सोचो तो क्या पाया इनसान हो कर…खुशदीप

इनसान तरक्की के लिए कितना मारा-मारी करता है…लेकिन कुदरत के आगे कैसे सारा विकास एक झटके में बह जाता है, ये ब्लैक फ्राइडे को जापान में दिखा…ज़िंदगी से सराबोर शहर सैंडई को चंद मिनटों में ही समंदर से उठी पानी की दस मीटर ऊंची दीवार ने रौंद डाला…साइंस और इनसान ने हिफ़ाज़त के जो जो इंतज़ाम कर रखे थे, ताश के पत्तों की मानिंद ढह गए…

कुदरत के आगे भला इनसान की क्या बिसात…लेकिन इनसान को ये सोचने की फुर्सत कहां…महानगरों में हम रोबोट बने घूम रहे हैं…दिन-रात भागते-दौड़ते इन महानगरों में क्या नहीं है…ऐशो-आराम की ऐसी कौन सी शह है जो यहां पैसा खर्च कर नहीं खरीदी जा सकती…बस यहां रुक कर किसी को किसी की सुनने की फुर्सत नहीं है…आने वाले कल को ज़्यादा से ज़्यादा खुशहाल बनाने के लिए अपने आज की सारी खुशियों को कुरबान करते हुए हमें लगता है हम अजर-अमर है…ये भूल जाते हैं कि ज़िंदगी में जो मकाम गुज़र जाते हैं वो दोबारा कभी लौट कर नहीं आते…

वाकई लगता नहीं महानगरों में इनसान बसते हैं…यहां एक से बढ़कर एक प्रोफेशनल मिल जाएगा, बुद्धिजीवियों समेत न जाने कौन-कौन से जीवी मिल जाएंगे लेकिन एक अदद खालिस इनसान ढूंढना बड़ा मुश्किल हो जाता है…अब कत्ल के लिए भी यहां सुनसान जगह नहीं सबसे ज़्यादा भीड़ वाला इलाका ढूंढा जाता है…किसी लड़की को फुटब्रिज पर गोली मार कर हत्यारा बड़े मज़े से निकल जाता है…देखने वाले देखकर भी सूरदास बन जाते हैं…मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरा न कोय…सड़क पर भागते-दौड़ते भी बस अपने गिरधर के ध्यान में मगन…इतनी साधना कि पास में क्या घट रहा है, उसकी भी कोई सुध नहीं…क्राउड इतना है लेकिन किसी घर में कोई मर जाता है तो चार कंधे देने वाले भी मुश्किल से मिल पाते हैं…(नोएडा में बुज़ुर्ग रिटायर्ड लोगों के घर में ये त्रासदी मैं अपनी आंखों से देख चुका हूं)…यानि यहां संवेदना के लिए भी आपको क्राउड मैनेजमेंट वालों का दरवाज़ा खटखटाना पड़ेगा…

महानगरों के जीवन पर ही बशीर बद्र साहब ने क्या खूब कहा है-

कोई हाथ भी नहीं मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से,
ये अजीब मिज़ाज का शहर है,ज़रा फ़ासले से मिला करो…


ऐसे में याद आता है मेरठ में हम चार-पांच दोस्तों का बिना नागा रोज शाम को मिलना…बाज़ार का एक राउंड लेना…चाय के स्टाल पर बुलंद कहकहे लगाना…बिना किसी प्रायोजन के…बिना किसी स्वार्थ के…कभी लगता है मेरठ तो अपनी जगह पर ही है…मैं ही बदल गया हूं शायद…सब पुराने दोस्त अपनी अपनी जगह रमे हैं…मेरे समेत कहां कोई फुर्सत निकाल पाता है…

टीवी पर जापान में सुनामी की तबाही देखते-देखते यहीं सोच रहा हूं…क्या पाया इनसान हो कर….

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