मंदिर में लड़कियों-महिलाओं के प्रवेश पर रोक क्यों…खुशदीप

मैं नहीं जानता कि हिंदी ब्लॉग पर पहले ये मुद्दा कभी उठा है या नहीं…लेकिन मुझे इसमें व्यापक विमर्श की संभावना दिख रही है…ये मुद्दा एक मंदिर में भगवान की मूर्ति को एक महिला के छूने के दावे से मचे विवाद को लेकर है…बात यहां केरल के मशहूर सबरीमाला मंदिर की हो रही है…इस मंदिर के नियमों के अनुसार यहां 10 साल से लेकर 50 साल की लड़कियों और महिलाओं के प्रवेश पर मनाही है…

सबरीमाला मंदिर

लेकिन जून 2006 में मशहूर कन्नड अभिनेत्री जयमाला के एक दावे से सबरीमाला मंदिर प्रशासन समेत पूरे केरल में बवाल मच गया था…जयमाला  के मुताबिक उन्होंने युवावस्था में 1986 में सबरीमाला मंदिर में प्रवेश कर भगवान अयप्पा की मूर्ति को छुआ था…यानि तीर्थस्थल के नियमों का सरासर उल्लंघन किया था और जिसके लिए वो प्रायश्चित करना चाहती हैं…
जयमाला


आज यानि 14 दिसंबर 2010 को पठानीमिट्ठा ज़िले के रन्नी में फर्स्ट क्लास ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट की कोर्ट में केरल पुलिस ने जयमाला के खिलाफ़ चार्जशीट दाखिल की…पुलिस ने जयमाला पर जानबूझकर तीर्थस्‍थल के नियमों का उल्‍लंघन करते हुए लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का आरोप लगाया…50 साल की जयमाला इस मामले में तीसरे नंबर की आरोपी हैं…जयमाला के अलावा एक ज्‍योतिषी पी उन्‍नीकृष्‍णन और उसके सहयोगी रघुपति के भी चार्जशीट में नाम हैं…तीनों के खिलाफ़ आईपीसी की धारा 295 के तहत मुकदमा दायर किया गया है…जयमाला के खिलाफ आरोप साबित हो जाते हैं तो उन्हें तीन साल तक की कैद हो सकती है…

जयमाला  ने मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश कर भगवान अयप्पा की मूर्ति को छूने का दावा फैक्स के ज़रिए उसी वक्त किया था जब ज्योतिषी उन्नीकृष्णन जून 2006 में इस बात पर ज़ोर दे रहा था कि मंदिर में पूजा और धार्मिक अनुष्ठान विधि विधान से नहीं कराए जा रहे हैं…साथ ही पुजारियों की ओर से मंदिर की गरिमा का सही ढंग से पालन नहीं किया जा रहा है…उन्नीकृष्णन का दावा था कि उसे ‘देवप्रसन्‍नम’ (मंदिर मामलों की दैवीय शक्ति से जांच) से पता चला है कि एक युवा महिला भगवान अयप्पा की मूर्ति छू चुकी है…अंत मंदिर के व्यापक शुद्धीकरण की जरूरत है….

जयमाला के बयान पर बवाल मचने के बाद केरल सरकार ने मामले की जांच क्राइम ब्रांच से कराए जाने के आदेश दिए… जांच के दौरान पुलिस ने जयमाला से पूछताछ भी की… जांच अधिकारियों के मुताबिक जयललिता ने ज्योतिषी और उसके सहयोगी के साथ मिलकर साज़िश के तहत भगवान अयप्पा की मूर्ति को छूने का दावा किया था…इनका उद्देश्य मंदिर प्रबंधन की छवि को बिगाड़ कर उन्नीकृष्णन के ज्योतिष को चमकाना था…दरअसल 2000 में जयमाला अपने घर पर एक धार्मिक अनुष्ठान के दौरान उन्नीकृष्णन की सेवाएं ले चुकी थीं…और तभी से उसके प्रभाव में थीं…

