समीर-सागर के मोती…खुशदीप

कल की पोस्ट से आगे…
लता मंगेशकर का गायन…
ए आर रहमान का संगीत…
सचिन तेंदुलकर की बैटिंग…

ये जब लय में बहते हैं तो सब कुछ इनके साथ बहता है…एफर्टलेस…ऐसा लगता ही नहीं कि वो सर्वोत्तम देने के लिए कुछ प्रयास कर रहे हैं…यही बात गुरुदेव समीर लाल समीर जी के लेखन पर भी लागू होती है…पढ़ने वालों को तब तक साथ बहा कर ले जाते हैं, जब तक किताब या पोस्ट का आखिरी शब्द नहीं आ जाता…पढ़ने वाला यही सोचता रह जाता है कि बहती धारा रुक क्यों गई…धारा रुकती ज़रूर है लेकिन इस पर पूर्ण विराम नहीं लगता…ये सिर्फ मध्यांतर होता है…तब तक जब तक गुरुदेव की उंगलियों की जुम्बिश से कंप्यूटर के कैनवास पर कुछ और नहीं उकेर आता…

एक स्वामी प्रवचन देता है, गुरु उपदेश देता है…लेकिन ग्रहण करने वाले पर ज़ोर पड़ता है…समीर जी कुछ कहते हैं, तो ग्रहण करने वाले के अंदर वो सहजता के साथ समाता चला जाता है…हम अपनी जिस दिनचर्या को रुटीन, बोरिंग, थैंकलेस कह कर खारिज करते रहते हैं, समीर जी उसी दिनचर्या से लम्हों को उठा कर खास बना देते हैं…समीर जी की उपन्यासिका देख लूँ तो चलूँ को पढ़ने का मज़ा भी एक गो में ही है…क्योंकि इसमें रवानगी के साथ बहने में ही आनंद है…

हमें कोई नसीहत देता है, हम एक कान से सुनते हैं और दूसरे से निकाल देते हैं…क्यों…क्यों कि हम अपने से बड़ी तोप किसी को मानते ही नहीं…आखिर हम से बड़ा समझदार कौन ? लेकिन समीर जी जब कहते हैं तो तज़ुर्बे की ख़ान से निकले उनके शब्द सीधे दिल में उतर जाते हैं…बड़ी से बड़ी बात इतने सरल, निर्मल और सहज ढंग से कि पढ़ने या सुनने वाले को सागर से अमृत मंथन जैसा अनुभव होता है…

समीर जी के लेखन पर मेरे लिए कुछ कहना वैसा ही है जैसे कोई नादान सूरज के सामने दियासिलाई दिखाने की हिमाकत करे…लेकिन समीर जी व्यक्ति,समाज, देश, परदेस की खामियों पर अपनी मस्तमौला लेखनी से जिस तरह प्रहार करते हैं, वो पढ़ने वाले को शिद्दत के साथ सोचने पर ज़रूर मजबूर करती हैं…समीर जी की उपन्यासिका से ली गई इस तरह की बानगियां ही यहां आपको दिखाता हूं…मसलन…

परदेस में रहने वाले भारतवंशी जब आपस में मिलते हैं तो अपनी जड़ों को याद करते हुए ऐसा दर्द ज़ुबां से उढ़ेलते हैं कि हर किसी की आंख नम हो जाती है…समीर जी यहां शब्दों की गहरी चोट करते हुए कहते हैं- जड़ों का दर्द, जड़ों का दर्द, मानो गलती इनकी न होकर जड़ की हो जो विदेश में जा बसी हो और इन बेचारे कविमना को वहीं छोड़ गई हो…


