क्या किसी शहर की तहज़ीब बदल सकती है, मिजाज़ बदल सकता है…क्या वक्त किसी शहर को भी बदल सकता है…
नखलऊ…मुआफ़ कीजिए लखनऊ…नाम लेते ही दिल को कैसा सुकून मिलता है…बातचीत का वो शऊर जो गैर से गैर को भी अपना बना ले…अवध की शाम…किस्सागोई की महफ़िलें…
लेकिन सत्ता की धमक कैसे किसी शहर को अपने आगोश में लेती है, यही आपको आज इस पोस्ट में दिखाता हूं दो वीडियो के ज़रिए…
लेकिन पहले दिल को चीर देने वाले सिएटल, अमेरिका में बसे अभिनव शु्क्ल के ये अल्फाज़…
जिनके अपनों की कब्रें हैं,
फूल चढ़ा लेने दो उनको,
जब झगड़ा था, तब झगड़ा था,
अब कोई टकराव नहीं है,
मौसम बदल चुका है सारा,
मज़ारों पर जूता चप्पल,
मेहमानों पर ईंटा पत्थर,
ये लखनऊ की तहज़ीब नहीं है…
पहले देखिए वो लखनऊ जो हमारे दिलों में बसा है…
अब देखिए मायावती का लखनऊ…
वाकई लखनऊ बदल गया है…बुत ही बुत नज़र आते हैं…इनसान कहीं छुप गए हैं या छुपा दिए गए लगते हैं…
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