मैं इधर जाऊं या ऊधर जाऊं…खुशदीप

दांत मरोड़ू, तिनका तोड़ूं,

इस लड़के/लड़की से कभी न बोलूं…


कुट्टी पक्की वाली…अंगूठे को आगे के दो दांतों के नीचे ले जाकर किट की आवाज़ के साथ होने वाली कुट्टी…

ये सब याद कर चार दशक पहले मेरठ के न्यू मॉडल स्कूल की अपनी प्राइमरी क्लास में पहुंच गया हूं….यही सब होता था तब…अब पता नहीं प्राइमरी क्लासों में होता है या नहीं…अप्पा के लिए अपने अंगूठे को मुंह में डाल कर गोल गोल घुमाना…

तब कुट्टी और अप्पा के यूनिवर्सल सिगनेचर होते थे…किसी से कुट्टा हो जाती थी तो अपनी तरफ़ से
यही कोशिश रहती थी कि उस लड़के या लड़की से बाकी सारी क्लास के बच्चे भी कुट्टा कर दें…ऐसे में उन बच्चों के लिए बड़ी दिक्कत हो जाती थी जो दोनों ही तरफ के दोस्त होते थे…अब हमारे कहने से जो कुट्टा कर देता था वो अपना पक्का दोस्त और जो कुट्टा नहीं करता था वो दुश्मन से भी बड़ा दुश्मन…

जिस तरह राजनीति में स्थायी न कोई दोस्त होता है और न ही दुश्मन…इसी तरह ये कुट्टी और अप्पा का चक्कर भी होता है…कई बार ऐसा भी हुआ कि जिससे हमने पक्की कुट्टी की थी, बाद में उसी से अप्पा कर ली…लेकिन हमारे कहने पर दूसरे कुट्टी करने वाले फिर धर्मसंकट में पड़ जाते थे…उन्हें भी आखिर फिर पुरानी स्थिति में लौटना पड़ता था…

वैसे ये कुट्टी-अप्पा का सिद्धांत भी बीजगणित या एलज़ेब्रा के फॉर्मूलों पर चलता है…यहां माइनस और माइनस मिल कर प्लस हो जाते हैं…यानि दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त हो जाता है..और दुश्मन का दोस्त अपना दुश्मन हो जाता है…

खैर छोड़िए ये सब चक्कर…मेरा पसंदीदा गाना सुनिए…

मैं इधर जाऊं या ऊधर जाऊं,

बड़ी मुश्किल में हूं किधर जाऊं…

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