बेटियों को अंतिम संस्कार का अधिकार क्यों नहीं…खुशदीप

जुड़वा बच्चों में बड़ा कौन…इस सवाल पर पंडित राधेश्याम शर्मा का मत बताने से पहले कुछ और अहम बात…मेरी कल की पोस्ट पर आई टिप्पणियों से एक बात साफ़ हुई कि माता-पिता के अंतिम संस्कार का अधिकार उसी संतान को होना चाहिए, जिसने उनका सबसे ज़्यादा ध्यान रखा हो…इसमें बेटे या बेटी जैसा भी कोई भेद नहीं होना चाहिए…

लेकिन ये कैसे तय होगा कि दुनिया से जाने वाले की सेवा सबसे ज़्यादा किस संतान ने की…क्योंकि जाने वाला तो चला गया, वो ये बताने तो आएगा नहीं…इसका सबसे अच्छा इलाज है कि अपने जीवन-काल में ही वसीयतनामे की तरह वो ये भी बता दे कि कौन बेटा या बेटी चिता को अग्नि दे…

मैं खास तौर पर धीरू भाई को बधाई दूंगा कि जिन्होंने अपने कमेंट में कहा कि उनकी बेटी को ही ये अधिकार होगा…ये ताज़्जुब वाली बात ही है कि अगर किसी की संतान सिर्फ लड़की होती है तो भी उसके अंतिम संस्कार का अधिकार भाई, भतीजे या पंडित को दे दिया जाता है लेकिन लड़की को नहीं…क्यों भई, ऐसा क्यों…बेटी को ये अधिकार क्यों नहीं…

दुनिया तेज़ी से बदल रही है…और जो कौमें बदलते वक्त के साथ कदमताल नहीं करतीं वो पिछड़ती जाती हैं…बरसों से चली आ रही रूढ़ियों में अगर कुछ गलत और भेदभावकारी है तो उसे क्यों नहीं बदलने के लिए हम कदम उठाते…मुझे ये देखकर ताज़्जुब होता है कि कई जगह महिलाओं को शमशान घाट जाने की इजाज़त नहीं होती…क्यों भई, क्या जाने वाले के लिए महिलाओं का दुख पुरुषों से कम होता है क्या…फिर वो क्यों नहीं अपने किसी बिछुड़े का अंतिम संस्कार देख सकतीं…

चलिए अब आता हूं जुड़वा बच्चों में कौन बड़ा के सवाल पर…पंडित राधेश्याम शर्मा जी के मुताबिक जुड़वा बच्चों में जो बाद में दुनिया में आएगा, वही बड़ा माना जाएगा…पंडित जी ने इसके लिए फलित ज्योतिष का हवाला भी दिया, जो मुझे ज़्यादा समझ नहीं आया…हां जब उन्होने सीधी भाषा में मिसाल देकर बात समझाई तब मुझे उसमें लॉजिक नज़र आया…पंडित जी का कहना था कि एक ऐसी शीशी लीजिए, जिसमें दो कांच की गोलियां ही आ सकती हों…अब उनमें वो गोलियां एक-एक कर डालिए…गोलियों को बाहर निकालेंगे तो पहले वाली गोली बाद में और दूसरी वाली गोली पहले निकलेगी...कुल मिलाकर उनका कहने का तात्पर्य यही था कि गर्भ में जो पहले आया, वही बड़ा माना जाएगा…इस तर्क पर पिछली पोस्ट में पहले ही कुछ टिप्पणियों में सवाल उठाया जा चुका है…अब पंडित जी का मत सही है या नहीं, ये तो फलित ज्योतिष के जानकार ही बता सकते हैं….

खैर छोड़िए अब इस गंभीर मसले को…चलिए स्लॉग ओवर से कुछ लाइट हो जाइए…

स्लॉग ओवर

एक बच्चा…दुनिया के अमीर से अमीर आदमी भी मेरे पिता के आगे कटोरा लेकर खड़े रहते हैं…

दूसरा बच्चा…क्यों तेरे पिता क्या राजा है या वर्ल्ड बैंक के चेयरमैन हैं…

पहला बच्चा….नहीं तो…

दूसरा बच्चा…फिर क्यों ढींग मार रहा है…आखिर तेरे पिता का नाम क्या है….

