आप भारत के हैं या इंडिया के…खुशदीप

कल मेरी पोस्ट पर शेफ़ाली पांडे की टिप्पणी ने मुझे अंदर तक हिला कर रख दिया…न जाने ऐसी कितनी माताएं होंगी जिन्हें रोज़ शेफ़ाली बहना जैसे हालात से गुज़रना होता होगा…कलेजे के टुकड़े को घर छोड़कर काम पर जाना होता होगा…

ये है तस्वीर का एक रुख, भारत की असली तस्वीर का…अब मैं दिखाता हूं आपको इंडिया की एक तस्वीर…मेरे दूर के रिश्ते में एक जोड़ा है…वेल सैटल्ड…पति एमएनसी में वाइस प्रेज़ीडेंट है, पत्नी कॉल सेंटर में वरिष्ठ अधिकारी…सब कुछ है उनके पास…दोनों अपनी हेल्थ पर बड़ा ध्यान देते हैं…लेकिन मैं उनके घर एक बार गया तो उनके दस और छह साल के दोनों बच्चे अपने माता-पिता को फर्स्ट नेम से संबोधित कर रहे थे…न मम्मी, न पापा…और वो जोड़ा खिलखिला कर हंस रहा था…पता चला बच्चे किसी इंटरनेशनल स्कूल में पढ़ते हैं…यानि उन्हें इंटरनेशनल सिटीजन बनाने की तैयारी की जा रही है…विदेश में हर रिश्ते को अंकल-आंट पर ही समेट दिया जाता है…लेकिन ये नया ट्रेंड मां-बाप को भी नाम लेकर बुलाना, किस आधुनिकता का परिचायक है, मेरी समझ से बाहर है…इसी सिलसिले में मुझे ब्लैक फिल्म में बच्ची का रोल करने वाली कलाकार आयशा कपूर भी याद आ रही है…किसी फिल्म पुरस्कार समारोह में उसे अवार्ड मिला तो उसने स्टेज पर आकर अमिताभ बच्चन को अमिताभ और संजय लीला भंसाली को संजय कह कर संबोधित किया…मेरे लिए वो दृश्य भी चौंकाने वाला था…नौ-दस साल की लड़की आयशा और 65 साल के अमिताभ…

यहां ये सवाल उठाया जा सकता है कि ये कुछ ही घरों की बात हो सकती है…देश में अब भी हर घर में माता-पिता को आदर से ही बुलाया जाता है…ठीक बात है आप की…लेकिन कल की मेरी पोस्ट पर राज भाटिया जी की टिप्पणी पर एक बार गौर फरमा लीजिए…राज जी का कहना है कि जर्मनी में लोग (खास तौर पर पुरुष) शादी से बचते हैं…वो कहते हैं जब सब बिना शादी ही मिल जाता है तो फिर इस ज़िम्मेदारी को गले में क्यों बांधा जाए…अब आप कहेंगे कि जर्मनी के परिवेश से भारत का क्या मतलब…मतलब है जनाब…बहुत मतलब है…ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में दुनिया एक ग्लोबल विलेज हो गई है…अब सात समंदर पार सात समंदर पार नहीं रहा…जब हम अपने देश में इंटरनेशनल स्कूल बना सकते हैं, बाहर की यूनिवर्सिटीज़ को यहां न्योता दे सकते हैं, पेप्सी, कोक, केएफसी, मैक्डॉनल्ड जैसी एमएनसी को अपने देश के बाज़ार पर छाते देख सकते हैं तो क्या वहां की कल्चर देश में इम्पोर्ट नहीं होगी…क्या लिव इन रिलेशनशिप, गे-रिलेशन, लेस्बियन रिलेशन…इन सबका नाम भी सुना था किसी ने भारत में…अब नाम ही नहीं सुना जाता बल्कि इनके राइट्स पर खुल कर बहस होती है, परेड निकाली जाती हैं…

मेरा इस सीरीज़ को लिखने का मकसद सिर्फ इतना है कि हमारे एक देश में जो दो देश बनते जा रहे हैं, उसके विरोधाभासों को आप तक पहुंचाऊं…मेज़ोरिटी हमारे देश में भारत वाले घरों की ही है…इसलिए वहां संस्कार है…लेकिन पिछले बीस साल में ग्लोबलाइजेशन का सबसे ज़्यादा फायदा जिन एक प्रतिशत लोगों को मिला वही अब इंडिया की नुमाइंदगी कर रहे हैं…देश का सारा पैसा इन्हीं हाथों में सिमटता जा रहा है…इनका एक पैर देश में और दूसरा पैर बाहर होता है…इन्हें देश या भारत की भावनाओं से कोई सरोकार नहीं, इनका मकसद सिर्फ पैसा और स्टेट्स है…इसके लिए ये कुछ भी कर सकते हैं…और विदेश की जितनी भी संस्कार जनित बुराइयां हैं, यही लोग देश में ला रहे हैं…

आखिर में एक बात कल मेरी पोस्ट पर रश्मि रविजा बहन समेत मातृशक्ति की ओर से कहा गया कि मां के दूध को फिगर से जोड़ कर सारी नारियों को कटघरे में खड़ा करना अनुचित है…बिल्कुल ठीक बात है…लेकिन मेरी पोस्ट के निहितार्थ को अगर ठीक ढंग से पढ़ा गया होता तो शायद ये आरोप मेरे पर नहीं आता…अभी तक मेरा जितना भी ब्लॉगिंग का अनुभव रहा है, आप सबने देखा होगा कि मैं मातृशक्ति का कितना सम्मान करता हूं…मेरा आशय सिर्फ इतना है कि मां का दूध अमृत होता है…और इसका युवा पीढ़ी में जितना प्रचार किया जाए, उतना कम है…डॉक्टर टी एस दराल ने मेरी पोस्ट पर अपनी टिप्पणी से साफ भी किया कि छह महीने तक हर हाल में शिशु को सिर्फ मां का दूध ही मिलना चाहिए…छह महीने से दो साल तक मां के दूध के साथ ठोस आहार और दो साल के बाद भी जहां तक संभव हो बच्चे को मां का दूध पिलाना चाहिए…डब्बाबंद दूध बॉटल के ज़रिए बेहद ज़रूरी होने पर या मेडिकल कॉम्पलिकेशंस पर ही पिलाया जाना चाहिए…लेकिन तीन महीने बाद बच्चे का मां का दूध छूटता है, चाहे वजह नौकरी हो या कोई और, ये बच्चे के साथ तो अन्याय है ही…

आज बस इतना…कल बात करूंगा बच्चे के लिए गोद में उठाना कितना ज़रूरी है और नौकरी वाले न्यूक्लियर फैमली के मां-बाप को छोटे बच्चों को घर पर या क्रेच में छोड़ने के क्या-क्या ख़तरे हो सकते हैं…हां एक बात और, ये मेरे विचार हैं…ज़रूरी नहीं कि आप इन से सहमत हों…सब का अपना जीने का अंदाज़ होता है…और अपने बच्चों की बेहतरी खुद मां-बाप से ज़्यादा अच्छी तरह कौन सोच सकता है…

क्रमश:

स्लॉग कविता



मुझे मां की दुआओं का असर लगता है,


एक मुद्दत से मेरी मां नहीं सोई,


जब मैंने इक बार कहा था,


“मां मुझे डर लगता है”…




(शेफाली पांडे समेत पूरी मातृशक्ति को समर्पित)

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