बस अब अपने राम को पता रहे…

आपको पता ही क्या है…लेकिन हमें तो पता है…बस अब अपने राम को पता कराना है…हर आदमी के भीतर एक राम होता है, और एक रावण…विवेक राम के रूप में हमसे मर्यादा का पालन कराता है…लेकिन कभी-कभी हमारे अंदर का रावण विवेक को हर कर हमसे अमर्यादित आचरण करा देता है…अपने बड़े-बूढ़ों को ही हम कटु वचन सुना डालते हैं…अपने अंदर के राम को हम जगाए रखें तो ऐसी अप्रिय स्थिति से बचा जा सकता है…राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है…यानि मर्यादा का पालन करने वाले पुरुषों में उत्तम राम…रिश्तों की मर्यादा को सबसे ज़्यादा मान देने वाले राम…राम का यही पक्ष इतना मज़बूत है कि उन्हें पुरुष से उठा कर भगवान बना देता है…हर रिश्ते की मर्यादा को राम ने खूब निभाया…कहने वाले कह सकते हैं कि एक धोबी के कहने पर राम ने सीता के साथ अन्याय किया…लेकिन जो ऐसा कहते हैं वो राम के व्यक्तित्व की विराटता को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं समझते…राम ने सीता को कभी अपने अस्तित्व से अलग नहीं समझा…राम खुद हर दुख, हर कष्ट सह सकते थे लेकिन मर्यादा के पालन की राह में कोई आंच नहीं आते देख सकते थे…इसलिए सीता ने जब दुख सहा तो उससे कहीं ज़्यादा टीस राम ने सही…क्योंकि राम और सीता के शरीर भले दो थे लेकिन आत्मा एक ही थे…
बस राम के इसी आदर्श को पकड़ कर हम चाहें तो अपने घर को स्वर्ग बना सकते हैं…अन्यथा घर को नरक बनाने के लिए हमारे अंदर रावण तो है ही…यहां ये राम-कथा सुनाने का तात्पर्य यही है कि बड़ों के आगे झुक जाने से हम छोटे नहीं हो जाते…यकीन मानिए हम तरक्की करते हैं तो हमसे भी ज़्यादा खुशी हमारे बुज़ुर्गों को होती है…जैसा हम आज बोएंगे, वैसा ही कल हमें सूद समेत हमारे बच्चे लौटाने वाले हैं…इसलिए हमें अपने आने वाले कल को सुधारना है तो आज थोड़ा बहुत कष्ट भी सहना पड़े तो खुशी-खुशी सह लेना चाहिए…वैसे किसी ने बहुत सोच-समझ कर ही कहा है- बच्चा-बूढ़ा एक समान…जब हम अपने बच्चों की खुशी के लिए चांद-तारे तक तोड़ कर लाने को तैयार रहते हैं तो फिर बुज़ुर्गों के सांध्य-काल में उनके चेहरे पर मुस्कान लाने के लिए क्या अपने को थोड़ा बदल नहीं सकते…
मैं जानता हूं कि जड़त्व के नियम वाली इस दुनिया में किसी के लिए खुद को बदलना बड़ा मुश्किल होता है, लेकिन एक बार कोशिश कर के तो देखिए…आप के बस दो मीठे बोल ही बुज़ुर्गों के लिए ऐसी संजीवनी का काम करेंगे जो दुनिया का बड़े से बड़ा डॉक्टर भी नहीं कर सकता.
इस संदर्भ में, आज से 20-25 साल पहले एक फिल्म आई थी-संसार, उसका ज़िक्र ज़रूर करना चाहूंगा…अनुपम खेर, रेखा और राज बब्बर के मुख्य पात्रों वाली फिल्म संसार में दिए गए संदेश को हम पकड़े तो हमारे परिवारों में रिश्तों की तनातनी को खत्म नहीं तो कम ज़रूर किया जा सकता है…संसार में अनुपम खेर पिता बने हैं और राज बब्बर बेटे…रेखा ने राज की पत्नी का रोल किया…फिल्म में राज के और भाई-बहन भी हैं…अनुपम खेर रिटायर्ड हो चुके हैं और घर को चलाने में राज की कमाई पर दारोमदार टिका है…यही बात धीरे-धीरे राज में झल्लाहट भरती जाती है…रेखा के समझाने पर भी राज बब्बर अपने स्वभाव को नहीं बदल पाते…हालात इतने खराब हो जाते हैं कि घर में ही लकीर खिंच जाती है…यहां तक कि राज अपनी पत्नी (रेखा) और बच्चे को लेकर किराए के घर में रहने चले जाते हैं..