परदेस में बेबीसिटिंग के लिए दस डॉलर प्रति घंटा खर्च करने पड़ते हैं…बेटा-बहू नौकरी के लिए दिन में दस घंटे बाहर… ऐसे में अम्मा-बाबूजी को 24घंटे की सेवा में बुलाना और साथ रखना हमेशा ही दिख जाता है, बहू भी हीरा जैसी मिली है…फोन पर कहती रहती है-अम्मा जल्दी आओ, तुम्हारी बहुत याद आ रही है…अब दिन-भर अम्मा-बाबू जी बच्चे की देखभाल करें, नहलाएं, धुलाएं, खिलाएं और सुलाएं…बहू-बेटे की पौ-बारह…अम्मा के हाथ का बना खाना, नाश्ता और टिफिन…और क्या चाहिए…


या भारत में रह रहे पिता शिवदत्त और मां कांति का दर्द, जिनका इकलौता बेटा संजू विदेश में नौकरी के साथ अपने परिवार में मगन है…अब हर रात शिवदत्त और कांति किस तरह संजू की बातों में गुज़ारते हैं, इस पर समीर जी की लेखनी पढ़ने वालों का कलेजा चीर देने की ताकत रखती है…


विदेश जाने की ललक भारतीयों में कूट-कूट कर भरी होती है…भले ही भारत में आराम से कट रही हो लेकिन दूर के ढोल तो सुहाने ही नज़र आते हैं…समीर जी उपन्यासिका में एक जगह कहते हैं-भले ही कितनी मेहनत करनी पड़े, नए नए कोर्स करने पड़ें, अपना प्रोफेशन छोड़कर दूसरा काम करना पड़े, अपना नाम खो देना पड़े, मगर आना ज़रूर…हम मना नहीं करेंगे…हम मना भी करेंगे तो तुम मानोगे कहां…


परदेस में किसी पार्टी में गोरा या गोरी भी आमंत्रित हो और वो आकर नमास्टे कह दे तो फिर देखिए तमाशा…सभी करीब करीब चरण स्पर्श की मुद्रा में कहते नज़र आएंगे, ओह हाऊ डू यू डू नो हिंदी…गोरा/गोरी भी मटकते हुए बोलेगा/बोलेगी…आई नो डेलही, आई विश, आई कुड गो देयर वन डे…ए वंडरफुल कंट्री टू विज़िट…बस इसके बाद तो आमंत्रणों की बौछार शुरू…आप हमारे साथ कभी चलिएगा…अकेले मत जाना…और शुरू हिंदुस्तान की मटियामेट कि अकेले देखकर आपको लूट लेंगे…टैक्सी वाला घुमाता रहेगा…आपके पैसे लूट जाएंगे…मगर हम साथ रहेंगे तो हमें आता है कि कौन कहां लूट रहा है, उससे बचाना…


समीर जी की उपन्यासिका में ही आपको इस सवाल का जवाब मिलेगा कि वानप्रस्थ में पहुंचने के बाद पैसा खर्च कर आर्ट ऑफ लिविंग सीखने की जगह बिना कुछ खर्च किए तज़ुर्बे के निचोड़ से आर्ट ऑफ डाइंग सीखना ही क्यों श्रेयस्कर है…

देख लूँ तो चलूँ के समीर-सागर में ऐसे ही मोती भरे पड़े हैं, बस ज़रूरत है गोता लगाकर उन तक पहुंचने की…

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भारतीय नागरिक - Indian Citizen

लेकर पढ़ेंगे… तब तक थोड़ा सा और बताइये..

राज भाटिय़ा

देखे हम कब पढते हे, वेसे अब तक जो जो बाते आप ने कही सब पहले ही पढी हुयी हे, लेकिन आप सब की बातो से लगता हे अब इसे खरीदना ही पडेगा

नुक्‍कड़

लीजिए साथियों कुछ मैं भी दिखाता, नहीं पढ़ाता चलूं, क्‍योंकि पुस्‍तक में देखकर लिख तो मैं रहा हूं :-

