ब्लॉगिंग की ‘काला पत्थर’…खुशदीप

जब दो बड़े बात करते हैं तो छोटों को चुप रहना चाहिए…संस्कार ने हमें यही सिखाया है…यकीन मानिए यही मेरी दुविधा है…और शायद आज की पोस्ट लिखनी जितनी मेरे लिए मुश्किल है, उतनी जटिल स्थिति में अपने को लिखते हुए कभी नहीं पाया…फिर भी कोशिश कर रहा हूं…अपनी तरफ से पूरा प्रयास है कि शब्दों का चयन सम्मान के तराजू में पूरी तरह तौल कर करूं…फिर भी कहीं कोई गुस्ताखी हो जाए तो नादान समझ कर माफ कर दीजिएगा…आखिर मुझे ये लिखने की ज़रूरत क्यों पड़ी, इसके लिए जिन ब्लॉगर भाई-बहनों ने कल की मेरी पोस्ट नहीं पढ़ी, उसका लिंक यहां दे रहा हूं…

आज मैं चुप रहूंगा…खुशदीप
http://deshnama.blogspot.com/2009/11/blog-post_14.html

अब आता हूं उस पर जो मन में उमड़-घुमड़ रहा है…बस उसी को पूरी ईमानदारी के साथ आप तक पहुंचा रहा हूं…मैंने इस साल 16 अगस्त से ब्लॉग पर लिखना शुरू किया ..कुछ ही दिन बाद ये पोस्ट लिखी …

हिंदी ब्लॉगिंग के टॉप टेन आइकन
http://deshnama.blogspot.com/2009/09/blog-post_11.html

हां, वो मेरे आइकन हैं…
http://deshnama.blogspot.com/2009/09/blog-post_14.html

मेरी उस फेहरिस्त में अनूप शुक्ल जी भी हैं और गुरुदेव समीर लाल जी समीर भी…ये मेरी अपनी पसंद है…ये मेरे अपने आइकन है….मैंने एक प्रण लिया…जिस तरह का स्तरीय और लोकाचारी लेखन मेरे आइकन करते हैं…उसी रास्ते पर खुद को चलाने की कोशिश करूंगा…अगर एक फीसदी भी पकड़ पाया तो अपने को धन्य समझूंगा…धीरे-धीरे ब्लॉगिंग करते-करते मुझे तीन महीने हो गए…इस दौरान दूसरी पोस्ट और टिप्पणियों को भी मुझे पढ़ने का काफी मौका मिला…जितना पढ़ा अनूप शुक्ल जी और गुरुदेव समीर के लिए मन में सम्मान और बढ़ता गया…लेकिन एक बात खटकती रही कि दोनों में आपस में तनाव क्यों झलकता है…या वो सिर्फ मौज के लिए इसे झलकते दिखाना चाहते हैं….क्या ये तनाव ठीक वैसा ही है जैसा कि चुंबक के दो सजातीय ध्रुवों के पास आने पर होता है…जितना इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश की, मेरे लिए उतनी ही ये रूबिक के पज्जल की तरह विकट होती गई…जैसा पता चलता है कि समीर जी भी शुरुआत में चिट्ठा चर्चा मंडल के साथ जुड़े रहे….किसी वक्त इतनी नजदीकी फिर दूरी में क्यो बदलती गई…

बीच में बबली जी की पोस्ट को लेकर एक विवाद भी हुआ…पता नहीं ये नियति थी या क्या, उस प्रकरण में बबली जी की पोस्ट पर टिप्पणियां देने वालों में मुझे भी कटघरे में खड़ा होना पड़ा…उसी प्रकरण में मैंने अपनी पोस्ट पर गुरुदेव समीर जी को अपनी टिप्पणी में पहली बार खुलकर दिल की बात कहते देखा…

हां, मैं हूं बबली जी का वकील…
http://deshnama.blogspot.com/2009/09/blog-post_18.html

ये प्रकृति का नियम है कि दो पत्थर भी टकराते हैं तो चिंगारी निकलती है…फिर जब दो पहाड़ टकराए तो ज़लज़ला आने से कैसे रोका जा सकता है….हो सकता है ये तनाव की बात मेरा भ्रम हो…जैसा कि कल कि मेरी पोस्ट पर सागर, अनिल पुसदकर जी और सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी ने मुझे आगाह भी किया कि ये दोनों दिग्गज लंबे अरसे से मौज के लिए एक दूसरे की टांग खींचते रहे हैं लेकिन आपस में दोनों एक दूसरे के लिए अपार स्नेह रखते हैं…अगर ये बात सही है तो ऐसा कहने वालों के मुंह में घी-शक्कर…भगवान करे मेरा भ्रम पूरी तरह गलत निकले…

