डॉ अनवर जमाल भाई ने ई-मेल से एक लिंक भेजा…आप क्या जानते हैं हिंदी ब्लॉगिंग की मेंढक शैली के बारे में ? Frogs online…पढ़ा तो व्यंग्य में धार लगी…खास तौर पर इन पंक्तियों में…इन सब कोशिशों के बावजूद अपने कुएं से बाहर के किसी इंसान ब्लॉगर की नकेल उनके (मेंढकों) हाथ न आ सकी…तब उन्होंने टर्रा कर बहुत शोर मचाया और सोचा कि इंसान शायद इससे डर जाये लेकिन जब बात नहीं बनी तो वे समझ गए कि ‘इन चेहरों को रोकना मुमकिन नहीं है…’ इस बार भी उनसे सहमत वही थे जो उनके साथ कुएँ में थे…इंसान ने कुएं की मुंडेर से देख कर उनकी हालत पर अफ़सोस जताया और हिंदी ब्लॉगिंग को मेंढकों की टर्र टर्र से मुक्त कराने के लिए उसने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया…
डॉ जमाल की इन पंक्तियों को पढ़कर एक किस्सा भी याद आ गया…अब ये किस्सा ब्लॉगिंग से जुड़ता है या नहीं, ये तय करना आप पर ही छोड़ता हूं…
एक बार जवाहरलाल नेहरू आगरा में मानसिक रोगी केंद्र का निरीक्षण करने पहुंचे…सुपरिटेंडेंट नेहरू जी को केंद्र का दौरा कराते हुए सारी जानकारी देते जा रहे थे…जब मानसिक रोगियों से मिलने का वक्त आया तो नेहरू जी ने सुपिरटेंडेंट को कुछ भी न बोलने का इशारा किया…मानसिक रोगियों में जिसे सबसे ‘अक्लमंद’ माना जाता था, उसे नेहरू जी से मिलवाने के लिए सबसे आगे खड़ा किया गया था…नेहरू जी ने उसे देखा था मुस्कुरा कर अपना हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ा दिया…साथ ही नेहरू जी ने प्यार से कहा…पहचाना मुझे, मैं हूं जवाहरलाल नेहरू…इस देश का प्रधानमंत्री…इस पर जो ‘अक्लमंद’ आगे खड़ा था, उसने कहा…चल-चल लग जा लाइन में, यहां पहली बार जो भी आता है वो ‘जवाहरलाल नेहरू’ ही होता है…थोड़े दिन यहां रह कर सही हो जाता है…
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