…लेकिन हमें तो पता है

“शर्मिंदा हूँ कि कुछ जुमलों का प्रयोग चंद बरस पहले मैंने भी किया था… पर अब ऐसा नहीं है… वो ज़मीन भी है… आसमान भी …और उनके बीच का वायुमंडल भी…”
ये टिप्पणी मेरी पोस्ट पर सागर ने भेजी है…जिस दिन से मैंने अपना ब्लॉग शुरू किया है, 24 साल का सागर लगातार कमेंट्स भेजकर मेरा हौसला बढ़ा रहा है… सागर ये कबूल करता है कि उसके मुंह से कभी झल्लाहट में बुज़र्गों को तकलीफ़ देने वाले शब्द निकले हैं…साथ ही वो उसके लिए शर्मिंदगी भी महसूस करता है…ये अच्छी बात है कि अब वो सब कुछ अपने पास होने की बात कह रहा है…सागर की इस साफ़गोई से मुझे लगता है कि हमारी बहस सही दिशा में रही है… एक व्यक्ति की सोच भी बदलती है तो हमारा प्रयास सार्थक है…वैसे अगर गहराई से सोचा जाए और रिश्तों मे ज़रा सा बैलेंस बनाकर चला जाए तो ज़मीन भी आपके पास रह सकती है, आसमान भी आपका हो सकता है…और बीच की हवा भी…
सागर जैसा दृष्टिकोण ही हम सबको अपनाने की ज़रूरत है…हम भी इंसान है…और इंसान को गलतियों का पुतला यूहीं नहीं कहा जाता…उससे बड़ा कोई नहीं जो अपनी गलती मानता है और दोबारा उसे न दोहराने का प्रण करता है…अब आता हूं संगीता पुरी जी के ज्वलंत प्रश्न पर जो उन्होंने मेरी पोस्ट पर अपनी टिप्पणी के ज़रिेए उठाया…पहले उनकी बात जस की तस-
“क्‍या दोष सिर्फ बच्‍चों का ही है ?क्‍या दोष उन माता पिता का नहीं .. जो अपनी महत्‍वाकांक्षा के कारण बच्‍चों को अत्‍यधिक मेहनत का आदि बना देते हैं ?
क्‍या दोष आज के सामाजिक माहौल का नहीं .. जहां कोई भी व्‍यक्ति अपने स्‍वार्थ के कारण ही किसी से जुड़ना चाहता है ?क्‍या दोष आज के कैरियर का नहीं .. जो लोगों को महानगरों में रहने को मजबूर कर देता है ?क्‍या दोष आज के ऑफिशियल माहौल का नहीं .. जहां थोड़ी सी असावधानी से आपको नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है ?क्‍या दोष उस व्‍यवस्‍था का नहीं .. जहां कितना भी कमाओ पैसे कम पड़ जाते हैं ?सारा माहौल ही अस्‍त व्‍यस्‍त है .. और अभी तो वह पीढ़ी भी आनेवाली है .. जिसके माता पिता नौकरी में व्‍यस्‍त रहा करते हैं .. और वो नौकरों के भरोसे पले हैं…”
संगीता जी ने जो कहा वो सोलह आने सही है…माता पिता को भी ये समझना चाहिए कि आज के गलाकाट प्रतिस्पर्धात्मक माहौल में वजूद बनाए रखने की लड़ाई लड़ना कितना मुश्किल है…इसलिए कभी उन्हें भी ये सोचकर देखना चाहिए कि अगर वो खुद ऐसा जीवन जीते तो कितना मुश्किल होता…और आज की पीढ़ी को भी सोचना चाहिए कि वो पूरे दिन में सिर्फ दो-चार मिनट निकालकर बुज़ुर्गों का हाल पूछ ले, उनसे हंस-बोल ले तो मैं यकीन से कहता हूं बुज़ुर्गों का आधा दर्द तो यूहीं उडन-छू हो जाएगा. कल इस बहस को निचोड़ के साथ अंजाम तक पहुंचाने की कोशिश करुंगा…आप इस विषय पर अपने विचारों, राय, अनुभव से ज़रूर अवगत कराएं.. शायद उसी अमृत से किसी की समस्या का समाधान निकल आए…
(शुक्रगुज़ार हूं गुरुदेव, पाबलाजी, बबलीजी, अवधिया जी, दराल सर, पंकज मिश्रा जी, अल्पना वर्मा जी, फिरदौस ख़ान भाई, राज भाटिया जी, शरद कोकास जी, दिनेशराय द्विवेदी सर, विवेक रस्तोगी भाई, अनिल पुस्दकर जी, निशाचर भाई, दीप्ति जी, विवेक सिंह जी, निर्मला कपिला जी, आशा जोगलेकर जी और मेरी पोस्ट को पढ़ने वाले आप सभी का जिन्होंने बुज़ुर्गों की अनदेखी जैसे गंभीर विषय पर बहस को इतना जीवंत बनाया.)

स्लॉग ओवर
आज बस “टीचर्स” डे है…
(व्हिस्की के और सब ब्रांड्स आज के लिए बैन हैं)

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