दीपक मशाल भाई ने मुझे अपनी टिप्पणी में लिखा कि मैं तो ऐसा न था…मैं मुद्दे उठाने की जगह ये विवाद को तूल कैसे देने लगा…मैं जानता हूं दीपक मुझे दिल से अपने करीब मानता है…मैं गलतफहमी में ऐसा कुछ न लिख दूं…जिससे मुझे नुकसान उठाना पड़े…बस इसी से रोकने के लिए उसने मुझे ऐसा लिखा…समीर जी और अनूप जी की टिप्पणियां सिर्फ निर्मल हास्य के चलते थी…इसके लिए दीपक ने समीर जी की इस टिप्पणी का हवाला भी दिया…

अरे अरे, भई उ त मजाक किये थे…काहे एतन गंभीर हो गये!!

मैं जानता हूं समीर जी ने बड़े सहज और निश्चल भाव से मेरे लिए अपनी पोस्ट में ये टिप्पणी की थी…बहुत सही पकड़ा खुशदीप…यही तो वजह है कि तुम… 🙂

ये भाव ठीक वैसा ही था जैसा कि गुरु और शिष्य के बीच होता है….समीर जी की इसी टिप्पणी पर अनूप शुक्ल जी ने उसी पोस्ट पर टिप्पणी की और फिर अपनी पोस्ट…

मन पछितैहै अवसर बीते
http://chitthacharcha.blogspot.com/2009/11/blog-post_12.html में लिखा-

समीरलाल आजकल घणे आध्यात्मिक होते जा रहे हैं। उनके लेखन का स्तर ऊंचा हो गया है और वे अब इशारों में बात करने लगे हैं। आज देखिये उन्होंने क्या पता-कल हो न हो!!-एक लघु कथा के माध्यम से सीख दी कि -जब मिले, जैसे मिले, खुशियाँ मनाओ! क्या पता-कल हो न हो!!


इस समीर संदेश को पकड़ा खुशदीप सहगल ने और कहा


कल क्या होगा, किसको पता


अभी ज़िंदगी का ले ले मज़ा…


गुरुदेव, बड़ा गूढ़ दर्शन दे दिया….क्या ये पेड़ उन मां-बाप के बिम्ब नहीं है जिनके बच्चे दूर कहीं बसेरा बना लेते हैं….साल-दो साल में एक बार घर लौटते हैं तो मां-बाप उन पलों को भरपूर जी लेना चाहते हैं,,,,


समीरलालजी ने खुशदीप की बात को सही करार दिया और कहा- बहुत सही पकड़ा खुशदीप…यही तो वजह है कि तुम… 🙂 अब इस पकड़म-पकड़ाई में हम यह समझ नहीं पा रहे हैं कि तुम और इस्माइली के बीच क्या है? इसे कौन पकड़ेगा? क्या यह अबूझा ही रह जायेगा?

अनूप जी की इस पोस्ट पर समीर जी की टिप्पणी थी-

हा हा!! बहुत सही टिप्पणी पकड़ लाये यही तो वजह है कि आप…:)


बेहतरीन चर्चा

ये समीर जी की वही शैली थी, जैसी कि उन्होंने मुझे त्वरित टिप्पणी में दिखाई थी…

लेकिन मेरे लिए सबसे अहम और ज़रूरी था, अनूप शुक्ल जी मेरी आज की पोस्ट में क्या कहते हैं…और मैं उनके बड़प्पन की जितनी तारीफ करूं, उतनी कम हैं….उन्होंने ये टिप्पणी भेजी…

खुशदीप जी, यह टिप्पणी मैंने समीरलालजी की टिप्पणी पर की थी। कारण कुछ-कुछ इस चर्चा और इस चर्चा में दिया है! मुझे न इस बारे में कोई शंका है न कोई सवाल। हां आपकी पोस्ट का इंतजार है।

