नैन हम लड़ाएंगे बेबी डॉल से,
हो लौंडिया पटाएंगे मिस कॉल से…
ये बोल ‘दबंग-2’ फिल्म के सुपरहिट गाने के हैं.. ‘दबंग-2’ 21 दिसंबर को रिलीज़ हुई…उससे एक दिन पहले फिल्म के हीरो सलमान ख़ान दिल्ली में इसके प्रमोशन के लिए मौजूद थे…इत्तेफ़ाक से तीन दिन पहले ही दिल्ली में 23 साल की लड़की से जघन्य सामूहिक बलात्कार की वारदात से देश हिला हुआ था…ज़ाहिर है सलमान से भी इस मुद्दे पर सवाल किया गया…इस पर सलमान ने जवाब दिया…”मेरे ख्याल से बलात्कारियों के लिए मौत की ही सजा होनी चाहिए…ऐसी घटनाओं की हमारे समाज में कोई जगह नहीं है….मुझे ऐसी घटनाओं से नफरत है…मेरे लिए ये तृतीय क्षेणी का अपराध है…मेरा मानना है कि बलात्कारी को जेल में मरते दम तक पीटना चाहिए”…
सलमान का जवाब बलात्कार की घटना को लेकर हर आम भारतीय की सोच को ही प्रतिबिम्बित करता है…लेकिन मेरी समझ से यहां सलमान से एक और सवाल करना चाहिए था…ये सवाल होता कि आप फिल्मों में….हो लौंडिया पटाएंगे मिसकॉल से…जैसे जो गाने रखते हैं, उनका समाज पर क्या असर होता है…फिल्म में सलमान पुलिस इंस्पेक्टर के किरदार में हैं और ये गाना गाते दिखते हैं….क्या यही गाने शोहदों को लड़कियों से छेड़छाड़ का ज़रिया नहीं देते…अभी हाल ही में ‘मुन्नी बदनाम हुई’ और ‘शीला की जवानी’ गानों का ऐसा असर हुआ था कि उनसे परेशान होकर मुंबई में मुन्नी और शीला नाम की दो सगी बहनों ने अपना नाम ही बदल लिया था…
बॉलीवुड में महेश भट्ट जैसे कई दिग्गज सेंसर बोर्ड को खत्म करने के पक्ष में हैं…अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर ये बड़े पर्दे पर कुछ भी दिखाने की छूट चाहते हैं…महेश भट्ट ने पोर्न स्टार सनी लिओन को जिस्म-2 की नायिका बनाकर पेश किया, तो ज़ाहिर है कि उनकी मंशा सेक्स को व्यावसायिक तौर पर भुनाने की थी…महेश भट्ट की ये चिंता कतई नहीं होगी कि समाज पर इसका असर क्या होगा?…सनी लिओन उनकी फिल्म की नायिका बनने के साथ ही भारत में इंटरनेट पर सबसे ज़्यादा सर्च करने वाली शख्सीयत बन गईं…इंटरनेट के आगमन के बाद अब हर उस चीज़ तक पहुंच सिर्फ एक क्लिक की दूरी पर है, जिसे देखना तो दूर, उस पर बात करना भी भारतीय समाज में वर्जित माना जाता था…इंटरनेट पढ़ाई के लिए आज हर बच्चे की ज़रूरत माना जाता है…लेकिन आप चाह कर भी हर वक्त बच्चे पर पहरा नहीं रख सकते कि वो इंटरनेट पर क्या-क्या देखता है…ऐसे में अगर ये समाचार सामने आते है कि सातवीं कक्षा में पढ़ने वाले एक लड़के ने, अपने ही विद्यालय की तीसरी कक्षा में पढ रही एक बच्ची से बलात्कार करने की कोशिश की, तो ये ताज्जुब से ज़्यादा सोचने वाली बात है कि ऐसा क्यों हो रहा है…
इंटरनेट की बात छोड़ भी दी जाए तो छोटे शहरों और महानगरों के स्लम्स एरिया के सिंगल स्क्रीन थिएटर्स में ऐसी सी-ग्रेड फिल्में दिखाई जाती है जिनमें धड़ल्ले से अनसेंसर्ड अश्लील दृश्य दिखाए जाते हैं…इनके वल्गर पोस्टर भी जगह-जगह दीवारों पर चिपके देखे जा सकते हैं…ज़ाहिर है ये प्रशासन और पुलिस की नाक के नीचे ही होता है…अब इन पोस्टर्स से लड़कियों-महिलाओं को कितनी परेशानी होती है, इसकी परवाह कोई करने वाला नहीं है…ऐसी फिल्मों के पोस्टर भी जानबूझकर स्कूलों के पास लगाये जाते हैं…बिना ये सोचे कि इनका हमारे नौनिहालों पर कितना बुरा असर होता होगा….
