वहां कौन है तेरा…मुसाफिर जाएगा कहां

ब्लॉग पर पहली पोस्ट को डाले मुझे आज पूरा एक महीना हो गया है…मेरा जिस शहर में जन्म हुआ, वहीं से 1857 में आज़ादी की लड़ाई का पहला बिगुल बजा था…मैं मेरठ की बात कर रहा हूं…इस शहर का मिजाज़ ठेठ और अक्खड़ है…लोगों का बात करने का अंदाज़ बेशक लट्ठमार है लेकिन कमोवेश अंदर से होते ज़्यादातर सीधे और दिल के सच्चे ही हैं…अपने शहर और वहां के बाशिंदों से मुझे बड़ी मुहब्बत है…लेकिन अफसोस 7-8 साल पहले शहर से मेरा आबो-दाना उठ गया…वजूद की जंग मुझे नोएडा ले आई…
शुरू-शुरू में ऐसा लगा कि मैंने ऊपर वाले का क्या बिगाड़ा था, जो मुझे अपनी ज़मीन से उखाड़ कर बेमुरव्वत, पत्थरदिल इंसानों की बस्ती में भेज दिया…पड़ोस वाले को पड़ोस का पता नहीं कि जी रहा है या मर रहा है…मेरठ की गलियां-कूचे, कंपनी बाग की ठंडी हवा, माल रोड की मटरगश्ती, आबू-लेन पर राधे की चाट, दोस्तों के साथ रोज़ शाम को बाज़ार का एक राउंड…सब एक गुम सपने की तरह पीछे छूट गया…मरता क्या न करता की तर्ज पर किसी तरह धीरे-धीरे नए शहर में एडजस्ट करना शुरू किया…
दिल्ली जैसे बड़े शहर से सटे होने की वजह से नोएडा में भी लोगों का जीने का अंदाज रोबोट सरीखा ही है…हर कोई भाग रहा है…बिना रूके…और, और, और…और की अंधी दौड़ में…कोई कहने वाला नहीं…वहां कौन है तेरा…मुसाफिर जाएगा कहां…दम ले ले घड़ी भर, ये आराम पाएगा कहां…शायद कभी नहीं…या फिर शायद तभी जब खुद के लिए और, और… करना कुछ मायने नहीं रखेगा…जिन अपनों के लिए जीवन होम कर दिया…एक दिन वो ही इंतज़ार करने लगेंगे कि हम कितने पल इस दुनिया में और…और…
इंसानों की शक्ल में खुदगर्ज पत्थरों के बीच-बीच रहते-रहते खुद भी पत्थर होता जा रहा था…लेकिन फिर आज़ादी के दिन ही चमत्कार हुआ…न जाने कौन सी शक्ति ने ब्लॉग पर पहली पोस्ट…कलाम से सीखो शाहरुख…लिखने को प्रेरित किया…सच बताऊं तो मेरे एक जूनियर साथी ने ब्लॉग स्पॉट पर मेरे लिए देशनामा नाम का ब्लॉग इस साल फरवरी में ही बना दिया था…लेकिन वक्त जैसे इंतज़ार करता रहा…मेरा कुछ लिखने का जी नहीं किया…देशनामा भी बेचारा मेंढक की हाइबरनेशन स्लीप की तरह चुपचाप पड़ा रहा…बिना मुझे तंग किए…फिर आज़ादी के दिन न जाने क्या हुआ…कंप्यूटर पर फोनेटिक फोंट न होने के बावजूद मैंने आनलाइन ही फोनेटिक टूल खोलकर लिखना शुरू किया…उसी दिन शाहरुख का अमेरिका के नेवार्क में माय नेम इज़ खान वाला पंगा हुआ था…मेरी उंगलिया खुद-ब-खुद चलती रही और पहली पोस्ट तैयार हो गई…पब्लिश कर दी..थोड़ा बहुत रिस्पांस मिला…लेकिन अच्छा लगा…फिर पहले दो दिन में एक पोस्ट और फिर लगातार रोज़ एक पोस्ट…न जाने कौन है जो मुझे ऐसा करने की शक्ति दिए जा रहा था…चाहे कितना भी थका क्यों न हूं लेकिन लैपटॉप सामने आते ही तरोताजा हो जाता…पोस्ट डालते रहने का सिलसिला आज पूरे एक महीने का हो गया …इस दौरान मैंने जैसे फिर मेरठ में अपने खोए हुए जहां को दोबारा पा लिया…
इंसानों से जो भरोसा उठता जा रहा था, वो मेरे ब्लॉगर परिवार ने मुझे गलत साबित कर दिया…मेरे पास ऐसा कोई हिसाब नहीं कि मैंने एक महीने में कितनी पोस्ट लिखी, कितनी उन्हें पसंद मिलीं, कितनों ने उन्हें पढ़ा, कितने कमेंट्स आए…तराजू लेकर कभी मैं ऐसा गुणा-भाग करने नहीं बैठा…मैं बस इतना जानता हूं कि ब्लॉगिंग के ज़रिए मुझे बेशुमार प्यार मिला…शायद अपनों से भी ज़्यादा…अब यही मेरा सरमाया है…यही मेरी पहचान है..और क्या कहूं…शुक्रिया तो हर्गिज नहीं…क्योंकि ये शब्द परायों से बोला जाता है…क्या यहां है कोई मेरा पराया…

स्लॉग ओवर से आज भी छुट्टी नहीं मिलेगी क्या…नहीं…तो…(है…बाबा..नीचे है…)
 
स्लॉग ओवर
मैं घर में बैठा था कि मक्खन बड़े उखड़े अंदाज़ में मेरे पास आया…चेहरे से दुनिया-जहां का दर्द टपक रहा था…आते ही बोला…ओफ्फो…सात साल में कितनी दुनिया बदल गई…
मक्खन को दार्शनिक की तरह बात करते देख मेरा माथा ठनका…मैंने पूछा…ऐसा क्या हो गया मक्खन प्यारे…
मक्खन…क्या हो गया….ये पूछो कि क्या नहीं हो गया…
मैंने कहा…जब बताओगे, तब तो मुझे पता चलेगा कि कौन सा आसमान टूट पड़ा…
मक्खन… अब क्या बताऊं दोस्त…सात साल पहले मैं घर आता था तो मेरी मक्खनी दरवाजे से घुसते ही किस से मेरा वेलकम करती थी और मेरा पपी मुझ पर गुर्राता था…
इसके बाद मक्खन ने ठंडी सांस ली चुप हो कर बैठ गया..

तब तक मेरी जिज्ञासा भी बढ़ गई, मैंने कहा…तो अब ऐसा क्या हो गया…
मक्खन …अब उन दोनों ने रोल बदल लिए हैं…

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