घर घर की कहानी…रूई का बोझ…दूसरी किस्त…खुशदीप

रूई का बोझ…कल तक बताई कहानी से आगे…दो बड़े बेटों के राजी न होने पर बूढ़े पिता को छोटे बेटे-बहू के साथ रहना पड़ता है…थोड़े दिन तो सब ठीक रहता है…लेकिन फिर…

सबसे छोटी बहू भी पिता के साथ रहने को लेकर कुढ़ने लगती है…दो टाइम रुखी-सूखी रोटी देकर ही अपनी ज़िम्मेदारी की इतिश्री समझ लेती…इसके अलावा पिता की किसी बात पर कान नहीं धरती…पति के कान भी भरने लगी कि बाबूजी दिन भर खाली बैठे रहते हैं, आप दिन भर खटते रहते हो, इन्हें भी कोई काम वगैरहा करना चाहिए…छोटी बहू की ये खीझ धीरे धीरे अपमान का रूप लेने लगी…पिता का पुराना दोस्त कभी-कभार मिलने आता तो पिता बहू से चाय के लिए कहते…जवाब मिलता, घर में दूध खत्म है, चाय नहीं बन सकती…पिता बेचारे मन मसोस कर ही रह जाते…लेकिन दोस्त सब समझता था…वो समझाने की कोशिश करता कि दिल पर मत लगाया करो…वही दोस्त ढाढस बंधाने के लिए कहता है…


बूढ़ा पिता रूई के बंडल की तरह होता है,
शुरू में उसका बोझ महसूस नहीं होता,
लेकिन जैसे जैसे उम्र बढ़ती जाती है, ये भारी होता जाता है,
बूढ़ा पिता फिर रूई के गीले बंडल की तरह हो जाता है,
भारी, भारी और भारी,
फिर हर बेटा इस बोझ से पीछा छुड़ाना चाहता है…


एक दिन ऐसा भी आता है कि पिता हर चीज़ के लिए बेटे पर निर्भर हो जाता है…उसके पास अपना कोई पैसा भी नहीं बचता…सब कुछ तो वो बेटों को दे चुका होता है…


इसी दौरान सबसे बड़े बेटे की बड़ी बेटी की शादी तय हो जाती है…बड़ा बेटा सोचता है कि पिता छोटे भाई के साथ रह रहे हैं, इसलिए शादी पर पिता के लिए नया जोड़ा वही बनवाएगा…पिता के साथ रहने वाला बेटा सोचता है कि शादी बड़े भाई के घर में है, इसलिए पिता को जोड़ा भी वही खरीद कर देगा…पिता अपनी पोटली में से पुराना सिल्क का कुर्ता निकालता है…बरसों पहले किसी बेटे की शादी के दौरान ही सिलवाया था…लेकिन अब उसमें जगह जगह छेद हो गए थे…पिता बेटे को कुर्ता दिखा कर कहता है कि मेहमानों के सामने इसे पहनने से परिवार की इज्जत खराब होगी…लेकिन बेटा पिता की बात एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देता है…बहू एक कदम और आगे निकल कर जान कर इतनी ऊंची आवाज़ में टोंट मारती है कि पिता सुन ले…पैर कब्र में हैं और अब भी इन्हें स्टाइल मारना है…


पिता दिल पर पत्थर रखकर बेटा-बहू को तो कुछ नहीं कहते…लेकिन अकेले कमरे में गुस्सा निकालते हुए खुद ही बड़बड़ाते हैं- मैं बूढ़ा हूं, इसलिए सही खा-पी नहीं सकता, सही कपड़े नहीं पहन सकता…क्या इस दुनिया में मैं अकेला हूं जो बूढ़ा हुआ…क्या तुम सब कभी बूढ़े नहीं होगे…बूढ़े व्यक्ति के लिए सबसे मुश्किल घड़ी तब आती है जब उससे सब बात करने से भी कतराने लगते हैं…खाली बैठे एक-एक लम्हा बिताना मुश्किल हो जाता है…उनमें ये हताशा घर करने लगती है कि उनकी किसी को अब ज़रूरत नहीं, वो बस धरती पर बोझ बन कर रह गए हैं…


