रवीश कुमार जी ने कस्बा ब्लॉग में अपराध का नारीवाद शीर्षक से एक फोटो-पोस्ट हाल ही में डाली थी…उसमें हरिद्वार में मनसा देवी मंदिर के बाहर एक सूचनात्मक बोर्ड का फोटो लगाया गया था, वही फोटो यहां रिपीट कर रहा हूं…
अब आपको बताता हूं ये शायद आपके भी काम की चीज़ हो…अगर आप दिल्ली आकर मेट्रो की सवारी करते हैं या भविष्य में करने का इरादा रखते हैं तो सतर्क रहिएगा…अभी हाल ही में यहां महिलाओं का एक गैंग पकड़ा गया…इस गैंग की महिलाएं ज़्यादा भीड़ वाले रूट पर छोटे बच्चों को गोद में लेकर सफ़र करती थी…इनका अपराध का तरीका भी बड़ा गज़ब था…ये शिकार ताड़ कर छोटे बच्चे को बिल्कुल साथ लाकर चिपका देती थीं…भीड़ की वजह से आप ऐतराज भी नहीं कर सकते…फिर बच्चा तो बच्चा ही है…कभी वो आपको हाथ मारेगा और कभी पैर…तीन चार मिनट में ही आप इसे नॉर्मल मानकर नज़रअंदाज़ करना शुरू कर देंगे…बस इसी मौके की तो शातिर महिलाओं को तलाश रहती थी…आप ज़रा से असावधान हुए नहीं कि आपकी जेब से पर्स या मोबाइल गया…दरअसल जब आप की जेब की सफाई हो रही होती है तो आपको यही लगता रहेगा कि वही बच्चा आपको छू रहा है…इसलिए फिर आगाह करता हूं कि कभी दिल्ली आएं तो मेट्रो पर चौकस होकर सफ़र कीजिएगा…
अब ये समाज है…यहां महिलाओं की भी आधी आबादी है…इसलिए जिस तरह पुरुष अपराधी हो सकते हैं, वैसे ही महिलाएं भी हो सकती हैं…ये तय है कि अपराध जगत में महिलाओं का अनुपात पुरुषों से बहुत कम होता है…लेकिन ऐसा नहीं कि महिलाएं अपराधी हो ही नहीं सकतीं…ऐसे में जिस तरह मेट्रो को लेकर मैं आपको आगाह कर रहा हूं, वैसे ही मनसा देवी पर उस बोर्ड के ज़रिए किया गया है...
रवीश जी ने अपनी पोस्ट में चोरी का जेंडर शब्द भी इस्तेमाल किया था…उस पोस्ट पर अपराध की मनोस्थिति को भी नारी विमर्श से जोड़ने के संदर्भ में टिप्पणी आई थी…वो सिर्फ फोटो पोस्ट थी, इसलिए सूचना वाले बोर्ड को देखकर ही टिप्पणियां की गई…एक टिप्पणी मे उस फोटो को दिखाए जाने के औचित्य पर ही सवाल उठा दिया गया…मैं अपनी इस पोस्ट के ज़रिए यहां किसी बहस को जन्म नहीं देना चाहता…सिर्फ यही कहना चाहता हूं कि हर चीज़ को पुरुष और नारी के चश्मे से देखना सही नहीं होता…अपराधी अपराधी होता है, महिला या पुरुष के रूप में उसका वर्गीकरण करना सही नहीं….और कहीं कुछ हास्यबोध से कोई बात कही जाती है तो उसका उसी शैली में जवाब देना ही अच्छा होता है…ज़रूरी नहीं हर बात को गंभीर चिंतन की ओर मोड़ दिया जाए….
अरे मारा पापड़ वाले को…आप कह रहे होंगे कि शीर्षक तो मैंने मक्खन की जेब पर डाला है और क्या अंट-शंट लिखे जा रहा हूं…मक्खन की चिंता है…तो देर किस बात की…चलिए न स्लॉग ओवर में….
स्लॉग ओवर
मक्खन काम पर जाने के लिए तैयार हो रहा था…पर ये क्या जेब से पर्स ही गायब…मक्खन हैरान-परेशान…बड़ा दिमाग पर ज़ोर लगाया….कहां गया…कहीं गिर तो नहीं गया…अरे कल मेट्रो से कनॉट प्लेस तक गया था…मेट्रो में ही तो नहीं किसी ने हाथ की सफ़ाई दिखा दी….मक्खन इसी उधेड़बुन में था कि ढूंढू तो ढ़ूंढू कहां….कुछ नहीं सूझा तो किचन में काम कर रही मक्खनी को आवाज लगाई…मक्खनी आई तो वो खुद ही परेशान दिखाई दी…मक्खन ने पूछा…कहीं मेरा पर्स तो नहीं देखा.…मक्खनी…ओ जी, मैं आपके पर्स की क्या जानूं…मेरी तो खुद सोने की अंगूठी गुम हो गई है….उंगली में ढीली हो रही थी…पता नहीं कहां गिर गई…कल से ढूंढ-ढूंढ कर थक गई हूं….मक्खन ने ये सब सुनने के बाद धीरे से कहा…तुम्हारी अंगूठी तो मेरी जेब में मिल गई है….
( डिस्क्लेमर- स्लॉग ओवर को निर्मल हास्य की तरह लें…कृपया इसे कोई और रुख नहीं दीजिएगा)
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