बीते जमाने की अभिनेत्री जयमाला कन्नड़ के साथ तमिल, तेलुगु और हिंदी की कुछ फिल्मों में काम कर चुकी हैं, 2008 में कर्नाटक फिल्‍म चैम्‍बर ऑफ कॉमर्स की पहली महिला प्रेसिडेंट होने का गौरव हासिल करने वाली जयमाला भारतीय फिल्‍म इंडस्‍ट्री की एकमात्र ऐसी हीरोइन हैं जिन्‍हें किसी विषय पर थीसिस लिखने के लिए डॉक्‍टरेट की उपाधि से सम्‍मानित किया गया…जयमाला को यह उपाधि बेंगलूर यूनिवर्सिटी की ओर से तत्‍कालीन राष्‍ट्रपति डॉ. ए पी जे कलाम के हाथों मिली थी…

आपने ये पूरा मामला जान लिया…जयमाला, ज्योतिषी उन्नीकृष्णन और उनका सहयोगी रघुपति आरोप सिद्ध हो जाने पर अपने किए की सज़ा भी भुगतेंगे…लेकिन यहां मेरा प्रश्न दूसरा है…

हम इक्कीसवीं सदी मे जी रहे हैं और हमारे देश में अब भी ऐसे मंदिर हैं जहां लड़कियों और महिलाओं को सिर्फ उनकी उम्र की वजह से प्रवेश के लिए मनाही है…हिंदू मान्यताओं की ये बात मान भी ली जाए कि महीने के कुछ खास दिनों में महिलाएं मंदिर नहीं जा सकती या पूजा अर्चना नहीं कर सकती…पर हमेशा के लिए 10 से 50 साल की लड़कियों और महिलाओं के मंदिर में प्रवेश पर रोक…क्या परंपरा के नाम पर ऐसे नियम उचित है…क्या ऐसी प्रथाएं बदलने की आवश्यकता नहीं है…उम्मीद है कि इस मुद्दे पर आप सभी खुल कर अपनी राय व्यक्त करेंगे…





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Harivansh sharma
6 years ago

दक्षिण के मंदिरों में स्त्रीरूपा देवदासियाँ परंपरागत हुवा करती थी,
लेकिन उनसे मंदिर कभी अपवित्र नही हुवे ?

ASHOK BAJAJ
14 years ago

सही मुद्दे को आपने टच किया है , शंकराचार्यों को ही इस मामले में फैसला लेना चाहिए .

नीरज मुसाफ़िर

कहने को तो इक्कीसवीं सदी में मन्दिर जाना भी एक अन्धविश्वास ही है। हर मन्दिर के अपने नियम कायदे होते हैं।
हां, इसका हल ये होना चाहिये कि महिलाओं को 50% का आरक्षण दे देना चाहिये।

शरद कोकास

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है । इतिहास मे ऐसा घटित होता आया है । 1927 मे बाबासाहेब आम्बेडकर ने महाड़ में दलितों के मन्दिर प्रवेश को लेकर आन्दोलन किया था । जिसका उस समय बहुत विरोध हुआ और बाद मे कानून से उसका हल निकला । मन्दिर तो खैर अलग बात है केरल मे त्रावणकोर रियासत मे दलितों के सदक पर चलने की भी मनाही थी । और तालाब का मीठा पानी पीना भी मना था , जिसका विरोध उन्होने पानी पीकर किया । लेकिन बाद मे जब हिन्दू धर्म के तथाकथित रक्षक नही माने तो अंतत: उन्होने असमानता का यह धर्म ही त्याग दिया और ईश्वर मन्दिर सबको नकार दिया ।
स्त्री हो या दलित उनके साथ हमेशा से गैरबराबरी का व्यवहार किया जाता रहा है इसलिये इस 21 वी सदी मे हमे क्या करना है यह हमे ही सोचना है , या तो इस गुलामी से हमेशा के लिये मुक्त हो जाये या चुपचाप इस गुलामी और अपमान के स्वीकार कर लें ?

