आपसे वादा किया था कि आज सुरेश यादव जी का सुनाया प्रेरक प्रसंग आपसे शेयर करूंगा…लीजिए वही प्रसंग…
सुरेश जी के मुताबिक ये जापान की लोककथा है…
जापान के एक राज्य में किसी वक्त क़ानून था कि बुजुर्गों को एक निश्चित उम्र में पहुंचने के बाद जंगल में छोड़ आया जाए…जो इसका पालन नहीं करता था, उसे संतान समेत फांसी की सज़ा दी जाती थी…उसी राज्य में पिता-पुत्र की एक जोड़ी रहती थी…दोनों में आपस मे बहुत प्यार था…उस पिता को भी एक दिन जंगल में छोड़ने का वक्त आ गया…पुत्र का पिता से अलग होने का बिल्कुल मन नहीं था…लेकिन क्या करता…क़ानून तो क़ानून था…न मानों तो फांसी की तलवार पिता-पुत्र दोनों के सिर पर लटकी हुई थी… पुत्र पिता को कंधे पर लादकर जंगल की ओर चल दिया…जंगल के बीच पहुंचने के बाद पुत्र ऐसी जगह रूका जहां पेड़ों पर काफी फल लगे हुए थे और पानी का एक चश्मा भी था…पुत्र ने सोचा कि पिता की भूख-प्यास का तो यहां इतंज़ाम है…रहने के लिए एक झोंपड़ी और बना देता हूं… दो दिन तक वो वहीं लकड़ियां काट कर झोंपड़ी बनाने में लगा रहा…पिता के विश्राम के लिए एक तख्त भी बना दिया…पिता ने फिर खुद ही पुत्र से कहा…अब तुम्हे लौट जाना चाहिए…भरे मन से पुत्र ने पिता से विदाई ली तो पिता ने उसे एक खास किस्म के पत्तों की पोटली पकड़ा दी…
पुत्र ने पूछा कि ये क्या दे रहे हैं..तो पिता ने बताया…बेटा जब हम आ रहे थे तो मैं रास्ते भर इन पत्तों को गिराता आया था…इसलिए कि कहीं तुम लौटते वक्त रास्ता न भूल जाओ…ये सुना तो पुत्र ज़ोर ज़ोर से रोने लगा…अब पुत्र ने कहा कि चाहे जो कुछ भी हो जाए वो पिता को जंगल में अकेले नहीं छोड़ेगा…ये सुनकर पिता ने समझाया…बेटा ये मुमकिन नहीं है…राजा को पता चल गया तो दोनों की खाल खींचने के बाद फांसी पर चढ़ा देगा…पुत्र बोला…अब चाहे जो भी हो, मैं आपको वापस लेकर ही जाऊंगा…पुत्र की जिद देखकर पिता को उसके साथ लौटना ही पड़ा…दोनों रात के अंधेरे में घर लौटे…पुत्र ने घर में ही तहखाने में पिता के रहने का इंतज़ाम कर दिया…जिससे कि और कोई पिता को न देख सके…
पिता को सब खाने-पीने का सामान वो वही तहखाने में पहुंचा देता…ऐसे ही दिन बीतने लगे…एक दिन अचानक राजा ने राज्य भर में मुनादी करा दी कि जो भी राख़ की रस्सी लाकर देगा, उसे मालामाल कर दिया जाएगा…अब भला राख़ की रस्सी कैसे बन सकती है…उस पुत्र तक भी ये बात पहुंची…उसने पिता से भी इसका ज़िक्र किया…पिता ने ये सुनकर कहा कि इसमें कौन सी बड़ी बात है…एक तसले पर रस्सी को रखकर जला दो…पूरी जल जाने के बाद रस्सी की शक्ल बरकरार रहेगी…यही राख़ की रस्सी है, जिसे राजा को ले जाकर दिखा दो..(कहावत भी है रस्सी जल गई पर बल नहीं गए…)…बेटे ने वैसा ही किया जैसा पिता ने कहा था…राजा ने राख़ की रस्सी देखी तो खुश हो गया…वादे के मुताबिक पुत्र को अशर्फियों से लाद दिया गया…
