ये महफ़िल मेरे काम की नहीं…खुशदीप

गोल्ड एफएम पर आज हीर रांझा का एक गीत सुना…कैफ़ी आज़मी के बोल…मदन मोहन का संगीत…रफ़ी साहब की आवाज़…आप सब जानते हैं कि मुझे फिल्मी गीतों के मुखड़ों के ज़रिए कमेंट करने की बुरी आदत है…क्या करूं…अपनी दिल की बात कहने के लिए मुझे इससे अच्छा कोई रास्ता नज़र नहीं आता…आज पूरी पोस्ट ही इस गाने के ज़रिए कहने का मन है…ऐसा क्यों है, मैं खुद भी नहीं जानता…आप बस ये गाना देखिए, पढ़िए और सुनिए…

ये दुनिया ये महफ़िल, मेरे काम की नहीं,


मेरे काम की नहीं…


ये दुनिया ये महफ़िल, मेरे काम की नहीं,


मेरे काम की नहीं…


किसको सुनाऊं हाले दिल-ए-बेक़रार का,


बुझता हुआ चराग हूं अपने मज़ार का


ए काश भूल जाऊं, मगर भूलता नहीं


किस धूम से उठा था जनाज़ा बहार का,


ये दुनिया ये महफ़िल, मेरे काम की नहीं,


मेरे काम की नहीं…




अपना पता मिले न ख़बर यार की मिले,


दुश्मन को भी ना ऐसी सज़ा प्यार की मिले,


उनको खुदा मिले, है खुदा की जिन्हें तलाश,


मुझको बस इक झलक मेरे दिलदार की मिले,


ये दुनिया ये महफ़िल, मेरे काम की नहीं,


मेरे काम की नहीं…




सेहरा में आके भी मुझको ठिकाना न मिला,


गम को भुलाने का, कोई बहाना न मिला,


दिल तरसे जिसमें प्यार को, क्या समझूं उस संसार को


इक जीती बाज़ी हार के, मैं ढूंढू बिछड़े यार को


ये दुनिया ये महफ़िल, मेरे काम की नहीं,


मेरे काम की नहीं…

दूर निगाहों से आंसू बहाता है कोई,


कैसे ना जाऊं मैं, मुझको बुलाता है कोई


या टूटे दिल को जोड़ दो, या सारे बंधन तोड़ दो,


ए पर्बत रस्ता दे मुझे, ए कांटों दामन छोड़ दो,


ये दुनिया ये महफ़िल, मेरे काम की नहीं,


मेरे काम की नहीं…


ये दुनिया ये महफ़िल, मेरे काम की नहीं,


मेरे काम की नहीं…

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