कल ई-मेल से एक कहानी मिली…शायद आपने भी कहीं पढ़ी हो…लेकिन ये कहानी देश की राजनीति के ऊपर बड़ी सटीक बैठती है…आज़ादी के बाद 66 साल में ये देश जो भी बना, उसके लिए हम खुद ही ज़िम्मेदार हैं…कैसे भला? जानना है तो कहानी पढ़ लीजिए ना…
एक बार एक हंस और हंसिनी हरिद्वार के सुरम्य वातावरण से भटकते हुए उजड़े, वीरान और रेगिस्तान के इलाके में आ गये…हंसिनी ने हंस को कहा कि ये किस उजड़े इलाके में आ गये हैं ?…यहाँ न तो जल है, न जंगल और न ही ठंडी हवाएं हैं…यहाँ तो हमारा जीना मुश्किल हो जायेगा…भटकते-भटकते शाम हो गयी तो हंस ने हंसिनी से कहा कि किसी तरह आज की रात बिता लो, सुबह हम लोग हरिद्वार लौट चलेंगे…
रात हुई तो जिस पेड़ के नीचे हंस और हंसिनी रुके थे, उस पर एक उल्लू बैठा था…वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा… हंसिनी ने हंस से कहा, अरे यहाँ तो रात में सो भी नहीं सकते… ये उल्लू चिल्ला रहा है…हंस ने फिर हंसिनी को समझाया कि किसी तरह रात काट लो, मुझे अब समझ में आ गया है कि ये इलाका वीरान क्यूँ है ? ऐसे उल्लू जिस इलाके में रहेंगे वो तो वीरान और उजड़ा रहेगा ही…पेड़ पर बैठा उल्लू दोनों कि बात सुन रहा था…
सुबह हुई, उल्लू नीचे आया और उसने कहा कि हंस भाई मेरी वजह से आपको रात में तकलीफ हुई, मुझे माफ़ कर दो…हंस ने कहा, कोई बात नही भैया, आपका धन्यवाद…यह कहकर जैसे ही हंस अपनी हंसिनी को लेकर आगे बढ़ा, पीछे से उल्लू चिल्लाया, अरे हंस मेरी पत्नी को लेकर कहाँ जा रहे हो…हंस चौंका, उसने कहा, आपकी पत्नी? अरे भाई, यह हंसिनी है, मेरी पत्नी है, मेरे साथ आई थी, मेरे साथ जा रही है…उल्लू ने कहा, खामोश रहो, ये मेरी पत्नी है…
दोनों के बीच विवाद बढ़ गया… पूरे इलाके के लोग इकट्ठा हो गये…कई गावों की जनता बैठी…पंचायत बुलाई गयी…पंच लोग भी आ गये… बोले, भाई किस बात का विवाद है ?…लोगों ने बताया कि उल्लू कह रहा है कि हंसिनी उसकी पत्नी है और हंस कह रहा है कि हंसिनी उसकी पत्नी है…लम्बी बैठक और पंचायत के बाद पंच लोग किनारे हो गये और कहा कि भाई बात तो यह सही है कि हंसिनी हंस की ही पत्नी है, लेकिन ये हंस और हंसिनी तो अभी थोड़ी देर में इस गाँव से चले जायेंगे…हमारे बीच में तो उल्लू को ही रहना है…इसलिए फैसला उल्लू के ही हक़ में ही सुनाना है…
फिर पंचों ने अपना फैसला सुनाया और कहा कि सारे तथ्यों और सबूतों कि जांच करने के बाद यह पंचायत इस नतीजे पर पहुंची है कि हंसिनी उल्लू की पत्नी है और हंस को तत्काल गाँव छोड़ने का हुक्म दिया जाता है…
यह सुनते ही हंस हैरान हो गया और रोने, चीखने और चिल्लाने लगा कि पंचायत ने गलत फैसला सुनाया…उल्लू ने मेरी पत्नी ले ली… रोते- चीखते जब वहआगे बढ़ने लगा तो उल्लू ने आवाज लगाई…ऐ मित्र हंस, रुको… हंस ने रोते हुए कहा कि भैया, अब क्या करोगे ? पत्नी तो तुमने ले ही ली, अब जान भी लोगे ?…
उल्लू ने कहा, नहीं मित्र, ये हंसिनी आपकी पत्नी थी, है और रहेगी…लेकिन कल रात जब मैं चिल्ला रहा था तो आपने अपनी पत्नी से कहा था कि यह इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए है क्योंकि यहाँ उल्लू रहता है…मित्र, ये इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए नहीं है कि यहाँ उल्लू रहता है…यह इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए है क्योंकि यहाँ पर ऐसे पंच रहते हैं जो उल्लुओं के हक़ में फैसला सुनाते हैं…
शायद 66 साल कि आजादी के बाद भी हमारे देश की दुर्दशा का मूल कारण यही है कि हमने हमेशा अपना फैसला उल्लुओं के ही पक्ष में सुनाया है…इस देश क़ी बदहाली और दुर्दशा के लिए कहीं न कहीं हम भी जिम्मेदार हैं…
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क्या बात है …
कहाँ से ढूंढ कर लाते हैं ऐसी कथाएँ ….?
जबरदस्त बोध कथा 🙂
सही कहा आपने ….हम सब ही ज़िम्मेदार है
हम सब ही जिम्मेदार है, थोड़ा आकाश हम सबने काला किया है।
जिम्मेदार सिर्फ़ उल्लू ही नही बल्कि हंस भी हैं, सटीक.
रामराम.
जनता भी ऐसे उल्लुओं के पक्ष में ही वोट डालती है। कथा प्रेरक है।
बिल्कुल हम भी जिम्मेदार हैं।
पूरे कुंये में भांग पड़ी है इसलिये वो सुबह कभी नहीं आयेगी जिसका इन्तजार है.
क्या ग़ज़ब की कहानी बताई । इसी तरह की कई कहानियां अकसर प्रकाश में आती रहती है, हालात जस के तस होते तो भी गनीमत थी लेकिन दिन-ब-दिन इंसान का जीना मुश्किल होता जा रहा है । हमें बीमारी का पता है लेकिन निदान करते समय हमे दर्द निवारक दे दी जाती है । कुछ देर आराम और पांच साल तक फिर वही दर्द । कब ठीक होंगे, नहीं पता । बस इस तरह की कहानिया पढ़ कर याद करते रहेगें कि हम बीमार हैं । मरने से पहले जीना सीखना जरूरी है और इसके लिए जरूरी है – बीमार मानसिकता से उबरने की । इन सब के बावजूद हम आशावादी हैं – वो सुबह कभी तो आएगी , इन उल्लूओं से निजात पाने की ।
– चन्द्र प्रकाश बुद्धिराजा
बहुत सटीक बैठती है यह कहानी हम भारतीय मतदाताओं पर !!
सोचने की बात है !
कई बार लगता है कि इन पंचो के हम सरपंच हैं…आजतक इन्हीं उल्लुओं के हक में फैसलायें सुनाये जा रहे हैं…होली पर्व की शुभकामनायें ।
बहुत ही सटीक !
हंस ही तो उल्लुआें को पंच बनाए बैठे हैं
कहीं कहां..पूरे ही हम जिम्मेदार हैं