लेकिन रेखा रिश्तों में तनाव कम करने की कोशिश नहीं छोड़तीं…और एक दिन ऐसा आता है सभी को अपनी गलतियों का अहसास होने लगता है…फिर सब साथ रहने को तैयार हो जाते हैं…लेकिन यहां रेखा एक और ही रास्ता निकालती हैं…रहेंगे अलग-अलग ही…लेकिन हफ्ते में एक दिन घर के सभी सदस्य मिलेंगे…उस दिन साथ हंसेंगे, साथ बोलेंगे, साथ खाएंगे, एक-दूसरे का सुख-दुख जानेंगे…ऐसा करेंगे तो फिर हफ्ते भर उस दिन का शिद्दत के साथ इंतज़ार रहेगा, जिस दिन सबको मिलना है… ये तो रही खैर फिल्म की बात…(वैसे जिन्होंने ये फिल्म न देखी हो वो कहीं से सीडी मंगाकर देखें जरूर, ऐसा मेरा निवेदन है)
अब आते हैं बड़े-बुज़ुर्गों के रोल पर…कहते हैं न…क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात…बच्चे गलतियां करते हैं, बड़ों का बड़प्पन इसी में है कि उन्हें क्षमा करें…बुज़ुर्ग भी नए ज़माने की दिक्कतों को समझें…अपनी तरफ़ से कोई योगदान दे सकते हैं तो ज़रूर पहल करें..लेकिन यहां प्रश्न आएगा कि हमारी सलाह लेता कौन है…हमें पूछता ही कौन है…इसके लिए भी एक रास्ता मेरी समझ में आता है…ये रास्ता छोटे शहरों-कस्बों में आसानी से अपनाया जा सकता है…मान लीजिए एक कॉलोनी में दस बुज़ुर्ग रहते हैं…उसी कॉलोनी में कुछ ऐसे बच्चे भी अवश्य होंगे जो पढ़ाई कर रहे होंगे…ट्यूशन पढ़ना उनकी मजबूरी होगी…आस-पड़ोस में कुछ ऐसे बच्चे भी होंगे जो ट्यूशन का खर्च उठा ही नहीं सकते…ऐसे में कॉलोनी के बुज़ुर्ग एक जगह बैठकर उन बच्चों को पढ़ाएं…बच्चों को मुफ्त में पढ़ाई के साथ संस्कार मिलेंगे…बुज़ुर्गों का भी अच्छा टाइम पास हो जाएगा…उन्हें ये महसूस होगा कि उनकी रिटायरमेंट के बाद भी कुछ अहमियत है…ये स्थिति सभी के लिए विन-विन वाली होगी…महानगरों में ऐसे फॉर्मूले पर चलने में ज़रूर दिक्कत आ सकती है…क्योंकि यहां हर आदमी खुद को सबसे ज़्यादा समझदार मानता है…बुजुर्गों को लेकर ऐसी कोई पहल करेगा तो उसे दीवाना मान लिया जाएगा…लेकिन हर अच्छी पहल करने वाले को शुरू में ऐसे ही कड़वी बातों का सामना करना पड़ता है…मगर वो अपना रास्ता नहीं छोड़ता.. एक दिन ऐसा आता है, काफ़िला उसके पीछे जुड़ने लगता है…बस अब इस मुद्दे पर बहस खत्म…अब ज़रूरत है हम सबको कहने की….मुझे मिल गए अपने अंदर ही राम…
आखिर में इस बहस को सार्थक बनाने के लिए जिन्होंने भी नैतिक समर्थन दिया, उनका बहुत-बहुत आभार…आशा है समाज के मुंह-बाए खड़े मुद्दों पर ब्लॉगर्स फोरम में आगे भी ऐसे ही विचार होता रहेगा…खैर ये बहस तो यहीं खत्म हुई, उपदेश भी बहुत झाड़ लिए गए, आइए अब स्लॉग ओवर में मिलवाता हूं मक्खन से….

स्लॉग ओवर
मेरा एक दोस्त है मक्खन…पिता गैरेज चलाते हैं…अब मक्खन ठहरा मक्खन…रब का बंदा…पढ़ाई मे ढक्कन रहा…कह-कहवा कर नवीं तक तो गाड़ी निकल गई…दसवीं में बोर्ड था तो गाड़ी अटक गई…तीन चार साल झटके खाए…पिता ने भी मान लिया कि मक्खन की गा़ड़ी गैरेज में ही जाकर पार्क होगी…सो अब हमारा मक्खन गैरेज चलाता है…आज तो सिर्फ मक्खन का परिचय दे रहा हूं…उसके किस्से आपको आगे स्लॉग ओवर में सुनने को मिलते रहेंगे…मक्खन की अक्सर बड़ी मासूम सी समस्याएं होती हैं…जैसे कि कोई फॉर्म ओनली कैपिटल में भरना हो तो मक्खन पूछता है… फॉर्म क्या दिल्ली जाकर भरना होगा…मक्खन बेचारा दिल्ली का एसटीडी कोड (011) भी नहीं मिला पाता…क्यों नहीं मिला पाता…मक्खन जी को फोन पर 0 का बटन तो मिल जाता है 11 का बटन कहीं ढूंढे से भी नहीं मिलता…मक्खन को कहीं फैक्स करना हो तो कहता है कि इस पर पोस्टल स्टैम्प लगा दूं…रास्ते में कहीं खोने का रिस्क नहीं रहेगा…ऐसा है हमारा मक्खन…