अब अनूप जी ने खुद कहा है कि उन्हें मेरी पोस्ट का इंतज़ार है…ठीक वैसे ही जैसे और ब्लॉगर भाई-बहनों को भी इंतज़ार है….पहली बात तो ये मेरा कल और आज ये पोस्ट लिखने का मकसद कोई हंगामा खड़ा करना नहीं है…मैं सिर्फ ये कहना चाहता हूं कि अनूप जी और समीर जी हिंदी ब्लॉगिंग के दो शिखर हैं…इन्हें आपस में टकराने की जगह अपने बीच से हिंदी ब्लॉगिंग की बहती धारा को विशाल सागर का रूप देना है…ऐसे मकाम पर ले जाना है कि फिर कोई अंग्रेजी वाला हिंदी ब्लॉगर्स को कमतर आंकने की जुर्रत न कर सके…ये जैसा रास्ता दिखाएंगे, हम नौसीखिए वैसा ही अनुसरण करेंगे...चिट्ठा चर्चाओं के ज़रिए उछाड़-पछाड़ के खेल से हिंदी ब्लॉगिंग में राजनीति के बीजों को पनपने ही क्यों दिया जाए…राजनीति किस तरह बर्बाद करती है ये तो हम पिछले 62 साल से देश के नेताओं को करते देखते ही आ रहे हैं..

और हां दीपक मशाल भाई, क्या हिंदी ब्लॉगिंग की स्वस्थ दिशा और दशा पर सोचना क्या कोई मुद्दा नहीं है…जब अपना घर दुरूस्त होगा तभी तो हम बाहर के मुद्दों पर बात करने की कोई नैतिक हैसियत रखेंगे…ये सब कुछ मैंने इसलिए लिखा क्योंकि टिप्पणी में मेरा नाम आया था…वरना मैं भी शायद चुप ही रहता…

अरे हां याद आया कि मैंने इस पोस्ट का शीर्षक हिंदी ब्लॉगिंग की काला पत्थर क्यों रखा है…दरअसल फिल्मों के जरिए बात कहने में मुझे थोड़ी आसानी हो जाती है…सत्तर के दशक के आखिर में यश चोपड़ा ने एक फिल्म बनाई थी….काला पत्थर…उसमें अमिताभ बच्चन नेवी से बर्खास्त अधिकारी बने थे जो कोयला खदान में आकर काम करने लगते हैं…उसी फिल्म में शत्रुघ्न सिन्हा भी थे जो कोयला खदान के मज़दूर के रूप में खांटी वर्ग की नुमाइंदगी करते थे…अमिताभ और शत्रु दोनों ही जबरदस्त अभिनेता…पूरी फिल्म में दर्शक यही इंतजार करते रहे कि कब अमिताभ और शत्रु आपस में टकराएंगे….मुझे उस सीन पर गूंजने वाली तालियां आज तक याद है जब एक ट्रक पर शत्रु पहले से चढ़े होते हैं…अमिताभ अनजाने में ही उस ट्रक पर चढ़ जाते हैं…शत्रु को पहले से ही पता था कि अमिताभ ट्रक पर चढने वाले हैं और फिर शुरू होती है वही फाइट जिसका दर्शक दम रोक कर इंतज़ार कर रहे थे…ये तो खैर फिल्मी बात थी…लेकिन मुझे अमिताभ बच्चन और शत्रुघ्न सिन्हा दोनों पसंद हैं….मैं यही चाहता हूं कि फिर किसी फिल्म में दोनों साथ-साथ दिखें…मैं यहां ये क्यों कह रहा हूं….क्या ये बताने की ज़रूरत है….

चलो भाई बड़ा अंट-शंट कह दिया…माहौल कुछ सीरियस हो गया है…इसे हल्का करने की भी तो मेरी ज़िम्मेदारी है…तो भईया अपना स्लॉग ओवर किस दिन काम आएगा…

स्लॉग ओवर
एक पति-पत्नी हमेशा आपस में लड़ते झगड़ते रहते थे….इसलिए मैं उनके घर जाने से भी बचा करता था…लेकिन एक दिन बहुत ज़रूरी काम के चलते उनके घर जाना पड़ गया…मैंने देखा वहां शीतयुद्ध के बाद की शांति जैसा माहौल था…मैं चकराया…ये दुनिया का आठवां आश्चर्य कैसे हो गया….मुझसे रहा नहीं गया और मैंने पति महोदय से पूछ ही लिया…आखिर ये क्या जादू हुआ है….पति बोला…जादू वादू कुछ नहीं, हमने सुखी जीवन का फॉर्मूला ढूंढ लिया है…अब हम दोनों हफ्ते में दो बार जोड़े के तौर पर आउटिंग पर जाते हैं….किसी अच्छे रेस्तरां में धीमे-धीमे संगीत और कैंडल-लाइट में डिनर करते हैं…मैं भी खुश और पत्नी भी खुश…मैं मंगलवार को जाता हूं और वो शनिवार को…

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