Khushdeep Sehgal
14 years ago

@नरेश सिंह राठौड़ जी,
आपके समानता पर विचारों का मैं सम्मान करता हूं…लेकिन प्रकृति ने जिस तरह पुरुष और महिला को बनाया है, उसमें कुछ काम ऐसे हो सकते हैं जो या तो सिर्फ पुरुष या सिर्फ महिलाएं ही कर सकती हैं…इसलिए वहां समानता की बात करना उचित नहीं हो सकता…

लेकिन इस पोस्ट में मैं जिस बात को हाईलाइट करना चाहता हूं वो महीने में महिला के खास दिनों से जुड़ी नहीं हैं…यहां तो मंदिर वालों ने दस से लेकर पचास साल तक की महिलाओं का प्रवेश ही वर्जित कर रखा है…यहां तो शुद्ध-अशुद्ध (जिसे मैं बेमानी मानता हूं) का सवाल ही नहीं है…इसलिए मानसिक अवस्था का तर्क भी वाजिब करार नहीं दिया जा सकता..यहां तो सीधे उम्र के चालीस साल तक मंदिर में जाने की मनाही है…

जय हिंद…

शिवम् मिश्रा

इस मामले में खुशदीप भाई मैं कुछ नहीं कह सकता क्यों कि इस विषय में मुझे कोई ज्ञान नहीं है ! और बिना कुछ जाने … कुछ कहना शायद सही नहीं होगा !

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून

रोक क्यों न हो.
जिसका मंदिर उसकी मर्जी.

anshumala
14 years ago

जब ये मामला सामने आया था तो लग रहा था की ये जान बुझ कर मंदिर को प्रसिद्धि दिलाने के लिए किया जा रहा है क्योकि इस विवाद के पहले भारत के दूसरे हिस्सों में कोई उस मंदिर को जनता भी नहीं था जबकि बालाजी की प्रसिद्धि जग जाहीर थी | पर आप ने जो बताया उससे तो मंदिर की अंदरूनी राजनीति भी दिख रही है | ऐसी बाते केवल मंदिर को खास बनाने का प्रोपेगेंडा से ज्यादा कुछ नहीं होता है चाहे पुरातन समय में या अब | दक्षिण में कई गांवो के मंदिर को भी कुछ साल पहले देखा है जहा आज भी छोटी जाती वालो को जाने की इजाजत नहीं है | देश में और कई प्रथाए है जिन्हें तुरंत बदलने की जरुरत है |

राज भाटिय़ा

मे मंदिर नही जाता, इन्ही कारणो के कारण, पता नही क्यो हम अपने भगवान को छुपाते हे कभी जात पात वालो से तो कभी नारी से…. मेरी समझ से बाहर हे जी, वेसे यह सब गलत हे, ऎसा नही होना चाहिये

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह }

शायद इस लिये मनाही हो कहीं विराजमान देवता का ईमान ना डोल जाये

रचना
14 years ago

मेरे देखने में यह भी आया की जिस काम की मनाही की जाती है उसे ही प्रतिष्ठा और बराबरी का प्रश्न बना लेते है |

ये बड़ी ही संकुचित सोच हैं क्युकी "प्रतिष्ठा और बराबरी का प्रश्न" कहीं हैं ही नहीं । संविधान मे सबको बराबर माना गया हैं . कोई किसी को बराबरी दे नहीं सकता हैं । बराबरी मिली हुई हैं बस फरक इतना हैं कि इस युग मे नारी इसके बारे मे बात कर सकती हैं और आईना दिखा सकती हैं

रचना
14 years ago

माहवारी मे महिला को अलग इस लिये रखा जाता था ताकि उसको "आराम " मिले । इस मे "स्वच्छ , अपवित्र " इत्यादि का कोई लेना देना नहीं हैं । मंदिर मे जाना या ना जाना अगर महिला पर छोड़ दे और उसको निर्धारित करने दे कि वो कब जाना चाहती हैं कब नहीं तो ये स्वतंत्रता और समानता होगी लेकिन महिला पर प्रतिबन्ध गलत है । इस विषय पर बहस करना बेकार हैं क्यूंकि हम कानून के नहीं समाज के नियम मानते हैं । जिस दिन हम सब कानून कर नियम मानेगे , संविधान को मानेगे उस दिन ये सब समस्या स्वत ही ख़तम होगी ।

