ये आप सब का प्यार ही था जो मुझे पहली कहानी…न हिन्दू, न मुसलमान, वो बस इनसान…लिखने का हौसला मिला था…आज फिर उसी दिशा में एक और प्रयास कर रहा हूं…पिंजरा शीर्षक से कहानी लिख कर…पसंद आए या न आए, स्नेह बनाए रखिएगा…
पिंजरा…
मल्लिका और बादशाह बाग़-ए-बहारा में टहल रहे थे…मौसम भी बड़ा दिलकश था…टहलते-टहलते मल्लिका की नज़र एक पेड़ की शाख पर बैठे बेहद खूबसूरत तोते पर पड़ी…इंद्रधनुषी रंगों से सज़ा ये तोता बड़ी मीठी बोली बोल रहा था…तोते पर मल्लिका का दिल आ गया…यहां तक कि मल्लिका बादशाह से बात करना भी भूल गई…तोते को एक टक देख रही मल्लिका के दिल की बात बादशाह समझ गए…बादशाह ने फौरन सिपहसालारों को हुक्म दिया- शाम तक ये तोता बेगम की आरामगाह के बाहर लगे झूले के पास होना चाहिए…और इस तोते के लिए बड़ा सा सोने का पिंजरा बनवाने का फौरन इंतज़ाम किया जाए…
एक बहेलिये की मदद से सिपहसालारों ने थोड़ी देर में ही तोते पर कब्ज़ा पा लिया…तोते को महल ला कर बेगम की आरामगाह में पहुंचा दिया गया…शाम तक सोने का पिंजरा भी लग गया…तीन-चार कारिंदों को ये देखने का हुक्म दिया गया, तोते को खाने में जो जो चीज़ें पसंद होती है, थोड़ी थोड़ी देर बाद उसके पिंजरे में पहुंचाई जाती रहें…तोते को पास देखकर मल्लिका की खुशी का तो ठिकाना नहीं रह गया…लेकिन तोते के दिल पर क्या गुज़र रही थी, इसकी सुध लेने की भला किसे फुरसत…कहां खुले आसमान में परवाज़, एक शाख से दूसरी शाख पर फुदकना…मीठी तान छेड़ना…और अब हर वक्त की कैद…आखिर इस मल्लिका और बादशाह का क्या बिगाड़ा था, जो ये आज़ादी के दुश्मन बन बैठे…मानता हूं, खाने के लिए सब कुछ है…लेकिन ऐसे खाने का क्या फायदा…मनचाही ज़िंदगी जीने की आज़ादी ही नहीं रही तो क्या मरना और क्या जीना…
तोते का गुस्सा बढ़ जाता तो पिंजरे की सलाखों से टक्करें मारना शुरू कर देता…शायद कोई सलाख टूट जाए और उसे वही आज़ादी मिल जाए. जिसके आगे दुनिया की कोई भी नेमत उसके लिए अच्छी नहीं…सलाखें तो क्या ही टूटने थीं, तोते के पर ज़रूर टूटने लगे थे…दिन बीतते गए तोता उदास-दर-उदास होता चला गया…तोते पर किसी को तरस नहीं आया…दिन-महीने-साल बीत गए…लेकिन तोते का पिंजरे से बाहर निकालने के लिए टक्करें मारना बंद नहीं हुआ…
एक बार मल्लिका बीमार पड़ गई…बादशाह आरामगाह में ही मल्लिका को देखने आए…मल्लिका को निहारते-निहारते ही बादशाह की नज़र अचानक तोते पर पड़ी…तोते को गुमसुम उदास देख बादशाह को अच्छा नहीं लगा…लेकिन उसने मल्लिका से कुछ कहा नहीं…मल्लिका को एक सयाने को दिखाया गया तो उसने बादशाह को सलाह दी कि किसी बेज़ुबान परिंदे को सताने की सज़ा मल्लिका को मिल रही है…इसलिए बादशाह हुज़ूर अच्छा यही है कि पिंजरे में कैद इस तोते को आज़ाद कर दिया जाए…
मल्लिका से जान से भी ज़्यादा मुहब्बत करने वाले बादशाह ने हुक्म दिया कि तोते को फौरन आज़ाद कर दिया जाए…हुक्म पर तामील हुई…तोते के पिंजरे का दरवाज़ा खोल दिया गया…ये देख तोते को आंखों पर भरोसा ही नहीं हुआ…भरोसा हुआ तो तोते ने पूरी ताकत लगाकर पिंजरे से बाहर उड़ान भरी…लेकिन ये क्या तोता फड़फड़ा कर थोड़ी दूर पर ही गिर गया…या तो वो उड़ना ही भूल गया था या फिर टूट टूट कर उसके परों में इतनी ताकत ही नहीं रही थी कि लंबी उड़ान भर सकें…
तोते की ये हालत देख उसे फिर पिंजरे में पहुंचा दिया गया…अब तोता शान्त था…फिर किसी ने उसे पिंज़रे से बाहर आने के लिए ज़ोर लगाते नहीं देखा…शायद इसी ज़िंदगी को तोते ने भी अपना मुस्तकबिल (नियति) मान लिया…
स्लॉग चिंतन…
हमारे पूर्वजों ने जान की कुर्बानी देकर हमें ये दिन दिखाया कि हम आज़ाद हवा में सांस ले सकें…इस आज़ादी की कीमत समझें…इसे यूं ही व्यर्थ न गवाएं…अब शारीरिक गुलामी का नहीं ज़ेहनी गुलामी का ख़तरा है…तरक्की के नाम पर नेता देश को मल्टीनेशन कंपनियों के आगे बेच देना चाहते हैं…याद रखिए कि अब अकेली ईस्ट इंडिया कंपनी नहीं, कई विदेशी कंपनियों की भारत पर गिद्ध नज़र है…कब तक हम ये ख़तरे भूल कर आईपीएल की रंगीनियों में डूबे रहेंगे…मुनाफ़े का बाज़ार काम करेगा, तिजोरियां विदेश में भरेंगी…और हमारे हाथ फिर खाली के खाली ही रहेंगे…
चलते चलते ये गीत भी सुन लीजिए…
स्लॉग गीत
पिंजरे के पंछी रे, तेरा दर्द न जाने कोए
फिल्म- नागमणि (1957)