थोड़े दिन बात राजा की फिर सनक जागी…इस बार उसने शर्त रखी कि ऐसा ढोल लाया जाए जिसे कोई आदमी बजाए भी नहीं लेकिन ढोल में से थाप की आवाज़ लगातार सुनाई देती रहे…अब भला ये कैसे संभव था…गले में ढोल लटका हो, उसे कोई हाथ से बजाए भी नहीं और उसमें से थाप सुनाई देती रहे…कोई ढोल वाला ये करने को तैयार नहीं हुआ…ये बात भी उसी पुत्र ने पिता को बताई…पिता ने झट से कहा कि इसमें भी कौन सी बड़ी बात है…पिता ने पुत्र को समझाया कि ढोल को दोनों तरफ से खोल कर उसमें मधुमक्खियां भर दो…फिर दोनों तरफ़ से ढोल को बंद कर दो…अब मधुमक्खियां इधर से उधर टकराएंगी और ढोल से लगातार थाप की आवाज़ आती रहेगी…पुत्र ने जैसा पिता ने बताया, वैसा ही किया और ढोल गले में लटका कर राजा के पास पहुंच गया…ढोल से बिना बजाए लगातार आवाज़ आते देख राजा खुश हो गया…फिर उसे मालामाल किया…लेकिन इस बार राजा का माथा भी ठनका…उसने लड़के से कहा कि तुझे इनाम तो मिल ही गया लेकिन एक बात समझ नहीं आ रही कि क्या पूरे राज्य में अकेला तू ही समझदार है…कुछ राज़ तो है…राज़ बता तो तुझे दुगना इनाम मिलेगा…इस पर लड़के ने कहा कि ये राज़ वो किसी कीमत पर नहीं बता सकता…राजा के बहुत ज़ोर देने पर लड़के ने कहा कि पहले उसे वचन दिया जाए कि उसकी एक मांग को पूरा किया जाएगा…राजा के वचन देने पर लड़के ने सच्चाई बता दी…साथ ही मांग बताई कि उसी दिन से बुज़ुर्गों को जंगल में छोड़कर आने वाले क़ानून को खत्म कर दिया जाए और जो बुज़ुर्ग ऐसे हालत में जंगल में रह भी रहे हैं उन्हें सम्मान के साथ वापस लाया जाए…राजा ने वचन के अनुरूप फौरन ही लड़के की मांग मानते हुए उस क़ानून को निरस्त कर दिया…साथ ही जंगल से सब बुज़ुर्गों को वापस लाने का आदेश दिया…
स्लॉग चिंतन
बुजुर्गों के पास तज़ुर्बे का ख़ज़ाना होता है…हमें उनसे बस सीखना आना चाहिए…ये नहीं कि सीनियर सिटीजन बनते ही बुजुर्गों को हर काम से रिटायर कर दिया जाए…ये कह कर कि आपको नए ज़माने का नहीं पता तो चुप बैठे रहा करो न…बस भगवान में ध्यान लगाया करो….
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सार्थक सन्देश देती कथा!
बहुत सुन्दर रही आपकी पोस्ट!
आज के चर्चा मंच पर इस पोस्ट को चर्चा मं सम्मिलित किया गया है!
http://charchamanch.uchcharan.com/2010/12/376.html
खुश किया बेटा ये पोस्ट तो शायद पढने से रह ही गयी थी। बहुत प्रेरक बोध कथा है। बधाई।
सही समय ,सार्थक सन्देश देने का सफल प्रयास है
बहुत अच्छी बोधकथा है ।
पढ़कर प्रसन्न होने वाले
इसे जीवन में उतारें
गिरीश बिल्लौरे और अविनाश वाचस्पति की वीडियो बातचीत
आपकी पोस्ट जन जन तक पहुंचानी चाहिए…सच्ची और अच्छी बात…
नीरज
बहुत हे सुंदर सदेश और बेहतरीन नदाज़ ए बयां..खुशदीप साहब इस लेख को पढ़ के आप के लिए मेरे दिल मैं इज्ज़त बढ़ गयी.
बुजुर्गो के अनुभव पता नहीं मेरे इस आज के आधुनिक जीवन में कितने काम आये पर मै सदा उनको अपने साथ रखना चाहूंगी क्योकि मै अपने माँ बाप और अपने परिवार के हर बुजुर्ग को सम्मान से और आराम से जीते देखना चाहती हु इसलिए नहीं की उनको साथ रखने से मुझे कोई फायदा है बल्कि इस लिए की मै उन सभी से प्यार करती हु और सदा उनका साथ चाहती हु |
bahut sunder kahani.
बात सोलह आन सटीक सही
बोलने का अधिकार बनाम मेरा गधा, और मैं…….!!
गिरीश बिल्लोरे का ब्लाग
अफ़सोस !!!
जिन्हें ये कहानी सुनाये जाने की जरूरत है, उनके पास इसे सुनने का वक़्त भी नहीं है |
बुजुर्गों के अनुभवों के महत्व को दर्शाती बहुत बढिया कहानी.
इसी तरह की कई कथायें हमारे देश में भी प्रचलित हैं, लेकिन खेद की बात है कि अब बुजुर्गों को बोझ माना जाने लगा है.. इस मानसिकता में बदलाव होना चाहिये..
