टिंडे ले लो, टिंडे…खुशदीप

आपको एक पोस्ट में बंदर और अपने बालसखा आलोक का किस्सा सुनाया था…आज एक और बालसखा की बारी है…उस दोस्त का असली नाम तो नहीं बता रहा, लेकिन वो नाम बता देता हूं, जिस नाम से उसे हम सब बुलाते थे…वो नाम था टिंडा…उसका नाम टिंडा कैसे पड़ा, उसकी भी बड़ी मज़ेदार कहानी है…

हम सब एक पार्क में क्रिकेट खेला करते थे…एक बार हम ऐसे ही क्रिकेट का सारा टाम-टमीरा लेकर सुबह प्रैक्टिस के लिए जा रहे थे…रास्ते में एक ठेले पर सब्ज़ी वाला सब्ज़ी बेच रहा था…और उस ठेले पर कॉलोनी की एक सुंदर सी बाला अपनी माताजी (सॉरी मम्मा) के साथ सब्जी खरीद रही थी…अब चलते-चलते हमारे उस दोस्त (जिसका मैं इस पोस्ट में ज़िक्र कर रहा हूं) को न जाने क्या सूझा, ज़ोर से बोल पड़ा…टिंडे ले लो, टिंडे….इसे कहते आ बैल, मुझे मार (पाबला जी की शैली में बैठे बिठाए पंगा लेना)…उसके आगे जो हुआ वो बयां करना मुश्किल है…सुंदर सी बाला की मम्मा ने दोस्त महाराज की वो गत बनाई, वो गत बनाई कि पूछो मत…आ खिलाऊं तुझे टिंडे…अपनी मां से कह टिंडे बनाएगी टिंडे…बस हमें यही सुनाई दे रहा था…हम तो खैर फौरन ही वहां से फूट लिए…लेकिन वो दोस्त बड़ी देर बाद उस पानीपत के मैदान से निकल कर आ पाया…आते ही बोला…मरवा दिया यार आज तो टिंडों ने…बस उसी दिन से उसका नाम टिंडा पड़ गया…

इन्हीं टिंडे जी की एक और गाथा आपको सुनाता हूं…पच्चीस-तीस साल गुज़र जाने के बाद आज भी याद करता हूं तो लोटपोट होने लगता हूं…दरअसल हमारे स्कूल में लड़कों के लिए एनसीसी ज़रूरी थी…एक दो बार तो हमारी चांडाल चौकड़ी परेड में गई…दियासिलाई जैसी हमारी टांगों के ऊपर वो तंबू जैसी एनसीसी की नेकरें…आप खुद ही सोच सकते हैं कि हम कितने स्मार्ट लगते होंगे…खैर हम थे जुगाड़ू…एनसीसी के उस्ताद जी को दो-तीन मुलाकात में ही चाय-समोसे से सेट कर लिया…लो जी हमारी चंडाल चौकड़ी को परेड में जाने से छुट्टी मिल गई…पूरी क्लास धूप में पसीना बहा रही होती…और हम या तो कैंटीन में गपें लड़ा रहे होते या दूसरे मैदान में कपिल देव, गावस्कर बनने की प्रैक्टिस कर रहे होते…एनसीसी की तरफ से कुछ मेहनताना भी मिला करता था…अब सेशन के आखिर में वो पैसे मिलते तो हमारी चांडाल चौकड़ी के नाम सबसे ज़्यादा पैसे दर्ज होते…दरअसल उस्ताद जी हमसे इतने खुश थे कि हमारी बिना नागा रजिस्टर में अटैंडेंस लगा देते थे…वो तो बाद में राज़ खुला कि ऐसा करने से उस्ताद जी का अपना भी आर्थिक रूप से कुछ फायदा होता था…

एक दिन एनसीसी का कैंप हस्तिनापुर के पास नदी किनारे लगा…अब वैसे हमारी चांडाल चौकड़ी एनसीसी से कोसों दूर भागती हो लेकिन इस कैंप में हमें मौज-मस्ती का पूरा मौका नज़र आ रहा था…तो जनाब हम सबने भी कैंप के लिए अपने नाम दर्ज करा दिए…टिंडे महाराज भी पूरी मुस्तैदी के साथ इस कैंप के लिए नमूदार हुए…सुबह कैंप में नाश्ते में पराठे, ब्रेड के साथ बर्फ़ की कड़क जमी हुई मक्खन की टिक्कियां हमारे लिए पेश की गईं…एक टेबल पर इतना सारा मक्खन मैंने ज़िंदगी में पहले कभी नहीं देखा था…खैर हम सबने जमकर नाश्ता किया…टिंडे महाराज हम सबसे स्मार्ट निकले…जितनी मक्खन की टिक्कियां नाश्ते में उड़ाई जा सकती थीं, उड़ाईं…साथ ही टिंडे जी ने आठ दस मक्खन की टिक्कियां अपनी तंबूनुमा नेकर की दोनों ज़ेबों के हवाले भी कर लीं…

अब नाश्ते के बाद परेड का नंबर आया…उस्ताद जी ने सबको मैदान में बुला लिया…जैसे जैसे सूरज सिर पर चढ़ने लगा वैसे वैसे ही हमारी परेड में भी जोश आने लगा…उस्ताद जी की कड़कदार आवाज़ गूंज रही थी…एक-दो, एक…एक-दो एक…तभी उस्ताद जी को ब्रेक लगा और अचानक उन्होंने पूछा…ये क्या है बे…

अब सामने जो नज़ारा था वो ऐतिहासिक था…लाइन में सबसे आगे टिंडे जी परेड कर रहे थे…और कड़ी धूप की वजह से उनकी नेकर की दोनों जेबों से मक्खन गंगा-जमुना की तरह पिघलता हुआ टांगों पर बह रहा था…उस्ताद जी की आवाज सुनकर टिंडा मैं, मैं…वो..वो…मी…मी… करता ही रह गया…और हमारा जो हंस हंस कर बुरा हाल हुआ, उसे क्या मुझे यहां बयां करने की ज़रूरत है…आप खुद ही समझ लीजिए…

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