सिख धर्म मे माहवारी एक आम शारीरिक क्रिया कि तरह मानी जाती हैं ।

naresh singh
14 years ago

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naresh singh
14 years ago

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naresh singh
14 years ago

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naresh singh
14 years ago

खुशदीप जी मै कभी नारी मुक्ती का विरोधी नहीं रहा हूँ | लेकिन जब बात में तथ्य कुछ अलग सा लगता है तो इस विषय में बहुत कुछ कहना चाहता हूँ | मै कोइ बड़ा विचारक नहीं हूँ और ना ही समाज सुधारक हूँ | आपने एक बहुत ही संवेदनशील मुध्दा उठाया है | जिसके बहुत से पक्ष है आप केवल सिक्के का एक ही पहलू दिखा रहे है | मंदिर में महावारी के समय औरत का प्रवेश वर्जित केवल उसकी मानसिक अवस्था की वजह से किया जाता है ना की स्वछता की वजह से |उस समय औरत अपने आप को अपवित्र मानती है इस लिए उसका मन पूजा पाठ में नहीं लगेगा इसी धारणा के चलते उन दिनों में औरतो का धार्मिक अनुष्ठानों व् मंदिरों में प्रवेश वर्जित है | हमारी धार्मिक गतिविधियों में यथा हवन वगैरा में बिना स्त्री की सहभागिता के पूर्ण नहीं माना जाता है सभी कार्यों में नारी का स्थान बराबरी का ही माना जाता है | मेरे देखने में यह भी आया की जिस काम की मनाही की जाती है उसे ही प्रतिष्ठा और बराबरी का प्रश्न बना लेते है | अगर किसी मंदिर में नारी का प्रवेश वर्जित है तो आप दूसरी तरफ ये भी देखिये की गुजरात में सावन के महीने में व्रत चलते है जिनमें लडको व् पुरुषों का सार्वजनिक उधानो में प्रवेश वर्जित रहता है |वंहा बराबरी की बात कोइ नहीं उठाता है |मेरी दूकान पर एक सफाईकर्मी जो निम्न जाती से तालुक रखता था वो रोजाना आता था और मुझसे पीने का पानी माँगता था मै उसे पानी पीला देता था वो रोजाना नजदीक के ही मंदिर में जाता था जहा उसे स्वछ और पवित्र पानी पीने को मिलता था लेकिन वो रोजाना मेरी ही दूकान पर आकार पानी मांगता और मै उसे पानी पिलाता था | उसे प्यास नहीं रहती थी वो अपने साथ आये हुए सख्स को ये जताना चाहता था की मै उच्च जाती की दूकान पर पानी पीता हूँ | जबकि मै जाती पाती को नहीं मानता हूँ | जबकि मै जानता हूँ की मेरे क्षेत्र में कोइ भी उसे अपने बर्तनों को नहीं छूने देगा| आपकी ये पोस्ट ये समाज में जागरूकता का सन्देश देगी ये मेरा मानना है | आभार

shikha varshney
14 years ago

यकीन नहीं होता ..क्या हम वाकई सभ्य कहलाने के योग्य हैं ? हम आगे बढ़ रहे हैं या वापस पाषाण युग में जा रहे हैं समझ में नहीं आता.

डॉ टी एस दराल

खुशदीप भाई , हम तो मंदिर जाते ही नहीं ।
वहां जाने का क्या फायदा जहाँ आपकी कमीज़ उतरवा दी जाये या फिर पेंट भी ।
मनुष्य की बनाई हुई पत्थर की मूर्ती को भगवान क्यों माने ।

फ़िरदौस ख़ान

ख़ुशदीप जी
बात सिर्फ़ मन्दिर की ही नहीं है… कई दूसरे मज़हबों में भी ऐसा ही है… इस मामले में सिख महिलाओं की हालत ज़्यादा सम्मानजनक है…

रेखा श्रीवास्तव

ये सिर्फ पुरातनपंथी विचारधाराएँ है कि स्त्रियाँ मंदिर में मूर्ति नहीं छू सकती. विचारों को बदलने की जरूरत है और इसके लिए सभी को इस पूर्वाग्रह से निपटना होगा. ईश्वर का सम्बन्ध आत्मा से होता है और आत्मा स्त्री या पुरुष की अलग अलग नहीं होती है.
पीछे चलें तो गार्गी और अपाला जैसे विदुषी हुई हैं वे भी ऋषियों से शास्त्रार्थ करने में सक्षम थी. बाद में स्त्रियों को शिक्षा से ही वंचित कर दिया गया. इस मामले में दक्षिण में अभी अधिक कट्टरता शेष है. वहाँ भी स्त्री पंडित के कार्य करने लगी हैं. धार्मिक कृत्य करवा रही हैं फिर ये परंपरा कब ख़त्म की जाएगी. मंदिरों पर संस्थाओं का एकाधिपत्य कब तक बना रहेगा.