दिल्ली में जो हुआ वह करने वाले सारे अभियुक्त समाज के निचले तबके से हैं और आर के पुरम के सेक्टर-3 में बने झुग्गी कलस्टर रविदास कैंप में उनकी रिहाइश थी…ये उसी आर के पुरम के साथ बिल्कुल एक दूसरी ही बनी दुनिया है…जिस आर के पुरम में ज्यादातर सरकारी बाबुओं ने अपने आशियाने बना रखे हैं…यानि एक तरफ़ सर्वसुविधा संपन्न वर्ग और दूसरी तरफ़ हर तरह की सामाजिक बुराइयों से अभिशप्त ज़िंदगी…गैंग-रेप की वारदात के सभी अभियुक्त कम पढ़े लिखे, नशे और ड्रग्स के आदि हैं…और कोई काम कर नहीं सकते, इसलिए ड्राइविंग का लाइसेंस ले लेते हैं…रिश्वत के दम पर हमारे देश में कोई भी ड्राइविंग लाइसेंस ले सकता है….ऐसे लोगों का रहन-सहन, सामाजिक मर्यादा का मतलब वैसा नहीं है जैसा कि हम कथित सभ्य समाज के लोगों के लिए हैं…शराब के नशे में इनके जैसे कुछ लोगों का जमावड़ा होता है तो ये अपनी कुंठाओं को पूरा करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं…अमीरों जैसी ज़िंदगी ना जी पाने की हताशा भी इन्हें वहशी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ती…छोटा पहनावा दिखने पर भी ये उसे अपने लिए आसान टारगेट मान लेते हैं…
ऐसा नहीं कि सेक्स से जुड़े अपराध या छेड़छाड़ की घटनाएं मध्यम वर्ग या उच्च वर्ग में नहीं होतीं…ये भी किसी से छुपा नहीं कि फॉर्म हाउस की ऊंची ऊंची चाहरदीवारियों के पीछे पार्टियों के नाम पर क्या-क्या नहीं होता…ये पैसों वालों की काली दुनिया होती है…इन पार्टियों में मौज-मस्ती के लिए ऊंचे ओहदेदार भी शामिल रहते हैं…इसलिए पुलिस की आंखों पर भी पट्टी बंधे रहती हैं…नये साल के नाम पर होने वाली पार्टियों में क्या-क्या गुल खिलते हैं, ये भी आसानी से समझा जाता है…यानि आप पैसे वाले हैं तो आप कुछ भी खुराफात कर सकते हैं और उस पर हमेशा के लिए पर्दादारी का भी इंतज़ाम कर सकते हैं…अच्छे और बुरे लोग समाज के हर वर्ग में हैं…समाज की निचली पायदान के बुरे लोग जब अपनी विकृतियों के वश में होकर अपराध पर उतरते हैं तो उसका मेनिफेस्टेशन जघन्य अपराध में सामने आता है….इनके पास कुछ पैसा आता है तो ये अपनी सेक्स कुंठाओं को शांत करने के लिए रेड लाइट एरिया, कॉलगर्ल्स का सहारा लेते हैं…अन्यथा इंसान की शक्ल में ये नर-पिशाच ऐसे हिंसक तरीकों पर भी उतर सकते हैं कि हैवानियत भी शर्मा जाए…जैसा कि दिल्ली की हालिया वारदात में हुआ…लेकिन सवाल ये है कि इऩ अपराधियों के इतने बेखौफ़ होने के लिए ज़िम्मेदार कौन है..क्यों
पुलिस का इनके दिल-ओ-दिमाग़ पर डर नहीं होता…
और इस तरह की मानसिक विकृतियों वाले अपराधियों को क्या हमारी फिल्में, इंटरनेट, सेक्स चैट और मसाज पार्लरों के अखबारों में छपने वाले विज्ञापन बढ़ावा नहीं देते…फिर इन विज्ञापनों के ज़रिए मोटी कमाई करने वाले अख़बारों के ख़िलाफ़ आवाज़ हम क्यों नहीं उठाते…क्यों नहीं अश्लील फिल्में दिखाने वाले या पोस्टर लगाने वाले सिनेमाहॉलों का लाइसेंस हमेशा के लिए रद्द नहीं कर दिया जाता…
इसमें कोई शक-ओ-शुबहा नहीं कि महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध घर में हो या बाहर, दोषियों को सख्त से सख्त सज़ा मिलनी चाहिए…लेकिन बात यही खत्म नहीं हो जाती है…हमें विचार इस बात पर भी करना है कि हमारे समाज का एक हिस्सा गर्त में जा रहा है तो उसके लिए ज़िम्मेदार कौन है…हमें समस्या के सिर्फ एक कोण से नहीं बल्कि समग्र तौर पर निपटने के लिए प्रयास करने चाहिएं…
(इसी संदर्भ में डॉ अजित गुप्ता जी ने बड़ा सारगर्भित लेख लिखा है)