आज निर्मला कपिला जी की लघुकथा पढ़ी…मैं पहले भी कहता रहा हूं कि निर्मला जी को पढ़ने के बाद मुझे अमृता प्रीतम जी की कृतियों की याद आती है…इस लघुकथा में निर्मला जी ने दूल्हे के पिता के दोहरे चेहरे को दिखाया…इस लघुकथा के साथ ही मुझे अमृता प्रीतम जी के उपन्यास पर बनी फिल्म पिंजर याद आ गई…पिंजर विभाजन के दौर की कहानी थी…लेकिन लड़कियों की दशा देखे (खास तौर पर पंजाब में) तो इतने साल भी तस्वीर में बदलाव नहीं आया है…घर में लड़के के जन्म पर पहले भी लोहड़ी मनाई जाती थी…अब भी मनाई जाती है…लड़की के जन्म पर पहले भी सास का मुंह फूल जाता था, अब भी फूल जाता है…निर्मला कपिला जी की लघुकथा समाज का एक चेहरा दिखाती है…यहां तो लड़की का बाप समर्थ नहीं लगता…लेकिन अगर बाप समर्थ है और वो बिना किसी दबाव के लड़की के नाम कुछ राशि बैंक में जमा करा सकता है तो बुराई भी नहीं है…आज मैंने किसी और विषय पर पोस्ट लिखनी थी, लेकिन इस लघुकथा को पढ़ने के बाद इसी पर लिख रहा हूं…
मैं यहां खास तौर पर पंजाब की बात करता हूं…यहां समस्या ससुराल में ही नहीं मायके में भी लड़की के जन्म से ही मान ली जाती है…कन्या भ्रूण हत्या की वजह से पंजाब का लिंग-अनुपात सबसे ज़्यादा बिगड़ा हुआ है…यहां लड़के की चाहत बहुत होती है…इसलिए सारे अधिकार भी लड़के के लिए रख दिए जाते हैं…लड़की की शादी करते ही उसका घर से सारा हक खत्म समझ लिया जाता है…ऐसा क्यों…क्या वो अपने भाइयों की तरह पिता की संतान नहीं है…फिर उसका क्यों कुछ हक नहीं…अगर खुशी से लड़की को कुछ दिया जाता है तो उसे भी बड़ा अहसान मान लिया जाता है…
अब आता हूं लड़के वालों पर…खास तौर पर पंजाबियों में यही कहा जाता है कि हमें सिर्फ लड़की चाहिए…हमारी कोई डिमांड नहीं…असली दोहरे चेहरे वाले ये लोग होते हैं…अब अगर लड़की वाले कुछ खास नहीं कर पाते तो पूरी ज़िंदगी बेचारी लड़की को ताने मिलते रहते हैं…किन कंगलों से रिश्ता जोड़ लिया…अरे कुछ नहीं देना था तो न सही, बारातियों की खातिरदारी तो ढ़ंग से कर देते …इससे अच्छा तो फिर मैंने मेरठ में बनिया परिवारों में देखा है…वहां पहले ही साफ साफ तय कर लिया जाता है कि शादी पर इतना पैसा खर्च किया जाएगा…अब इसे जिस रूप में चाहे खर्च करा लो…ऐसी स्थिति में लड़की को कम से कम कोसा तो नहीं जा सकता…
सबसे आइडियल तो ये है कि बिना किसी भेद-भाव के लड़की को पढ़ाई से इतना समर्थ बनाया जाए कि अगर शादी के बाद विपरीत स्थिति आए भी तो वो बिना किसी सहारे के अपने पैरों पर खड़ी रह सके…क्योंकि शादी के बाद ऊंच-नीच होने पर भी लड़की मायके आ जाए तो उसे न तो घर से और न ही समाज से पहले जैसा सम्मान मिल पाता है…ये सब गलत है…लेकिन समाज में प्रचलित हैं, क्या किया जा सकता है…
ये मेरी ऑब्सर्वेशन है, हो सकता है कि मैं गलत हूं…बस इतना मानता हूं कि लड़कियां चाहे मायके में रहे या ससुराल में घर की भाग्यदेवी होती हैं, और जहां उनका सम्मान नहीं होता, मेरी नज़र में वो घर भूतों के डेरे से कम नहीं…इस विषय में आप क्या कहते हैं…इसे विमर्श का रूप दें तो और भी अच्छा…
आखिर में पिंजर का ये गीत भी सुन लीजिए…
चरखा चलाती मां, धागा बनाती मां, बुनती है सपनों के खेस रे…