इसलिए वहां मैनीपुलेशन की तभी गुंजाइश हो सकती है जब आप किसी सिंडीकेट से जुडे हों, अन्यथा वहां कोई स्कोप नहीं बचता…रही बात ज़्यादा पढ़े या ज्यादा पसंद वाले कॉलम की तो यहां भी ज़्यादा पसंद वाला कॉलम बेहद अहम हो जाता है…क्योंकि इस कॉलम में एंट्री के लिए आपको दो या तीन पसंद के चटकों की ही ज़रूरत होती है…फिर अपनी एंट्री को कॉलम में ऊपर ले जाने के लिए आप को और पसंद की ज़रूरत होती है…

अब ब्लॉगिंग में कोई नया आता है तो उसकी कोशिश भी यही होती है कि उसकी पोस्ट का टाइटल कम से कम दिखता तो रहे जिससे उसे पढ़ने वाले मिलते रहें…बस यही से स्वार्थ का खेल शुरू होता है…मैं भी कबूल करता हूं कि शुरू-शुरू में मैंने भी अपने लैपटॉप को तीन-चार बंद करके पसंद को तीन-चार बार बढ़ाया था…कोशिश यही होती थी कि जल्दी से जल्दी पसंद वाले कॉलम में पोस्ट को जगह मिल जाए…इससे ज़्यादा कुछ नहीं…क्योंकि ऐसा कम ही हुआ कि असली-नकली पसंद को मिलाकर भी मेरा आंकड़ा कभी दहाई की संख्या के पार पहुंचा हो…यानि ये सारी कवायद बस पसंद के कॉलम में पहुंचने तक ही सीमित थी…लेकिन में ये भी देखता था कि कुछ पोस्ट को 30-40 तक पसंद मिल जाती हैं…अब ये सारी पसंद असली ही होती हैं, यकीन के साथ कैसे कहा जा सकता है…

अवधिया जी ने इस प्रकरण के दौरान अपनी टिप्पणियों और पोस्ट में बड़ा सही जुमला उछाला है- स्वार्थ की मानसिकतावो विरले ही होंगे जो इस मानसिकता को अपने ऊपर हावी न होने दे…इंसान छोटा होता है तो स्कूल की क्लास में उसका सपना होता है वो सब बच्चों में अव्वल रहे…सारा खेल नंबरों का होता है…अगर बच्चा 95-96 प्रतिशत अंक भी लाए लेकिन दूसरे-तीसरे नंबर पर रहे तो भी बच्चे के मां-बाप को मलाल रहेगा कि बाकी एक-दो बच्चों के अंक कैसे ज़्यादा आ गए…यहीं से कभी-कभार बच्चे में अपराध की भावना भी घर करने लगती है…नकल जैसे अनुचित तरीके भी उसे नज़र आने लगते हैं…

आप कितने भी बड़े क्यो न हो गए हों, सिर से अगर किसी कटी पतंग की डोर निकल रही हो तो एक बार तो आपके हाथ उसे लपकने के लिए ऊपर हो ही जाएंगे…आपके सामने से गन्ने से लदी कोई ट्रैक्टर-ट्राली या भैंसा-बुग्गी जा रही है….औरों को वहां से गन्ने निकालते देख आपका भी मन हो उठता है, एकाध गन्ना मुफ्त में खींचने का…ऐसा ही पसंद के गन्नों के मांमले में किसी के साथ भी हो सकता है…स्वार्थ भी इंसान की फितरत का एक हिस्सा है…ऐसे ही अगर पसंद की शक्ल के गन्नों में से तीन-चार मैंने भी खींचने की कोशिश की, तो मैं निश्चित तौर पर गुनहगार हूं…

लेकिन सवाल फिर वही,पसंद का ऐसा लूपहोल छोड़ा ही क्यों गया है, जिसका औरों को दुरुपयोग करने का मौका मिलता रहे…ब्लॉगर भाई राकेश सिंह ने अपनी पोस्ट पर ब्लॉगवाणी में किए जा रहे कुछ बदलावों को लेकर शंका जताई है…उनकी इस शंका से मैं भी सहमत हूं कि अगर नापसंद का कॉलम शुरू कर दिया गया तो क्या ज़रूरी नहीं कि एक-दूसरे की टांग खिंचाई और स्कोर सैटल करने की नीयत से उसका गलत इस्तेमाल किया जाने लगे…मैं तो फिर ज़ोर देकर कहना चाहूंगा कि कम से कम पसंद वाला कॉलम तो खत्म कर ही दिया जाए…इसकी जगह मेरी पहले की पोस्ट…ताकि फिर उंगली न उठ पाए…में दिए रोटेशन के सुझाव को आजमाया जा सकता है…बाकी ये सब सुझाव ही सुझाव है… मानना न मानना सब एग्रीगेटर के हाथ में है…

ये सवाल भी उठाया जाता है कि अगर आप अच्छा लिखेंगे तभी आपको पाठक मिलेंगे…लेकिन क्या ये देखा नहीं जाता कि बहुत अच्छे आलेख भी यूंही दबे रहते हैं…उन्हें पाठक ही नहीं मिल पाते…क्यों…क्यों कि सिस्टम ही ऐसा है… पसंद मे या ज़्यादा पढ़े वाले कॉलम में आएंगे तभी उनकी टीआरपी बढ़ेगी…यानि जो ज़्यादा दिखता है…वही बिकता है…और फिर मेरा एक सवाल और है नापसंद के विकल्प को भी छोड़ दो…अगर सिर्फ पसंद का ही कॉलम रहता है…ब्लॉगवाणी के सतर्क होने के बाद लॉबिंग के चलते कोई दूसरे ब्लॉगर को नीचा दिखाना चाहता है…तो क्या ये संभावना नहीं हो सकती कि बार बार उस ब्लॉगर विशेष की पोस्ट पर खुद ही नकली पसंद के चटके लगाने शुरू कर दिए जाए…ऐसा करने से वो ब्लॉगर विशेष निश्चित रूप से ब्लैक लिस्ट में आ जाएगा..जबकि उसका कोई कसूर भी नहीं होगा…

मैं तो पसंद पर अपना गुनाह कबूल कर हल्का महसूस कर रहा हूं…आप भी ऐसी कोई दिल की बात कहना चाहते हैं तो बिंदास कह डालिए…यकीन मानिए खुद को लाइट अनुभव करेंगे…

स्लॉग ओवर
ढक्कन…यार मक्खन, एक बात तो बता…ये जंबो जेट प्लेन पर पेंट करने में कितना सारा पेंट लग जाता होगा…ट्रकों के हिसाब से ही पेंट लगता होगा…

मक्खन…तू रहा झल्ला का झल्ला…ओ बेवकूफा…पहले हम जंबो जेट को उड़ाते हैं…वो आसमान में उड़ते-उड़ते चिड़ी जितना छोटा रह जाता है…तो झट से पकड़ कर उस पर कूची मार देते हैं…है न पेंट की बचत ही बचत…

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