'कहते हैं कि इस तरह से बच्‍चों की पर्सनालिटी डेव्‍हलप होती है। उन्‍हें दुनियादारी की सीख मिलती है और इन्‍डेपेन्‍डेन्‍स डेव्‍हलप हो जाती है। मैं विचार करता हूं कि अपने यहां काम कर रहे बच्‍चों को सोच कर-चाहे वो शिव काशी में हों, या ईंट भट्टे पर या किसी ढाबे में या किसी धनपति के घर। वो काम करें तो यही मुल्‍क उसे एक्‍सप्‍लोईटेशन का नाम देते हैं। बच्‍चों से बचपन छीन लेने की बात करते हैं फिर यहां ये कैसे पर्सनालिटी, डेव्‍हलप, दुनियादारी की सीख और इन्‍डेपेन्‍डेन्‍स हो गया।'
मेरे विचार में समीर, सागर के नहीं, मानस के मोती हैं आपकी क्‍या राय है

रेखा श्रीवास्तव

समीर जी वहाँ बैठ कर यथार्थ की जो तस्वीर दिखा रहे हैं, वह ही सच है. माँ बाप कि कीमत विदेश में रहने वाले सुपुत्र ही अधिक समझते हैं. यहाँ तो माँ बाप बेकार की चीज समझी जाती है क्योंकि हमारी सोच इतनी निकृष्ट हो चुकी है कि माँ बाप बोझ लगते हैं इतना करने के बाद भी.

Sushil Bakliwal
14 years ago

बड़ी से बड़ी बात इतने सरल, निर्मल और सहज ढंग से कि पढ़ने या सुनने वाले को सागर से अमृत मंथन जैसा अनुभव होता है…

यह अनुभव तो उनके सभी ब्लाग पाठकों का भी है ही.

ब्लॉ.ललित शर्मा

कभी मेरी भी पुस्तक पढ़ें.
शायद आपको पसंद आये. 🙂

अजित गुप्ता का कोना

समीर जी की पुस्‍तक की जब भी चर्चा होती है मुझे मेरी पुस्‍तक – "सोने का पिंजर … अमेरिका और मैं" का स्‍मरण होने लगता है। मुझे कई बार लगता रहा कि मैंने कुछ अतिशयोक्ति तो नहीं कर दी लेकिन जब समीर जी की पुस्‍तक पढ़ी तो मन को संतोष हुआ। समीर जी को बार-बार बधाई।

Udan Tashtari
14 years ago

आप सबका अपार स्नेह इस पुस्तक के पठन को विशिष्ट बना रहा है, आभार.

प्रवीण पाण्डेय

कई सामाजिक तथ्यों को सलीके से सजाती यह पुस्तक।

शिवम् मिश्रा

जी सहमत हूँ आपकी गोता लगाने वाली राय से … बस पानी ठंडा है सो आजकल रुका हुआ हूँ … पर बहुत जल्द गोता लगाने वाला हूँ यह तै है !

जय हिंद !

दिनेशराय द्विवेदी

समीर जी की यह पुस्तक अपने आप में अनोखी है।

वाणी गीत
14 years ago

रेल के सफ़र में एक बार कुछ विदेशी महिला पर्यटकों से हाथ मिलाने, उनके जुटे चप्पल तक उठाने को लालायित लोगों को देख कर गुस्सा और हंसी की मिली जुली अनुभूति हुई….विदेश में भी भारतीय ऐसी ही हरकते करते हैं …सोचने की बात है !

डा० अमर कुमार

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समीर भाई के वज़न के हिसाब से इस उपन्यासिका के इतने कम पृष्ठ देख कर ठगे जाने सा लगा,
पढ़ने पर लगता है कि बेशक, कहीं कहीं पर तिलमिला देने वाली शैली धारण किये हैं, महाराज़ !
यह तो मैं डुबकी लगाने से पहले किये जाने वाले आचमन के आधार पर कह रहा हूँ ।
तुमने याद दिलाया तो अब लग रहा है कि वाकई गोता लगाने वाली बात है !

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