या
लखनऊ हम पर फिदा, हम फिदा-ए-लखनऊ,
किसमें है दम इतना, कि हम से छुड़वाए लखनऊ…
वाकई लखनऊ की बातें लखनऊ वाले ही जानते हैं…इस शनिवार और इतवार को नवाबों की नगरी नखलऊ सॉरी लखनऊ जाना हुआ…एक शादी में शिरकत करनी थी…एक दिन सगन सेरेमनी थी, दूसरे दिन शादी का समारोह था…लखनऊ स्टेशन के पास ही होटल में कमरा बुक था…सगन-शादी का अरेंजमेंट भी आस-पास ही होटलों में था…इसलिए ज़्यादा दिक्कत की बात नहीं थी…सोचा यही था कि शाम रिश्तेदारों के बीच गुज़रेगी और दिन ब्लॉगर भाइयों के साथ बीतेगा…अब ये भरोसा भी था कि महफूज़ लखनऊ में बैठा है, इसलिए सब ब्लॉगरजन से मिलवाने का बंदोबस्त करा ही देगा…मैं इतना निश्चिंत था कि किसी और ब्लॉगर का फोन नंबर जानने की कोशिश भी नहीं की…लेकिन कहते हैं न हर तज़ुर्बा आदमी को और समझदार बनाता है…महफूज़ को करीब डेढ़ महीने पहले से ही मेरे लखनऊ आने का पता था…लेकिन वो हैं न man proposes god disposes…महफूज़ मियां ठहरे महफूज़ मियां…मैंने दिल्ली से ट्रेन चलने के बाद महफूज़ को फोन मिलाया तो पता चला जनाब खुद दिल्ली आए हुए हैं…लेकिन जनाब ने ताल ठोककर कहा कि वो अगले दिन शताब्दी से लखनऊ पहुंच जाएंगे…मैंने भी सोचा चलो कल सुबह आराम कर लूंगा, दोपहर बाद महफूज़ लखनऊ पहुंच जाएगा तो रवींद्र प्रभात जी, ज़ाकिर अली रजनीश भाई, प्रतिभा कटियार, मिथिलेश दूबे, सलीम और बाकी सब ब्लॉगरजन से भी मुलाकात हो जाएगी…
अगले दिन दोपहर तक महफूज़ का कोई अता-पता नहीं चला तो झख मारकर मैंने ही फोन मिलाया…पता चला कि प्यारे अभी तक दिल्ली में ही फंसे हुए हैं…शताब्दी मिस हो गई है…महफूज ने ये भी बताया कि वो दोपहर दिल्ली से कोई ट्रेन पकड़कर रात तक लखनऊ पहुंच जाएगा…महफूज़ की बातों से मुझे अचानक शोले फिल्म का एक सीक्वेंस याद आ गया…गब्बर की एंट्री से ठीक पहले ठाकुर के घर का दृश्य दिखाया गया था…ठाकुर का बेटा बाहर शहर जाने की बात करता है तो पोता साथ जाने की जिद करता है…बच्चे की मां टोकती है कि वहां रेलगाड़ियां होती हैं…इस पर ठाकुर का बेटा हंसते हुए कहता है कि हां रेलगाड़ियों को तो दुश्मनी है तुम्हारे बेटे से…जहां भी ये दिखेगा, वहीं पटरियां छोड़कर तुम्हारे बेटे के पीछे दौड़ने लगेंगी…तो यही हाल कुछ अपने महफूज़ मास्टर का भी है…ट्रेनों को इनसे न जाने क्या दुश्मनी है जहां इनका नाम सुना नहीं कि खुद ही मिस हो जाती हैं…खैर छोड़िए मैंने सोचा, महफूज़ तो जब आएगा सो आएगा, अभी तो अपना हाथ जगन्नाथ बनो…
तब तक मैं साइबर कैफे से सतीश सक्सेना भाई की पोस्ट पर कमेंट के ज़रिए खुद के लखनऊ में होने की बात लिख चुका था…मेरे सामने समस्या ये थी कि लखनऊ में रवींद्र प्रभात जी या ज़ाकिर भाई से संपर्क कैसे करूं…मिथिलेश का जो नंबर था वो लगातार स्विच ऑफ आ रहा था…खुद पर गुस्सा भी आया कि आड़े वक्त के लिए क्यों सबके फोन नंबर संभाल कर नहीं रखता…मैंने मैनपुरी शिवम मिश्रा को फोन मिलाकर रवींद्र जी और ज़ाकिर भाई के सेल नंबर लिए…अभी ये नंबर लिए ही थे कि मेरे सेल पर डॉ अमर कुमार जी की कॉल आ गई…डॉक्टर साहब सतीश भाई की पोस्ट पर मेरे कमेंट के ज़रिए जान चुके थे कि मैं लखनऊ में हूं…उन्होंने बड़े अपनत्व से कहा कि मैं गाड़ी भेज रहा हूं, रायबरेली लखनऊ से सिर्फ 72 किलोमीटर दूर है, आकर मिल जाओ…सच पूछो तो मेरी भी डॉक्टर साहब के दर्शन की बड़ी इच्छा थी, लेकिन शादी की ज़िम्मेदारियों की वजह से ज़्यादा देर तक कहीं आ-जा नहीं सकता था…मैंने डॉक्टर साहब से अगली बार लखनऊ आने पर ज़रूर रायबरेली पहुंचने के वादे के साथ अपनी मजबूरी जताई…डॉक्टर साहब मेरी परेशानी समझ गए…इसके बाद मैंने ज़ाकिर भाई और रवींद्र प्रभात जी को फोन मिलाया…लगा ही नहीं दोनों से पहली बार बात कर रहा हूं…दोनों ने ही शाम को मेरे होटल पहुंचने के लिए रज़ामंदी दी…जब तक ये बात हो रही थी चार बज चुके थे…सगन सेरेमनी का टाइम शाम सात बजे का था…मेरा सूट भी प्रेस नहीं था…मैंने सोचा रवींद्र जी और ज़ाकिर भाई से मुश्किल से आधा घंटा ही मुलाकात हो पाएगी…खैर मैं जल्दी सूट प्रेस कराने के लिए बाज़ार दौड़ा…मैं हाथ में हैंगर में टंगा सूट लेकर वापस होटल आ ही रहा था कि सीढ़ियों से रवींद्र जी उतरते दिखाई दिए…ब्लॉग की फोटो से कहीं ज़्यादा स्मार्ट…काली जैकेट में और भी डैशिंग लग रहे थे...रवींद्र भाई जिस गर्मजोशी से मुझे गले मिले, वो मैं भूल नहीं सकता…
मैंने यही सोचा ऊपर तो कमरों में शादी का हो-हल्लड़ मचा है, इसलिए कहीं नीचे ही रेस्टोरेंट में बैठकर आराम से बातें करते हैं…रवींद्र जी ने भी कहा, नीचे कार पार्किंग की समस्या है…टो करने वाले गाड़ी उठा कर ले जाते हैं, इसलिए ऐसी किसी जगह पर बैठना ही सही रहेगा, जहां से गाड़ी दिखती भी रहे…ऊपर वाले की मेहरबानी से नाका हिंडोला चौराहे पर ही एक ओपन रेस्तरां था- हरियाली फास्ट फूड कॉर्नर…वहीं हम दोनों ने डेरा जमा लिया…रवींद्र जी ने बताया कि ज़ाकिर भाई भी आते ही होंगे…थोड़ी देर बाद ही ज़ाकिर भाई भी हमें ढूंढते-ढांढते पहुंच ही गए…ज़ाकिर भाई ने बताया कि मिथिलेश भी थोड़ी देर में पहुंच जाएगा…खैर हम तीनों में ब्लॉगिंग के साथ दुनिया-जहां की चर्चा होने लगी…रवींद्र भाई ने बताया कि अप्रैल में वो लखनऊ में ब्लॉगर्स के लिए एक बड़ा कार्यक्रम करने की सोच रहे हैं…मैंने अनुरोध किया कि जब भी प्रोग्राम करें बस शनिवार-रविवार का ज़रूर ध्यान रख लीजिएगा…रवींद्र भाई ने मेरा अनुरोध मान लिया…तब तक मिथिलेश भी अपने दोस्त शिवशंकर के साथ आ पहुंचा…इस बीच मिथिलेश की डॉ अरविंद मिश्रा जी से फोन पर बात हुई…..मिश्रा जी ने चिरपरिचित अंदाज़ में कहा कि शाम-ए-अवध का मज़ा लिया जा रहा है…
वाकई बातों में टाइम का कुछ पता ही नहीं चल रहा था…मैंने तब तक फास्ट फूड सेंटर वाले से जाकर पूछा कि खाने के लिए तो बहुत कुछ दिख रहा है लेकिन पीने के लिए क्या-क्या है…गलत मत समझिए, मैं रेस्तरां के बोर्ड पर लिखे लस्सी, बादामी दूध, कॉफी की बात कर रहा था…अब उस रेस्तरां से जो जवाब मिला, वो माशाअल्लाह था, बोला पीने के लिए बताशों का पानी है, चलेगा क्या…मैंने हाथ जोड़ा और चुपचाप सीट पर जाकर बैठ गया…तभी रवींद्र भाई ने टिक्की चाट का ऑर्डर दे दिया…टिक्की के तीखे जायके के साथ बातों में और भी रस आने लगा..महफूज़ की बात चली तो मिथिलेश ने बताया कि वो अब कई महीनों से लखनऊ में है लेकिन महफूज़ मियां उसके हाथ नहीं लगे हैं…मैंने सोचा मुझे तो लखनऊ में दो ही दिन रहना है, फिर महफूज़ मेरे हाथ कहां से लगता….इन्हीं बातों के बीच पत्नीश्री की मेरे सेल पर कॉल आ चुकी थी कि जनाब कहां हो, सगन के लिए तैयार होना है या नहीं…लेकिन ब्लॉगरों की महफिल चल रही हो तो फिर दूसरी बातें कहां याद रहती हैं…ये तो उस रेस्तरां वाले ने ही आखिर आकर हमें टोका कि भाई जी आप सीट खाली करो तो उसके कुछ और ग्राहक भी एडजस्ट हो सकें…हमने अब उठने में ही अपनी बेहतरी समझी…रवींद्र भाई ने चलते चलते मुझे ये भी कहा कि अगले दिन जब भी मैं खाली हूं तो उन्हें फोन कर दूं…वो गाड़ी भेजकर मुझे बुलवा लेंगे…खैर सबने विदा ली…लखनऊ का किस्सा ज्यादा ही लंबा हो चला है…बाकी कल की पोस्ट तक बचा लेता हूं…कल की पोस्ट में बताऊंगा कि कैसे मैंने लखनऊ में दो सांडों को चूहा बनते देखा…