सोशल साइट्स पर अपने नहीं सपने होते हैं…खुशदीप




सोशल नेटवर्किंग साइट्स को ही सब कुछ
मान लेने वालों को एक फिल्म ज़रूर देखनी चाहिए-
वेटिंग’…अनु मेनन की डायरेक्ट की ये फिल्म इस साल मई में रिलीज हुई थी…इस फिल्म में
नसीरूद्दीन शाह और कल्कि केकला की मुख्य भूमिकाएं थीं…अधेड़ शिव (नसीर) और युवा तारा
(कल्कि), दोनों के जीवनसाथी अस्पताल में कॉमा में हैं…शिव और तारा
की अचानक अस्पताल
के वेटिंग रूम में मुलाकात होती है…दोनों अकेले ही अपनी
अपनी जंग लड़ रहे है…
बड़े दुःख के साथ जीते
हुए भी उम्मीद के साथ लड़ना फिल्म का संदेश हैं…आप को जो कहना चाह रहा हूं, उससे
पहले फिल्म का ये ट्रेलर देख लीजिए…और इसके सबसे आख़िरी डॉयलॉग पर ख़ास ध्यान दें…
ट्रेलर आपने देख लिया…तारा
(कल्कि
) का डॉयलॉग आपने सुन लिया…तारा जो कहती है
उससे यही लगता है
कि वो सोशल साइट्स पर अति सक्रिय रही है…उसके ट्विटर पर
5800 फॉलोअर्स हैं…फेसबुक पर 1500 से ज़्यादा फ्रैंड्स हैं…लेकिन अस्पताल में
उसका साथ देने के लिए कोई भी नहीं है….वो अकेले ही जंग लड़ रही है…तारा जब
ट्विटर का नाम लेती है तो शिव (नसीर) बड़ी मासूमियत के साथ कहते हैं-
ट्विटर क्या होता है?”
नसीर का ये एक वाक्य ही
सोशल साइट्स की वास्तविकता बताने के लिए काफ़ी है…दरअसल, महानगरों में अब इनसान
को न्यूक्लियर परिवार में रहना पड़ता है…पहले की तरह संयुक्त परिवार बहुत कम बचे
हैं…ऐसे में काम के तनाव से उसे राहत देने वाले सिर्फ पत्नी और बच्चे ही होते
हैं…अगर इनसान बिल्कुल अकेला है तो मुश्किल और बड़ी है…ऐसे में वो खुद के
सुकून के लिए सोशल साइट्स का सहारा लेता है…आभासी रिश्ते ढूंढता है…रीयल लाइफ
में अपनों और दोस्तों से कम ही मिलता जुलना होता है…इसलिए अपने हर सुख-दुःख,
उपलब्धि को सोशल साइट्स पर ही बांटता रहता है…अस्पताल में भर्ती हो तो स्टेट्स
डालता है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोग उसका हाल पूछें…कुछ नित नई अपनी फोटो डालते
हैं…लाइक्स और कॉमेंट्स पाकर ही वो खुश हो जाते हैं…देखा मुझे चाहने वाले
कितने लोग हैं…
इन्हीं भ्रांतियों को तोड़ता
है फिल्म
वेटिंग के ट्रेलर का आख़िरी डॉयलॉग…बताता है कि सोशल साइट्स का
एडिक्शन कैसी मृग मरीचिका है…ऐसा नहीं कि सोशल साइट्स के सब नुकसान ही नुकसान
हैं…सोशल साइट्स पर 7 साल का मेरा अनुभव कहता है कि मुझे यहां कुछ नए बहुत अच्छे
लोगों का साथ मिला…विशेष तौर पर ब्लॉगिंग से…हम वर्चुअल स्पेस से हटकर आपस में
मिले…दोस्त बने…खुद के लेखन में धार आई…विचारों की अदला-बदली ने खुद के
विकास में बहुत साथ दिया…पहचान बनाने में मदद की…कई बार एक-दूसरे के काम भी
आए…लेकिन यहां तक तो सब ठीक है…दिक्कत वहां है जहां इनसान ये जन्मसिद्ध अधिकार
मानने लग जाए कि सोशल साइट्स के सारे रिश्ते हमारी हां में ही हां मिलाएं….हमें
कोई निजी दुःख हो तो सारे लाइन लगाकर हमारा हाल पूछने के लिए आ जाएं…अगर कोई ऐसा
सोचने लगता है तो वो ग़लती करता है…भूल जाता है कि वर्चुअल स्पेस (सोशल साइट्स)
पर सपने होते हैं, अपने नहीं…हर एक को समझना चाहिए कि हर व्यक्ति अपने-अपने
तरीके से ज़िंदगी की जंग लड़ रहा है…वो अपनों के लिए वक्त नहीं निकाल पा रहा तो
आभासी रिश्तों के लिए क्या निकालेगा…
काम वहीं अपने आएंगे,
जिनसे वो सोशल
साइट्स में अपने ढूंढने की वजह से दूर
होता जा रहा है…
आख़िर में मेरे प्रिय
कलाकार धर्मेंद्र की फिल्म
अपने का ये गाना सुनिए…
बाक़ी सब सपने होते हैं,

अपने तो अपने होते हैं…
(नोट- एक्ट्रेस कल्कि
केकला का हिंदी में सही नाम आम लोग तो क्या मीडियाकर्मी भी
नहीं लिखते, सब अंग्रेज़ी
की स्पेलिंग देखकर
कल्कि कोचलिन ही लिखते हैं…कल्कि ने अपने नाम का सही उच्चारण खुद
बताया था, यक़ीन नहीं होता तो जब कभी आपको कहीं कल्कि मिले तो खुद ही पूछ लीजिएगा)