हैदराबाद में गुरुवार शाम को जो हुआ, उसी रक्तरंजित घटनाक्रम से पूरी तरह पटे हुए अख़बार अब तक आपके हाथों में आ चुके होंगे…ट्विन ब्लास्ट के बाद से ही कुछ चिरपरिचित शब्दों की गूंज टीवी के ज़रिए आपके कानों में गूंज रही होगी…इंडियन मुजाहिद्दीन, लश्कर-ए-तैयबा, लोकल मॉ़ड्यूल्स, हाफ़िज सईद, टाइमर, बाइक बम, टिफ़िन बम, रेकी, अलर्ट, इंटेलीजेंस इनपुट, इंटेलीजेंस फेल्योर आदि आदि…
हर बार की तरह इस बार भी केंद्र सरकार की ओर से गृह मंत्री ने ब्लास्ट के बाद बयान देने में देर नहीं लगाई कि राज्य सरकारों को पहले से ही अलर्ट कर दिया गया था…मानों केंद्र ने तो अपनी ज़िम्मेदारी निभा दी थी, अब ब्लास्ट नहीं रोके जा सके तो ये सवाल राज्य सरकार या वहां की पुलिस से पूछा जाना चाहिए…गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने ये बताने में भी वक्त नहीं गंवाया कि केंद्र की ओर से एनएसजी, एनआईए जैसे तमाम स्पेशलाइज्ड दल-बल भी ब्लास्ट की ख़बर मिलते ही हैदराबाद रवाना कर दिए गए…ये बता कर भी उन्होंने अहसान किया कि हवाई जहाज़ मिला तो वो भी गुरुवार आधी रात को हैदराबाद में मौके पर होंगे….और हां ब्लास्ट में जो मारे गए, उनके परिवारों के लिए दो-दो लाख रुपये के मुआवज़े की औपचारिकता पूरी करने में भी सरकार ने तत्परता दिखाई…
यानि केंद्र सरकार ने अपनी तरफ़ से हर वो अनुष्ठान पूरा कर दिया जो हर ब्लास्ट के बाद वो करती आयी है…अभी विपक्ष की बारी बाक़ी है…बीजेपी अब संसद में सरकार से ये सवाल पूछती नज़र आएगी कि आख़िर कब तक बर्दाश्त करता रहेगा देश ये सब? यानी शुरू होगा ब्लेम-गेम…
थोड़े दिन हैदराबाद ब्लास्ट का आफ़्टर-इफैक्ट पूरे देश में महसूस किया जाता रहेगा…प्रमुख शहरों में दो-तीन दिन तक पुलिस भी आपको काफ़ी मुस्तैद दिखाई देगी…ब्लास्ट की जांच को लेकर तरह तरह की थ्योरीज़ मीडिया के ज़रिए आप तक पहुंचेंगी..धीरे-धीरे एक हफ्ते तक सब शांत हो जाएगा…हैदराबाद के ये सीरियल ब्लास्ट भी बस एक काली तारीख बन कर रह जाएंगे…फिर हम हाइबरनेशन स्लीप में चले जाएंगे तब तक, जब तक कि कहीं अगला ब्लास्ट नहीं होता…
दरअसल हमारी (यानी भारत देश की) सबसे बड़ी कमज़ोरी ये है कि जब सिर पर पड़ती है, तभी हम उस समस्या का समाधान सोचते है…पैनिक बटन दबने पर ही हम पेन-किलर ढूंढते हैं…सामान्य अवस्था में जब हम ठंडे दिमाग़ से इस तरह के ख़तरों से निपटने के लिए कारगर नीति बना सकते हैं, तब हम दूसरी ही गपड़चौथ में मशगूल रहते हैं…उस वक्त हम राजनीतिक फायदे के लिए आतंकवाद का रंग ढ़ूंढते रहते हैं…गृह मंत्री शिंदे को आतंकवाद में भगवा नज़र आता है…वहीं संघ वाले सवाल दागते रहते हैं कि बेशक हर मुस्लिम आतंकवादी नहीं होता लेकिन हर आतंकवादी मुस्लिम क्यों होता है…
आतंकवाद को किसी ना किसी रंग से जोड़ कर देखना ही आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर देश का बंटाधार कर रहा है…इस मुद्दे पर हमारा पूरा देश एक होकर वैसा नज़रिया क्यों नहीं दिखा सकता जैसा कि 9/11 के बाद अमेरिका ने दिखाया था…इसी मुद्दे पर आपकी राय जानने के लिए तीन सवाल रख रहा हूं,
1. सरकार ब्लास्ट होने के बाद ही फायर-फाइटर की भूमिका में क्यों दिखाई देती है? ऐसी प्रो-एक्टिव अप्रोच क्यों नहीं अपनाती कि आग़ लगने की नौबत ही ना आए?
2. आतंक के इपिसेंटर पाकिस्तान को लेकर हमारी स्ट्रेटेजी इतनी सॉफ्ट क्यों? इस पर क्यों राष्ट्रीय सहमति नहीं बनायी जाती?
3. आतंकवाद से लड़ने का जो हमारा अप्रेटस है, उसमें इसराइल जैसे हॉर्ड-कोर प्रोफेशनल्स को क्यों नहीं शामिल किया जाता?
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