बुजुर्गों के पास तजुर्बों का खज़ाना होता है । बिल्कुल सही कहा ।
इसी तरह की लेकिन छोटी सी कहानी हमारे हरियाणा में भी सुनाई जाती है । लेकिन वो कहानी फिर सही ।
अनुभव का लाभ कोई लेना नहीं चाहता सब अपने अनुभव से ही सीखना चाहते हैं। आज तो नौकरी लगते ही बेटा बाप से बड़ा बन जाता है क्योंकि आजकल के लाखों के पेकेज, उसे बड़ा बना ही देते हैं। देखा नहीं कैसे अनुभवहीन युवराज देश पर राज करने के लिए कैसे-कैसे पैंतरे आजमा रहे हैं। बेचारे बुजुर्ग प्रधानमंत्री का अनुभव भी उनकी हाजरी लगाने में ही बीत रहा है।
बहुत गम्भीर बात कहती हुयी कथा।
सुरेश यादव जी की जापानी लोक कथा हमें भी बहुत पसंद आई थी. फिरदौस जी की बात से भी सौ फीसदी सहमत हूँ…
एक बार एक शख्स ने मुहम्मद (स.) से कहा कि मैं मैं हज करने के लिए जाना चाहता हूँ, लेकिन मेरे पास इतना सामर्थ्य नहीं है…. आप (स.) ने मालूम किया कि क्या तुम्हारे घर में तुम्हारे माता-पिता दोनों अथवा उनमें से कोई एक जिंदा है… उस शख्स ने कहा कि माँ बाहयात हैं. आप (स.) ने फ़रमाया कि उनकी सेवा करो… वहीँ एक बार फ़रमाया कि एक बार अपनी माता अथवा पिता को मुहब्बत की नज़र से देखना 3 बार के हज करने के पुन्य से भी अधिक है.
एक शख्स ने मालूम किया कि दुनिया में किसी के जीवन पर सबसे ज्यादा हक किसका है? आप (स.) ने फ़रमाया कि माँ का, उसने मालूम किया कि उसके बाद, तब आप (स.) ने फिर से फ़रमाया कि उसकी माँ का… उस शख्स ने तीसरी बार मालूम किया तब भी आप (स.) ने फ़रमाया कि उसकी माँ का और बताया कि चौथा नंबर पिता का है तथा उसके बाद अन्य रिश्तेदारों (पत्नी, भाई, बहन इत्यादि का)… वहीँ एक बार फ़रमाया कि अपने माता-पिता के इस दुनिया से जाने के बाद उनसे मुहब्बत यह है कि उनके रिश्तेदार और दोस्तों के साथ भी वैसा ही सुलूक किया जाए जैसी मुहब्बत माता-पिता के साथ है… एक बहुत ही मशहूर वाकिये में आप (स.) ने फ़रमाया था कि माँ के क़दमों तले जन्नत है.
आपसे एक सौ एक फ़ीसदी सहमत, बुजुर्गों के अनुभव से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं, ठीक है अगर बेटा नई तकनीकी जगत में काम कर रहा है तो यह क्षैत्र तो उनके लिये भी नया है पर जीवन और व्यवहारिकता में हमेशा उनका अनुभव का लाभ उठाया जा सकता है।
बहुत सुन्दर और सार्थक सन्देश दिया है आज इस पोस्ट के माध्यम से आपने …..बड़ो का सम्मान और सेवा भाव ही तो हमारे संस्कार और सभ्यता का प्रतिक है .
ख़ुशदीप जी
आपने बहुत अच्छी कहानी का ज़िक्र किया है…ऐसा जब ही होता है जब लोगों के दिलों में रिश्तों को लेकर ज़िम्मेदारी का अहसास हो…उनमें प्यार हो… हम ऐसे कितने ही लोगों को जानते हैं जो अपने मरहूम पिता या मां का नाम लेकर दुनियाभर के आंसू बहाते फिरते हैं, मगर हकीक़त में उन्हें अपने बुज़ुर्गों के लिए दिल एन कोई इज्ज़त ही नहीं होती…हमारे एक परिचित हैं हाल में उनके पिता का इंतक़ाल हुआ है…उन्होंने दुनियाभर के आडंबर किए…रोना-धोना भी ख़ूब मचाया…एक रोज़ उनकी अपने चाचा से किसी बात को लेकर लड़ाई हो गई… और उन्होंने अपने चाचा से सारे रिश्ते ख़त्म कर लिए…
उनकी पत्नी ने समझाया कि चाचा पिता समान हैं…ऐसा मत करो…आपको 'अपने पिता का वास्ता'… अफ़सोस की बात है कि अपने मरहूम पिता का वास्ता दिए जाने के बाद भी उन्होंने अपने चाचा से बातचीत शुरू नहीं कि हालांकि सारे मामले में ग़लती उनकी ही थी…
हमारा मानना है कि अगर उन्हें सच में अपने पिता से इतना ही प्यार होता तो वो अपने पिता के नाम का वास्ता दिए जाने के बाद फ़ौरन पत्नी की बात मान जाते…और चाचा से मुआफ़ी मांग लेते… इंसान जिससे मुहब्बत करता है, उससे जुड़ी हर चीज़ से प्यार हो जाता है…
दरअसल लोग हमदर्दी हासिल करने के लिए ढोंग ज़्यादा करते हैं… वक़्त आने पर सब पोल-पट्टी खुल जाती है…
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खुशदीप जी बहुत सुंदर बात कही आप ने इस कहानी के माध्यम से, हमारे यहां एक कहावत हे कि बेटा बाप से दुगना सायाना होता हे, केसे? एक तो उस का अपना ग्याण गर्हण किया होता हे दुसरा बाप का ग्याण भी बेटे को मुफ़त मे मिल जाता हे, लेकिन आज कल के कुछ नालायक बच्चे यह बात नही समझते ओर खुद को ही बाप से आगे समझते हे. धन्यवाद