महफूज़ के अंदर भी है रजनीकांत…खुशदीप

कभी सुख, कभी दुख,
यही ज़िंदगी है,
ये पतझड़ का मौसम,
घड़ी दो घड़ी है,
नए फूल कल फिर,
डगर में खिलेंगे,
उदासी भरे ये दिन,
कभी तो हटेंगे…


कभी धूप तो कभी छांव…कभी खुशी तो कभी गम…इसी का नाम ज़िंदगी है…रात के बाद दिन…अंधेरे के बाद उजाला, यही जीवन की रीत है…जाने वालों का हमेशा शोक मनाने से कहीं अच्छा है कि हम उनके आदर्शों को आत्मसात करते हुए उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दें…मेरे पापा स्वस्थ थे तो सब को खूब हंसाते थे, हर वक्त खुशियां बांटते थे…अब उनके जाने के बाद मैं सोच रहा हूं कि उन्होंने क्या सोच कर मेरा नाम खुशदीप रखा…तो लीजिए अब उन्ही को याद करते हुए मैं भी दोबारा स्लॉग ओवरिया फॉर्म में लौट रहा हूं…

शुरुआत करता हूं अपने महफूज़ मियां से…जनाब ने लखनऊ के संजय गांधी पीजी मेडिकल कालेज के अस्पताल में भी अपना जलवा बिखेर रखा है…डॉक्टर्स को भी अपना मुरीद बना रखा है…एक युवा डॉक्टरनी साहिबा को तो खास तौर पर…खैर ये कहानी तो महफूज़ अपने आप ही सुनाएगा…आज मैं बात करूंगा महफूज़ के अंदर छिपे रजनीकांत की…अगर न्यूटन जिंदा होते और जिस तरह रजनीकांत को फिजीक्स के सारे रूल्स तोड़ते देख खुदकुशी कर लेते, कुछ ऐसा ही आलम महफूज़ मियां का है…

महफूज़ के कुछ सुपरमैनी गोल्डन रूल्स-

गोली महफूज़ को लगती है तो महफूज़ का कुछ नहीं बिगड़ता, अंतिम संस्कार गोली का होता है…


महफूज़ घड़ी नहीं पहनता…बल्कि खुद डिसाइड करता है कि टाइम कितना होना चाहिए…


महफूज़ की बिल्डिंग के बेसमेंट में भी टेरेस होता है…


एक बार महफूज़ ने फुटबॉल को आसमान में किक किया था…वो फुटबॉल प्लूटो के तौर पर सूरज का चक्कर काट रही है…


महफूज़ अपने चार्जर को मोबाइल से चार्ज कर सकता है…


महफूज़ को जब विदेश जाना होता है तो वो सबसे ऊंची बिल्डिंग से छलांग लगाता है और फिर इंतज़ार करता है कि पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने का…


महफूज़ के रजनीकंतिया रूल्स कल की पोस्ट में भी जारी रहेंगे…