पहला बच्चे ने जवाब दिया…

बिट्टू गोलगप्पे वाला…

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ब्लॉ.ललित शर्मा

वैदिक काल में वेद पाठ से लेकर सभी पुरुषोचित कार्य करने के लिए स्त्री को स्वतंत्रता थी। लेकिन महाभारत के पश्चात पौराणिक काल में इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
अच्छी पोस्ट खुशदीप भाई
राम राम

शरद कोकास

हमारे शहर के बुज़ुर्ग साहित्यकार श्री छेदीलाल गुप्त जी ने अपने जीते जी यह कह दिया था कि उनकी अर्थी को कान्धा उनके चार पुत्र नही बल्कि पुत्रवधु देंगी । उनकी बहुओँ ने ही उनका अंतिम संस्कार किया । पुत्र भी सम्मिलित रहे

भारतीय नागरिक - Indian Citizen

सभी लोगों ने सार्थक बातें ही कहीं हैं. सनातनियों में यही अच्छाई है कि वे एक या अनेक किताबों से बंधकर नहीं चलते…

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह }

बेटी को वही अधिकार है जो बेटो को . दुख इस बात का है बेटो को ज्यादा तब्ज्जो मां ही देती है .

ताऊ रामपुरिया

ऐसी गुरू गंभीर बहस मे आप बिट्टू गोलगप्पे वाले को ले आये, हमारा सारा ध्यान तो उधर लगा है, आप बहस करिये हम जब तक गोलगप्पे गप करते हैं.:)

रामराम.

ताऊ रामपुरिया

बहुत सार्थक रही आपकी यह बहस, फ़ैसला बिल्लोरे जी की बात से सहमति अनुसार हो ही गया है.

रामराम.

उस्ताद जी

6/10

सुन्दर विमर्श
हिन्दू धर्म शास्त्रों/वेदों में कहीं भी महिलाओं के लिए अंतिम संस्कार की क्रियायों में शामिल होने की मनाही नहीं है. मैं स्वयं एक ऐसे अंतिम संस्कार में शामिल हो चुका हूँ जहाँ दो बहनों ने अपने पिता को मुखाग्नि दी थी.
एक ऐसा अंतिम संस्कार भी देखा है जहाँ दो पुत्रों के होते हुए भी दामाद ने मुखाग्नि दी, क्योंकि ऐसी मृतक की इच्छा थी.
समय बदल रहा है .. अब तो देश के कई जगहों से ऐसी ख़बरें सुनने में आई हैं जहाँ लड़की ने जिद करके अपनी माँ/बाप का अंतिम संस्कार किया.
स्त्रियों का मन कोमल और भावुक होता है. श्मशान घाट के वातावरण का स्त्री के चेतन/अवचेतन मन पर बुरा असर न पड़े, सिर्फ इसीलिए उनको रोका जाता रहा है.

kunwarji's
14 years ago

राम राम जी,

जहा इतने अच्छे-बुरे इतने बदलाव हो चुके है वहा एक ये भी हो जाए तो क्या गलत हो जाएगा…

कुंवर जी,

shikha varshney
14 years ago

खुशदीप जी ! ये एक ऐसा विषय है जो मेरे ज़हन में हर पल घूमता रहता है .आजकल पंडित या शास्त्र लड़कियों को यह अधिकार देने से कतई मना नहीं करते पर आपके अपने ही लोग बाधा बनते हैं.मेरे पापा की म्रत्यु के समय भी यही हुआ .और अब मेरी मम्मा कहती हैं कि वसीयत में लिख जाउंगी कि मेरा अंतिम संस्कार मेरी बेटियां करें.
तो मैं अजीत जी की बात से भी सहमत हूँ पर मेरा मानना है कि लडकियां अगर चाहें तो उन्हें मनाही नहीं होनी चाहिए.

vandana gupta
14 years ago

वक्त के साथ सब बदल रहा है बस बदलाव बहुत कम हो रहा है और इसके लिये हम सब को ही पहल करनी होगी तभी बदलाव का असर होगा। अब बेटियों को बेटे के बराबर दर्जा मिलना शुरु हो गया है चाहे उस तादाद मे नही जितना होना चाहिये …………ये भी होने लगेगा बदलाव धीरे धीरे ही आता है।

प्रवीण पाण्डेय

बेटियों को भी अधिकार हो।

P.N. Subramanian
14 years ago

हमारा धर्म बहुत ही फ्लेक्सिबल है. समय के साथ बदलाव भी आना ही चाहिए. बिल्लोरे जी से सहमत. .