Pratik Maheshwari
14 years ago

जब तक दकियानूसी ख़यालात वाले ढोंगी हमारे धर्म पर राज़ करेंगे तब तक ऐसे और वाकये सुनने-पढने को मिलते रहेंगे..
सुनकर खेद होता है पर ज्यादा कुछ किया नहीं जा सकता.. महिलाओं को खुद आवाज़ उठानी पड़ेगी.. और आशा है कि वो जल्द ही जागें और एक दूसरे को जगाएं..

रजनी चालीसा का जप करने ज़रूर पधारें ब्लॉग पर 🙂

आभार

भारतीय नागरिक - Indian Citizen

इस असमानता से भी मुक्ति मिलना ही चाहिये.

निर्मला कपिला

ाइसा ही एक प्रसंग हिमाचल प्रदेश मे हुया था जब पंजाब की स्वास्थ्यमन्त्री श्रीमति लक्षमी चावला को श्री बाबा बालक नाथ मंदिर की गुफा मे प्र्5ावेश नही करने दिया। तब उन्होंने इसके खिलाफ कई बार अखबारों मे आलेख दिये और एक मुहिम चलाने का अव्वाह्न दिया लेकिन कुछ नही हुआ मैने एक दो पत्रिकाओं मे उनके समर्थन मे आलेख लिखे मगर उन्होंने इसे विवाद्त कह कर छापने से इन्कार कर दिया। कितनी दुखद बात है कि एक माँ भी अपने बेटे जैसे सिद्ध पुरुष के दर्शन नही कर सकती निश्चित ही बेटे ने नही कहा होगा वो कैसा भगवान होगा जे एक औरत के दर्शन कर लेने से भी डरता होगा? ये सब हमारे मंदिरों के पुजारी या ऐसे ही लोगों के स्वार्थवश हुया होगा। पुरुष जाती नारी को अभी भी तुच्छी समझती है ये इन मंदिरों मे देखा जा सकता है। आशीर्वाद।

अजित गुप्ता का कोना

भाई खुशदीप जी, मुझे तो वैसे भी इस शुद्धता पर एकतरफा नजरिया ही दिखायी देता है। हम प्रतिदिन मल-मूत्र का त्‍याग करते हैं, क्‍या यह अशुद्धता नहीं है? पुरुषों मे वीर्य अशुद्ध नहीं है? बल्कि दाढी-मूंछ को भी मल ही माना गया है। केवल महिलाओं को अपनी मुठ्ठी में रखने का उपाय भर हैं ये सारे टोटके। केरल में तो मन्दिरों पर अन्‍य भी कई कड़े प्रतिबंध हैं।

दिनेशराय द्विवेदी

सारे धार्मिक नियम और व्यवहार मनुष्यों ने बनाए हैं। वे सभी हमारे समाज में इतिहास में जो कुछ हुआ है उस के अवशेष हैं। यह हमें तय करना है कि हम उन अवशेषों के साथ जिएँ या समानता पर आधारित नए समाज का निर्माण करें।
समानता पर आधारित समाज में असमानता के नियमों वाला धर्म जीवित नहीं रह सकता।

प्रवीण पाण्डेय

समानता हो हर स्तर पर।

Khushdeep Sehgal
14 years ago

@सतीश पंचम जी,

इतना बढ़िया लिंक देने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया…

जय हिंद…

सतीश पंचम

खुशदीप जी,

पूरा मामला धार्मिक और वैचारिक तौर पर एक तरह का बौड़म सत्याचार लग रहा है। बौड़म सत्याचार से मेरा तात्पर्य है कि अभिनेत्री ने जो अब जाकर सच माना कि हाँ मैने छू लिया था, ये हुआ था वो हुआ था तो उससे है। बाकी तो धार्मिक आस्था और पुरातनपंथ के नाम पर इस देश में ढेर सारी – उजबकई चलती रहती है।

मुझे याद है ठीक इसी विषय पर विभा रानी जी ने भी एक बढ़िया लेख लिखा था कि क्या देवियों को माहवारी नहीं आती ?

