कोई दोस्त है न रक़ीब है…खुशदीप


कोई दोस्त है न रक़ीब है,
तेरा शहर कितना अजीब है
[ रक़ीब = दुश्मन ]
वो जो इश्क़ था वो जुनून था,
ये जो हिज्र है ये नसीब है
[ हिज्र = विरह ]
यहाँ किसका चेहरा पढ़ा करूं,
यहाँ कौन इतना करीब है
मै किस से कहूं मेरे साथ चल,
यहाँ सब के सर पे सलीब है

​क्या ये बात ब्लागिंग के शहर पर भी सटीक बैठती है…
राणा सहरी​ 

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Rakesh Kumar
12 years ago

डॉक्टर साहिब ने बहुत सही फरमाया है.
हारिये न हिम्मत,बिसारिये न हरि नाम.

ईद की बधाई और शुभकामनाएँ,खुशदीप भाई.

indianrj
12 years ago

वो जो इश्क़ था वो जुनून था,
ये जो हिज्र है ये नसीब है
सच में इश्क जूनून जैसा ही होना चाहिए, और हिज्र? उसकी परवाह क्यों

बेनामी
बेनामी
12 years ago

बेहतर संकलन और प्रस्तुति !!

Asha Joglekar
12 years ago

वो जो इश्क़ था वो जुनून था,
ये जो हिज्र है ये नसीब है ।

हाल अपना भी यही है आजकल,
वो जो मिलते थे तबीयत से, नज़र चुराते हैं ।

ताऊ रामपुरिया

अंतत: मनुष्य को परम सत्य का दर्शन हो ही जाता है, देर सबेर ही सही, पर जीवन इतना भी निराशाजनक नहीं की उससे उबर ही ना सके.

रामराम.

प्रवीण पाण्डेय

एक एक वाक्य सटीक बैठता है..

वाणी गीत
12 years ago

रियल लाईफ के लोंग ही यहाँ ब्लॉगिंग करते हैं , समाज का वही चेहरा तो यहाँ भी नजर आता है , कुछ अपने , कुछ बेगाने ….इसमें उदासी कैसी !

VICHAAR SHOONYA
12 years ago

टिप्पणियों की डोज तो डाक्टर साहब ने पूरी कर दी. चलिए अब प्रसन्न चित्त हो जाइये और खुश(दीप) टाइप पोस्ट लगाइए .

डॉ टी एस दराल

बीमारी के बाद अक्सर मूड थोडा लो रहता है . ऐसे में मूड लाईट करना चाहिए .
ग़ज़ल बहुत अच्छी है , एकदम सटीक .
एक आध टिप्पणी शायद स्पैम में चली गई है .

डॉ टी एस दराल

आज इतना बस इसलिए लिख दिया — क्योंकि यह विषय अक्सर हमें सोचने पर मजबूर करता रहता है . सोचता हूँ — जब ब्लॉगिंग नहीं करते थे तब भी तो जिंदगी चल रही थी . क्या खराब थी ? अब आदत सी पड़ गई है . लेकिन अपने ऊपर हावी न होने दें , यही कोशिश रहती है . वर्ना लगेगा , सब कुछ जानते हुए भी आखिर मार खा ही गए . लेकिन एक बात हमेशा महसूस की है — अति हर चीज़ की ख़राब होती है . इसलिए एक बेलेंस बनाना ज़रूरी होता है . ब्लॉगिंग स्वांत: सुखाय करें , जब दिल न कहे तब छोड़ दें — यही सही लगता है .

डॉ टी एस दराल

ब्लॉगिंग क्या है — एक खेल ही तो है . एक बार नशा चढ़ता है लेकिन फिर आँख खुलने पर उतर जाता है . एक ब्लॉगर जो अपनी मेहनत से कम समय में ही बहुत लोकप्रिय हो गए थे ( टिप्पणियों की संख्या अनुसार ) , एक दिनं खुद ही यह कह कर सन्यास ले लिया — रोज १५ -१६ घंटे ब्लॉगिंग को दिए , आखिर क्या मिला !
ब्लॉग गुरु दूसरों को इस धंधे पर लगाकर स्वयं गायब हो गए — इसका अर्थ यही है — और भी ग़म हैं ज़माने में .

डॉ टी एस दराल

वैसे भी , जब खून के रिश्तों को निभाना ही आसान नहीं रहा , तब इन आभासी रिश्तों से क्या उम्मीद की जा सकती है .
उम्मीद रखना भी व्यर्थ है .

डॉ टी एस दराल

बेशक ब्लॉगजगत भी ऐसा ही है .
आखिर है तो एक आभासी दुनिया ही .

डॉ टी एस दराल

खुशदीप भाई —
जब हम हँसते हैं , तब दुनिया साथ हंसती है .
जब हम रोते हैं , तब कोई साथ नहीं देता !

यही दुनिया का दस्तूर है .

विवेक रस्तोगी

क्या हो गया, सब ठीक है ना ! आजकल कुछ ऐसी ही बातें हमारे दिलोदिमाग में भी घुमड़ रही हैं ।

Satish Saxena
12 years ago

यही सच है यहाँ…..

virendra sharma
12 years ago

अच्छी ग़ज़ल के साथ सत्योक्ति (कटोक्ति)भी कह दी है आपने .कृपया यहाँ भी तवज्जो दें –
शनिवार, 11 अगस्त 2012
कंधों , बाजू और हाथों की तकलीफों के लिए भी है का -इरो -प्रेक्टिक

Shah Nawaz
12 years ago

क्या बात है खुशदीप भाई सब खैरियत???? 🙂 🙂 🙂

Vinay
12 years ago

साँची सर जी

— शायद आपको पसंद आये —
1. DISQUS 2012 और Blogger की जुगलबंदी
2. न मंज़िल हूँ न मंज़िल आशना हूँ

Arvind Mishra
12 years ago

सच ऐसा ही है यहाँ -बस टिप्पणियों का लेनदेन भर है !

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