भारत को आखिर ठीक कौन करेगा…खुशदीप

अजित गुप्ता जी ने अपनी पोस्ट पर बड़ा ज्वलंत मुद्दा उठाया- पता नहीं हम अपने देश भारत से नफरत क्‍यों करते हैं? …बड़ी सार्थक बहस हुई…एक से बढ़ कर एक विचार कमेंट्स के ज़रिए सामने आए…अजित जी ने भारत की तुलना ऐसे राजकुमार से की जो अनेक रोगों से ग्रसित हो गया और राजकुमारी (ब्रिटेन) जितना लूट सकती थी, उसे लूट कर भाग गई…अब बड़ा सवाल ये है कि इस लुटे-पिटे राजकुमार की सेहत को फिर से कैसे दुरूस्त किया जाए…मेरा मानना है सिर्फ उपदेश की शैली में भाषण झाड़ने से बात नहीं बनेगी…

अजित जी और उनकी पोस्ट पर आए विचारों को पढ़कर मेरा ये विश्वास मज़बूत हुआ है कि हिंदी ब्लॉगिंग ने सार्थक दिशा की ओर बढ़ना शुरू कर दिया है…मेरा मानना है कि अजित जी के इस प्रयास को अंजाम तक पहुंचाने के लिए हम बाकी सब ब्लॉगर्स भी अपनी भूमिका निभाएं…मेरे विचार से एक-एक कर हम सब अपनी पोस्ट पर देश के मुंहबाए खड़े किसी मुद्दे को उठाए और विचार मंथन करे कि उसके निदान के लिए क्या-क्या किया जा सकता है…इस दिशा में आज मैं अपनी ओर से वो मुद्दा उठा रहा हूं जिसे मैं भारत की हर समस्या (गरीबी, भूख, भ्रष्टाचार, आतंकवाद) का मूल मानता हूं…ये मुद्दा है शिक्षा का….मेरी समझ से अगर इस मुद्दे पर आज ठीक से ध्यान दिया जाए तो उसका फल बीस-पच्चीस साल बाद मिलना शुरू होगा…लेकिन कभी न कभी तो पहल करनी ही होगी…

देश में शिक्षा पर सबसे ज़्यादा निवेश किया जाना चाहिए…इस निवेश का फायदा आज नहीं तो कल ज़रूर मिलेगा…देश के हर बच्चे को शिक्षा दिलाने की ज़िम्मेदारी सरकार ले…इसके लिए व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया जाए….किसी हकीम ने थोड़े ही कहा है कि हर बच्चा ग्रेजुएट बनने के बाद ही सम्मान का हकदार हो सकता है…देश में ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं अपनाई जाती जिसमें बिना जाति, मजहब, देखे छोटी उम्र में ही बच्चों की स्क्रीनिंग कर ली जाती…ये क्यों नहीं तय कर लिया जाता कि आखिर बच्चे में कितनी प्रतिभा है और वो किस फील्ड में ज़्यादा बेहतर कर सकता है…मान लीजिए ये तय हो गया कि किसी बच्चे में एथलीट बनने के लिए अच्छा पोटेंशियल है…तो फिर उसे क्यों नहीं दिन रात उसके खेल की विधा की प्रैक्टिस कराई जाती…किताबी शिक्षा उसे उतनी ही दी जाए जितने में वो अपना रोज़मर्रा का काम चला सके…उसका मुख्य ध्येय अपने खेल में ही अव्वल बनने का होना चाहिए…विदेश की तरह ही छोटे बच्चों को शिक्षा से पहले पंचर, फ्यूज़ लगाना, नल ठीक करना जैसे व्यावहारिक कार्य सिखाए जाएं…

कपिल सिब्बल देश की शिक्षा पद्धति में क्रांतिकारी सुधार लाना चाहते हैं…पूरे देश में एक सिलेबस कर देना चाहते हैं…मेडिकल, आईआईटी में दाखिले के इम्तिहानों का फॉर्मेट बदल देना चाहते हैं…लेकिन सिब्बल साहब के साथ दिक्कत ये है कि देश के बहुत बड़े वकील होने की वजह से इन्हें अभिजात्य वर्ग से माना जाता है…एक सिलेबस क्या इस देश में मौजूदा हालात में संभव है…बिहार या पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांव का बच्चा भले ही दिमाग से कितना तेज़ हो लेकिन क्या अंग्रेज़ी बोलने में दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों के पांचसितारा स्कूलों के बच्चों के सामने टिक सकता है…मेरी राय से सिब्बल साहब को देश के दूरदराज के गांवों में जाकर पहले ज़मीनी हक़ीक़त से रू-ब-रू होना चाहिए…फिर शिक्षाविदों और समाजशास्त्रियों के साथ बैठकें कर देश की शिक्षा का विज़न तैयार करना चाहिए…हड़बड़ी में कदम उठाने की जगह ठोकबजा कर आगे बढ़ना ही बुद्धिमत्ता होगी…वरना वही हाल न हो जाए चौबे जी छ्ब्बे जी बनने चले और दूबे जी रह गए….