पेश है उसी पोस्ट का अंश…

ये सभी विधाता या नियामक देवियों की बातें करते हैं. छम्मकछल्लो की समझ में यही आता है कि देवियां तो स्त्री रूप ही हुईं. इन विधाताओं या नियामकों को भी उनको स्त्री मानने से कोई उज़्र नहीं, मगर स्त्रियों की स्त्रियोचित बातों को मानने समझने से है. छम्मकछल्लो की परेशानी बढ जाती है जब ये सभी विधाता या नियामक देवी को अलग और स्त्रियों को अलग करके देखने लगते हैं. स्त्री को देवी के रूप में देखते ही वह सर्वशक्तिमान, समर्थ, दुश्मनों का नाश करनेवाली, सभी दुखों को दूर करनेवाली हो जाती हैं और इसी देवी के स्त्री रूप में परिवर्तित होते ही वह सभी बुराइयों की जड, कमअक्ल, मूरख, वेश्या, छिनाल, वस्तु, नरक की खान और जाने क्या क्या हो जाती है.
छम्मकछल्लो को लगता है कि कभी भूलवश किसी सिरफिरे संत या विचारक ने स्त्रियों को देवी की परम्परा में डाल दिया, जिसे हमारे महान लोग अबतक आत्मसात नहीं कर पाए, इसलिए उसको कमअक्ल, मूरख, वेश्या, छिनाल, वस्तु, नरक की खान जैसे तमाम विशेषणों से अलंकृत करके छोड दिया कि “ले, बडी देवी बनकर आई थी हमारे सर चढने, अब भुगत!”
छम्मकछल्लो इस समाधान से खुश हो गई. लेकिन उसके दिमाग में फिर भी एक कीडा काटता रहा. वह यह कि स्त्री से परे देवी की परिकल्पना सुंदर, सुडौल, स्वस्थ रूप में की जाती है. सभी देवियों की मूर्तियां देख लीजिए. सुंदर, सुडौल, स्वस्थ देवी की परिकल्पना से छम्मकछल्लो के कुंद दिमाग में यह भी आने लगता है कि इस सुंदर, सुडौल, स्वस्थ देवी को स्त्री शरीर की रचना के मुताबिक माहवारी भी आती होगी? और यदि माहवारी आती है तब तो उनके लिए भी मंदिरों के पट चार दिनों के लिए बंद कर दिए जाने चाहिए? उन्हें भी अशुद्ध माना जाना चाहिए. अपनी जैवीय संरचना के कारण ऋतुचक्र में आने पर स्त्रियों को अशुद्ध माना जाता है, तो देवियों को क्यों नहीं? वे भी तो स्त्री ही हैं. एक बार कहीं पढा कि देवी के एक मंदिर की चमक अचानक कम पाई गई. एक अभिनेत्री ने अपने अपराध बोध से उबरते हुए कहा कि वह उस मंदिर में अपनी माहवारी के समय गई थी. वो हंगामा बरपा कि बस. छम्मकछल्लो पूछना चाहती थी कि मंदिर देवी का, मंदिर मे माहवारी के दौरान जानेवाली भी स्त्री, तब देवी क्या बिगडैल सास बन गई कि अपनी ही एक भक्तिन से पारम्परिक सास-बहू वाला बदला निकालने लगी और अपनी चमक कम कर बैठी. छम्मकछल्लो को तो यही समझ में आया कि ज़रूर उस समय देवी को भी माहवारी आई होगी, अधिक स्राव हुआ होगा. अधिक स्राव के कारण क्लांत हो कर मलिन मुख हो गई होंगी. विधाताओं या नियामकों ने डॉक्टरों को तो दिखाया नहीं होगा. वैसे भी छोटी छोटी बीमारियों में औरतों को डॉक्टरों के पास ले जाने का रिवाज़ कहां है अपने यहां? बस, प्रचार कर दिया कि वे अशुद्ध हो गईं

हो सके तो विभा जी के इस पोस्ट को पूरा पढ़ें…बहुत ही संतुलित ढंग से उन्होंने अपने विचार रखे हैं। कमेंट में भी और पोस्ट में भी।

यह रहा लिंक –

http://chhammakchhallokahis.blogspot.com/2010/11/blog-post_12.html

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