रूई का बोझ…पहली किस्त…खुशदीप

जीवनकाल को बांटने के लिए ब्रह्मचर्य, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के खांचों के बारे में आप सब जानते ही हैं…लेकिन ये अवस्थाएं संयुक्त परिवार के लिए बनी थी…आज के दौर में सभी मान्यताएं टूट रही हैं तो इन खांचों का मतलब भी बेमानी सा होता जा रहा है…न्यूक्लियर परिवारों के इस दौर में बुज़ुर्गों को बोझ समझने वालों की कमी नहीं है…कुछ संतान बुज़ुर्गों की सच्चे मन से सेवा करने वाली भी हैं, लेकिन इनका प्रतिशत बहुत कम है..पिता की संपत्ति पर तो सब हक़ जताते हैं लेकिन एक बार ये मकसद हल हो जाता है तो फिर पिता ही बोझ नज़र आने लगता है…ये सब भुला दिया जाता है कि बचपन में कितनी मुसीबतें सहते हुए उन्होंने बच्चों को बढ़ा किया, पढ़ाया-लिखाया…

चंद्र किशोर जैसवाल ने ऐसे ही एक परिवार में अंर्तद्वंद्व से गुज़र रहे बूढ़े बाप पर बड़ा सशक्त उपन्यास लिखा था- रूई का बोझ…इस पर सुभाष अग्रवाल ने रूई का बोझ नाम से ही 1997 में फिल्म बनाई…नेशनल फिल्म डवलपमेंट कारपोरेशन के सहयोग से बनी इस फिल्म के मुख्य पात्र थे- पकंज कपूर, रीमा लागू, रघुवीर यादव….

इसी फिल्म के कथासार को आप तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा हूं…

परिवार में भाई प्यार के साथ रहते हैं…अक्सर बड़े भाई छोटों के लिए खूब बलिदान करते हैं…छोटे भाई भी बड़े भाई का पिता तुल्य सम्मान करते हैं…लेकिन जैसे जैसे परिवार में भाइयों की शादियां होती जाती हैं, तस्वीर बदलती जाती है…पत्नियां आने पर रिश्तों की वो गरमी महसूस नहीं हो पाती जो लहू के रिश्तों में होती है…

जब तक छोटे भाइयों की शादी नहीं होती वो बड़ी भाभी का मां जैसे सम्मान करते हैं…बड़े भाई के बच्चों पर भी खूब लाड उड़ेलते हैं…लेकिन शादी होने के बाद रिश्तों से ये अपनापन कम होने लगता है…देवरानी-जेठानी को वैसे रिश्ते कायम करने में वक्त लगता है जैसे कि दो भाइयों के बीच शादी से पहले होते हैं…रिश्तों की असली पहचान इसी स्टेज से शुरू होती है…खुदगर्जी के चक्कर में यहां भाइयों में भी दीवार खिंचनी शुरू हो जाती है…चतुर सुजान की तरह छुप कर शह-मात का खेल शुरू हो जाता है…बड़े भाई की पत्नी सोचने लगती है कि उसके पति ने छोटे भाइयों के लिए इतना कुछ किया लेकिन अब वो उन दोनों का वैसा सम्मान नहीं करते जैसा कि उन्हें करना चाहिए…


छोटे भाई की पत्नी महसूस करने लगती है कि उसके पति पर छोटा होने की वजह से घर में सब हुक्म चलाते रहते हैं और उसका कोई सम्मान नहीं है…ऐसे में वो सोचने लगती है कि बड़े भाइयों की पत्नियों के आदेश को वो क्यों हर वक्त माने…अब जब रोज़ घर में ऐसी खिचखिच शुरू हो जाती है तो घर के सबसे बड़े सदस्य यानि पिता सोचते हैं कि अब वक्त आ गया है वो अपनी संपत्ति का बेटों में बंटवारा कर दें…सब अलग-अलग रहें और एक-दूसरे की ज़िंदगी में किसी का दखल न हो…इससे कम से कम सब शांति के साथ तो रह सकेंगे…


पिता संपत्ति का बंटवारा कर देते हैं…लेकिन साथ ही ये सवाल उठता है कि पिता अब कौन से बेटे के साथ रहें…बड़ा भाई अपनी पत्नी से सलाह करता है…बड़े भाई की पत्नी समझाती है कि वो पिता को कैसे साथ रख सकते हैं, उनकी अपनी पांच बेटियां हैं…वो ये भी कहती है कि बाबूजी के सिर्फ हाथ-पैर ही नहीं है, पेट भी है…


मझले बेटे की पत्नी भी उसे राय देती है कि जिंदगी भर के लिए गले में ढोल बांधने से अच्छा है कि एक बार बुराई मोल ले ली जाए…आज बाबूजी चल फिर सकते हैं…कल खटिया भी पकड़ लेंगे…न बाबा न मैं ये सब चक्कर नहीं झेल सकती…


पिता ये सब देखते रहते हैं लेकिन कुछ कहते नहीं…बस अपने बचपन के दोस्त से कहते हैं कि घर में बूढ़ा पिता ही एक ऐसी संपत्ति है जिसे सारे बेटे खुशी-खुशी एक दूसरे को दे देना चाहते हैं…


अगले दिन पिता बेटों से पूछता है कि उन्होंने उसके बारे में क्या फैसला किया…इस पर बड़ा और मझला बेटा जवाब देते हैं कि सबसे छोटे भाई को पिता के मार्गनिर्देशन की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, इसलिए वो उसके साथ ही रहें…पिता सबसे छोटे बेटे के साथ ही रहने लगते हैं…ज़मीन का एक छोटा टुकड़ा अपने पास रखने के अलावा सारी संपत्ति तीनों बेटों में बांट देते हैं…सबसे छोटे बेटे की पत्नी सोचती है …पूरी बिरादरी में मेरी प्रशंसा होगी कि सबसे छोटी बहू ने ही पिता को साथ रखने के लिए हामी भरी…


छोटे बेटे के साथ रहते हुए शुरू के कुछ दिन तो सब ठीक चलता है…लेकिन फिर…

(जारी है- कल पढ़िएगा दूसरी किस्त)