निर्मला कपिला

गिरीश जी की बात एकदम सही है मैने तो अपनी बेटिओं से कह दिया है कि मुझे मुखाग्नि वही दें चाहे कोई कुछ भी कहे। उस समय ये कायदे बनाने के लिये कुछ सामाजिक परिवेश ऐसा था जैसे लडकियों को पर्दा करना पडता और रज्स्वला औरत धार्मिक अनुष्ठान मे भाग नही ले सकती बाल मुँडवाने की प्रथा आदि। दूसरी बात घर मे आये महमानों के लिये औरतों का घर का काम बढ जाने से,आदि ऐसे कई कारण रहे होंगे लेकिन आज हर कारण का हल मौजूद है। बाकी दैनिक कर्म कान्ड कौन सा सभी शास्त्रों के अनुसार ही करते हैं फिर शास्त्रों मे भी इस कर्म की मनाही नही है।। समय और परिस्थिति के अनुसार बदलाव तो होता ही आया है। आज मेरे मन की बात कह दी। आशीर्वाद।

Khushdeep Sehgal
14 years ago

वर्ण व्यवस्था हो या समाज के अन्य नियम कायदे सब पुरुष प्रधान समाज की ओर से ही बनाए गए…स्थितियां बदल रही हैं, ये सुखद है…लेकिन महिलाओं पर ये बंदिश क्यों हो कि वो व्यवस्था के मुताबिक घर पर रह कर ही काम करें…अगर कोई महिला चाहती है कि जाने वाले का संस्कार अंतिम पल तक देखे तो उसे इसकी छूट होनी चाहिए…वैसे महिलाएं मानसिक रूप से इतनी मजबूत होती हैं कि अपनी हर ज़िम्मेदारी को बखूबी निभा सकती हैं…

जय हिंद…

अजित गुप्ता का कोना

मैं गिरीश जी की बात का समर्थन करते हुए आगे अपनी बात कहती हूँ कि भारतीय समाज में कार्य विभाजन है। यह विभाजन शारीरिक और मानसिक रचनाओं के कारण है। एक को घर की जिम्‍मेदारी है तो दूसरे को बाहर की। लेकिन किसी भी कार्य के लिए कहीं भी मनाही नहीं है। हिन्‍दु धर्म ही हैं जिसमें मनुष्‍य को वरीयता है ना कि परम्‍पराओं को। वर्तमान में महिलाएं भी शमशान जाने लगी हैं लेकिन मृत्‍यु संस्‍कार में जितना कार्य शमशान में होता है उतना ही घर पर भी होता है। यदि सभी शमशान चले जाएंगे तो घर का कार्य कौन करेगा? हमें हमेशा ध्‍यान रखना होगा कि भारतीय संस्‍कृति परिवार प्रधान है ना कि व्‍यक्तिवादी। इसलिए परिवार को ध्‍यान में रखते हुए ही सारी परम्‍पराओं का निर्माण हुआ है।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

अब यह सम्भव होने लगा है!

संजय कुमार चौरसिया

ab badlav ki jarurat hai,

naresh singh
14 years ago

सचमुच आज इस सामाजिक प्रथा में बदलाव की जरूरत है |रोचक जानकारी हेतु आभार |

Girish Kumar Billore
14 years ago

भैया
समाज ने गलत अवधारणा बना ली है हिन्दू धर्म किसी भी स्त्री को इस संस्कार से रोकता कदापि नही है. इसका विस्तृत विवरण गरुड़ पुराण में दर्ज़ है.इस स्थिति को स्पष्ट रूप से लिखा गया है.कि यदि मृतक की पुरुष संतान न हो तो पत्नि/पुत्रि/मां जो भी सक्षम हो को "अंतिम-संस्कार" का अवसर दिया जावे. वास्तव में नारी की कायिक परिस्थितियों के कारण/अत्यधिक भावुक होने के कारण प्राचीन सामाजिक व्यवस्था में प्रतिबंध समकालीन परिस्थियों की वज़ह से रहा है. जबकि अब इसे भी तोड़ा जा रहा जो बदलाव का संकेत है. वेद इसे कहा प्रतिबंधित करते हैं कोई भी जानकार उदाहरण स्वरूप वेद/रिचा सहित अगर तथ्य प्रस्तुत करते हैं तो स्वागत है. मेरे बेहतर ग्यान के आधार पर सनातन-धर्म जिसमें सामाजिक संस्कारों के लिये जिसे भी जो जिम्मेदारी मिली है उसमें मृतक की संतान को अधिकार प्राप्त है. ना कि पुत्र-पुत्री को . केवल प्राथमिकताएं तय हुईं हैं . कारण नारी का अत्यधिक संवेदन शील होना.तथा उसकी कायिक संरचना की वज़ह से. ताक़ि कोई विपरीत स्थिति का निर्माण न हो जावे. पिछले बरस ही मेरी एक महिला मातहत के पति के देहांत के उपरांत उनकी पुत्री ने अंतिम-संस्कार किया यदि आप चाहें तो इस संबन्ध में विस्तार से जानकारी दी जा सकती है.
मै भी धीरू भैया का अनुशरण करता हूं.

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