भगाणा की चार बेटियों का दर्द…खुशदीप

मूलत: प्रकाशित- जनसत्ता, 26 अप्रैल, 2014

 खबर, खबर होती है। खबर का कोई मजहब नहीं होता। न ही खबर की कोई जात या क्षेत्र होता है। खबर में शहरी-देहाती का भेद भी नहीं किया जा सकता। बीस साल पहले पत्रकारिता शुरू की थी तो वरिष्ठों से यही सीखा था। लेकिन अब देखता हूं कि खबर के मायने ही बदल गए हैं। आज बाजार पहले खबर, फिर उसके जरिए समाज को प्रभावित कर रहा है। आज सबसे पहले देखा जाता है कि ग्राहक कौन है और उसकी जेब की ताकत कितनी है। वह खबर के साथ विज्ञापनों में दिखाई जाने वाली जरूरत-बेजरूरत की चीजों को खरीदने की हैसियत रखता है या नहीं। फिर उसी के हिसाब से खबर तैयार की जाती है।
दरअसल, दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक ‘कैंडल मार्च’ में हिस्सा लेने के बाद मैं यह लिखने को प्रेरित हुआ हूं। इसकी रिपोर्ट आपको खबरिया चैनलों पर नहीं दिखी होगी। कुछ अखबारों ने जरूर इसे छापने की हिम्मत दिखाई होगी। वह भी ऐसे अखबार, जो अब भी सरोकार की अहमियत समझते हैं। मेरा एक सवाल है! दिल्ली या मुंबई में एक सामूहिक बलात्कार और देश के दूरदराज के एक गांव में इसी तरह की घटना। क्या अपराध में कोई फर्क है? अगर ऐसा नहीं है तो ऐसी घटनाओं की कवरेज में फर्क क्यों?
हरियाणा के हिसार जिले के भगाणा गांव में सामूहिक बलात्कार की शिकार हुई चार नाबालिग लड़कियां सोलह अप्रैल से दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरने पर बैठी हुई हैं। इंसाफ  के लिए इनकी जंग में परिजनों के अलावा कुछ ऐसे लोग भी साथ दे रहे हैं, जिनका अब से पहले इनसे परिचय तक नहीं था। लड़कियों का संबंध दलित परिवारों से है। जाति या समूह का जिक्र करने से अपराध की भयावहता घट या बढ़ नहीं जाती। देश की चार बेटियों के साथ दरिंदगी हुई है, हम सबके लिए अपराध को देखने का बस यही नजरिया जरूरी है। हमारा खून तब तक खौलता रहना चाहिए, जब तक इन बेटियों के गुनहगारों को कानून उनके अंजाम तक पहुंचा नहीं देता।
जंतर मंतर पर बेटियों के लिए इंसाफ  की मुहिम की कमान सर्व समाज संघर्ष समिति ने संभाल रखी है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र भी कंधे से कंधा मिला कर साथ खड़े हैं। सर्व समाज संघर्ष समिति के अध्यक्ष वेदपाल सिंह तंवर के मुताबिक पीड़ित चारों लड़कियां आठवीं और नौवीं कक्षा में पढ़ती हैं। इनका संबंध उन परिवारों से हैं जिन्होंने जाटों की ओर से किए गए सामाजिक बहिष्कार के बावजूद भगाणा गांव छोड़ने से इनकार कर दिया था। आरोप है कि बीती तेईस मार्च की रात दस से ज्यादा लोगों ने इन लड़कियों को उनके घरों से उठा लिया और दो दिन तक उनसे सामूहिक बलात्कार करते रहे। बड़ी मशक्कत और विरोध के बाद पुलिस ने एफआइआर दर्ज की और पांच लोगों को गिरफ्तार किया। लेकिन ऊंची राजनीतिक पहुंच की वजह से बाकी आरोपी अभी तक पकड़ से बाहर हैं। भगाणा गांव में जाट बिरादरी ने खाप पंचायत के संरक्षण में पिछले दो वर्षों से दलित-पिछड़ी जातियों का बहिष्कार कर रखा है। न्यायपालिका, मानवाधिकार आयोग और अनूसूचित जाति आयोग के निर्देश भी बेअसर हैं। हरियाणा में दलित-पिछड़ी जाति की महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार और उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। भगाणा गांव की चारों पीड़ित लड़कियां और उनके परिवार इतने आतंकित हैं कि अब वे गांव में अपने घरों में लौटना नहीं चाहते।
हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा सरकार से इंसाफ की सभी गुहार अनसुनी रहने के बाद ही भगाणा के करीब सौ दलित गरीब परिवारों ने सामूहिक बलात्कार की शिकार चारों लड़कियों के साथ दिल्ली के जंतर मंतर पर धरने का फैसला किया। इस उम्मीद के साथ कि जिस तरह निर्भया को इंसाफ दिलाने के लिए दिल्ली में लोग सड़कों पर उमड़ आए थे, वैसे ही उन्हें भी समर्थन मिलेगा। मीडिया से भी इन्हें बड़ी आस थी कि वह धरने की खबर देने के लिए आगे आएगा। लेकिन सोलह अप्रैल को धरना शुरू करने के बाद तीन दिन तक उनके पास कोई नहीं आया। तब जाकर उन्होंने जेएनयू के विद्यार्थियों से संपर्क किया। चौबीस अप्रैल की शाम को पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए कैंडल मार्च निकला और उसी दिन सुबह वाराणसी में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने पर्चा भरा। खबरिया चैनलों ने सारे तामझाम के साथ मोदी के जुलूस से लेकर पर्चा भरने तक के एक-एक लम्हे को दर्शकों तक पहुंचाया।
इधर सामूहिक बलात्कार की शिकार इन लड़कियों के साथ उनके परिवार बाट जोह रहे हैं कि कब पूरी दिल्ली उनके साथ आ खड़ी होगी, जैसे निर्भया के साथ हुई थी! कब उसी तरह मीडिया अपना धर्म निभाएगा! चुनाव लोकतंत्र का सबसे बड़ा उत्सव है। लेकिन देश की चार बेटियों की अस्मिता का सवाल भी कम छोटा नहीं है। अब देखना है कि चुनाव के बाजार में उलझा मीडिया सरोकार की सुध लेने के लिए कब जागता है?


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