अब मैं ब्लॉगजगत के सामने एक सवाल रखता हूं…क्या देश में हर बच्चे को ग्रेजुएट बनाना ज़रूरी है…हमारे देश के ज़्यादातर विश्वविद्यालयों से जिस तरह के ग्रेजुएट निकल कर आ रहे हैं, उससे देश का क्या भला होने जा रहा है…हमारे देश में कितनी नौकरियां हैं जो ग्रेजुएशन करते ही हमारे नौजवानों को मिल जाएं... पहले ही देश में विश्वविद्यालयों की कम भरमार थी जो अब सरकार विदेशी विश्वविद्यालयों को भी देश में पैर जमाने के लिए न्यौता देना चाहती है…

मैं आपको मेरठ का अनुभव बताता हूं…आसपास कृषि प्रधान भूमि होने की वजह से गांव-कस्बों से बच्चे बड़ी संख्या में मेरठ कालेज या दूसरे कालेजों में पढ़ने आते हैं…मुझे अच्छी तरह याद है कि कुछ लड़के उस भले वक्त में किसान पिता से कहते थे कि ब्लॉटिंग पेपर की ज़रूरत है, इसलिए पांच सौ रुपये भेज दो…अब बेचारा किसान पिता किसी तरह भी पेट काटकर बेटे को पैसे का इंतज़़ाम कर भेजता…गांव से एक बार बच्चा शहर की हवा में पढ़ने आ जाए तो फिर वो गांव लौटकर किसानी या फार्मिंग करने की नहीं सोचता…उसे ग्रेजुएट या पोस्टग्रेजुएट होने के बाद शहर में ही कोई बढ़िया नौकरी चाहिए…बेशक इम्तिहान किसी भी तरीके से पास किया गया हो…ऐसी डिग्रियों की नौकरी की रेस में कोई वैल्यू नहीं होती…देश में नौकरियां आखिर होती ही कितनी हैं, जो ढंग की नौकरियां हैं वो ढंग के विश्वविद्यालयों से ढंग की पढ़ाई करने वाले छात्र ही पाते हैं…फिर थोक के भाव से निकलने वाले निम्न स्तर के विश्वविद्यालयों से निकले छात्र कहां जाए…शहर आकर बाइक, मोबाइल, जींस और पैरों में स्पोर्ट्स शू जैसे चस्के भी लग जाते हैं…आखिर पिता भी कब तक पैसे की फरमाइश पूरी करते रहें…रोज़गार मिलने से रहा…ऐसे में एक सी सोच के कुछ बेरोज़गार लेकिन बेहद एंबिशियस दिमाग मिलते हैं तो रातों रात कामयाब बनने के लिए अपराध के रास्ते में भी कोई बुराई नज़र नहीं आने लगती…ऐसी रिपोर्ट आती रहती हैं कि पढ़े लिखे जवान ही गैंग ऑपरेट करने लगते हैं…ऐसा हो रहा है तो ये सरकार, सिस्टम के साथ हम सब की भी हार है….हम इस सिस्टम से अलग नहीं है, इस सिस्टम में खामियां हैं तो उन्हे दूर भी हमें ही करना है…कोई बाहर वाला नहीं आएगा हमें इस अंधे कुएं से निकालने के लिए…कृपया सभी सुधी ब्लॉगर जन खुलकर इस मुद्दे पर अपनी राय रखें, साथ ही अपनी-अपनी पोस्ट में बहस के लिए इसी तरह के मुद्दे उठाएं, जिससे ब्लॉगजगत का एक अलग ही चेहरा देश को देखने को मिले..

याद रखिए…

न अमीरों से बदलेगा, न वज़ीरों से,
ये ज़माना बदलेगा तो बस हम फ़कीरों से…

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Unknown
14 years ago

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