एक दिन पोता अलग अलग मौसमों के महत्व के बारे में ज़ोर-ज़ोर से पढ़ रहा होता है…बूढ़े पिता से ये सुनकर रहा नहीं जाता और उनकी भड़ास बाहर आ जाती है…बूढ़ों के लिए कोई मौसम अच्छा नहीं होता…सारे मौसम बूढ़ों के दुश्मन होते हैं…इस तरह के माहौल में रहते-रहते पिता चिड़चिड़े होने के साथ कभी-कभी बच्चों की तरह जिद भी करने लगते हैं…एक दिन वो मक्के की रोटी खाने के लिए अड़ जाते हैं…लेकिन छोटी बहू मना कर देती है…तर्क देती है कि मक्के की रोटी पचेगी नहीं और वो बीमार पड़ गए तो सब उसे ही दोष देंगे कि उसने ख्याल नहीं रखा…छोटी बहू दूसरा खाना पिता के कमरे में रखने के साथ कहती है जब भूख सताएगी तो खा लेना…लेकिन पिता पर भी जैसे सनक सवार हो गई थी…कसम खा ली कि खाऊंगा तो मक्के की रोटी ही खाऊंगा नहीं तो कुछ नहीं खाऊंगा…लेकिन उस रात पिता सो नहीं पाते…यही डर सताता रहता है कि कहीं कोई कुत्ता या बिल्ली खाना खा गया तो बहू यही समझेगी कि रात को उसने ही खाना खा लिया….


जब घर के सदस्यों में ठीक से संवाद होना बंद हो जाता है तो इस तरह की तनातनी बढ़ती ही जाती है…फिल्म में भी पिता और छोटे बेटे के बीच मतभेद बढ़ते जाते हैं…हद तब हो जाती है जब छोटी बहू पति पर ज़ोर देकर कहती है कि पिता को सामने के कमरे से निकाल कर पीछे कोठरीनुमा कमरा रहने के लिए दे दिया जाए…बेटा पिता से पीछे कमरे में जाने के लिए कहता है…पिता मना करते हैं तो दोनों में ज़ुबानी जंग के बाद धक्का-मुक्की शुरू हो जाती है…बेटे का धक्का लगने से पिता ज़मीन पर गिर जाते हैं…


गांव वाले भी ये नज़ारा देख रहे होते हैं…पिता ये देखकर समझते हैं कि उनके परिवार की इज्जत मिट्टी में मिल गई…इस घटना के बाद पिता को हर रिश्ता बेमानी नज़र आने लगता है…वो अपने एक जानने वाले से कहते हैं कि अब उन्हें इस घर में एक मिनट भी नहीं रहना है, इसलिए वो उन्हें किसी आश्रम में छोड़ आए...पिता का ये रूप देखकर छोटे बेटे और बहू को भी डर लगता है कि अगर ये इस तरह चले गए तो पूरे गांव बिरादरी में उनकी थू-थू हो जाएगी…वो बेटे (पोते) को पिता को मनाने के लिए भेजते हैं…लेकिन पोते की बात से भी पिता का दिल नहीं पसीजता…

लेकिन हमेशा गृहस्थी में रहते आए व्यक्ति के लिए एक झटके में सारे नाते तोड़ लेना आसान भी नहीं होता…जब भी घर में झगड़ा-क्लेश होता है वो सोचता यही है कि कहीं अलग जाकर रहना शुरू कर दे लेकिन कुछ ऐसा उसके अंदर चलता रहता है जो उसे ये कदम उठाने से रोकता रहता है…


जैसे ही पिता गांव से बाहर आते हैं वो जानने वाले से पूछते हैं कि आश्रम कितना दूर है…फिर कहते हैं कि थोड़े दिन आश्रम में रह कर घर लौट आएंगे सिर्फ पोते की खातिरक्योंकि वो बार-बार कह रहा था कि बाबा जल्दी ही आप लौट आना...अब घरवालों से अलग रहने का विचार पिता को परेशान करना शुरू कर देता है…फिर कहते हैं कि वो आश्रम के मंदिर में माथा टेक कर शाम को ही घर लौट आएंगे…थोड़ी देर बात पिता कहते हैं…आश्रम जाने की भी क्या ज़रूरत है वो प्रार्थना तो घर पर भी कर सकते हैं…वो जानने वाले पर ज़ोर देकर बैलगाड़ी को वापस घर के लिए मुड़वा लेते है…


यहीं फिल्म का अंत हो जाता है…ये तो थी कहानी…लेकिन इससे निष्कर्ष क्या निकला…

हम जिस माहौल में आज रह रहे हैं, आने वाला कल इससे भी मुश्किल होगा…ऐसे में जीवन के सांध्यकाल को संवारने के लिए आज हम क्या-क्या कर सकते हैं, इस पर मैं भी एक दिन सोचता हूं…आप भी सोचिए…फिर एक दूसरे से अपने विचार बांटते हैं…

(जारी है, कल पढ़िएगा निष्कर्ष)

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