नोएडा की एक हाईप्रोफाइल रिहायशी सोसायटी में बीते हफ्ते जम कर हंगामा हुआ…सेक्टर 78 में स्थित महागुन सोसायटी मे एक मेड को लेकर हिंसा की नौबत आ गई…दरअसल मेड के परिजनों का आरोप था कि उसे फ्लैट मालिक ने घर में बंधक बना कर दो दिन तक पीटा…फिर उसे गंभीर हालात में सोसायटी के पास फेंक दिया गया…इस मेड की गंभीर हालत में तस्वीर सोशल मीडिया पर भी वायरल हुई…दूसरी ओर, सोसायटी के लोगों का कहना है कि मेड को चोरी के आरोप में पकड़ा गया, जिसके सबूत सीसीटीवी फुटेज में मौजूद हैं और पुलिस को इसकी सूचना दी गई थी…बताया जा रहा है कि मेड के समर्थन में दूसरी मेड्स, उनके परिजनों और उनके गांव के लोगों ने बीते बुधवार को सोसायटी पर हल्ला बोल दिया…उनके और सोसायटी के सिक्योरिटी गार्ड्स के बीच पत्थरबाजी भी हुई…
इस घटना में कौन दोषी है, कौन नहीं, ये पता लगाना पुलिस का काम है और वो लगा भी लेगी…लेकिन मेरा इस पोस्ट को लिखने का मकसद दूसरा है…दरअसल महानगरों का जीवन ऐसा हो चला है कि यहां मेड के बिना शायद ही किसी घर का गुजारा चलता हो…यहां अधिकतर न्यूक्लियर परिवार ही रहते है…पति-पत्नी दोनों ही काम पर जाते हों तो घर में साफ़-सफ़ाई, बर्तन से लेकर खाना बनाने तक का काम मेड के ही जिम्मे रहता है…छोटे बच्चों वाले घरों में उनकी देखरेख का काम भी मेड ही करती हैं…ऐसे में एक दिन मेड ना आए तो घर की हालत समझी जा सकती है…
देश के दूरदराज से विकास की दृष्टि से पिछड़े इलाकों से लोगों का पलायन महानगरों की ओर हुआ है…इनमें पुरुष लेबर से जुड़े काम में रोजगार तलाशते हैं…वहीं महिलाएं घरों में मेड के तौर पर आजीविका ढूंढ लेती हैं…मेड रखने के लिए भी दिल्ली-नोएडा जैसे शहर में पुलिस पहले पुलिस वेरीफिकेशन कराना जरूरी है…लेकिन अब भी बड़ी संख्या में लोग इसे झंझट का काम मानते हैं और बिना वेरीफिकेशन ही मेड रख लेते हैं…मेड भी इन दिनों आपस में एकजुटता बना कर काम करती हैं…कोई मेड किसी घर के मालिक या मालकिन पर खराब बर्ताव का आरोप लगा कर काम करना बंद कर दें तो बाकी सभी मेड भी वहां काम करने से इनकार कर देती हैं…यहीं नहीं कोई मेड वहां काम करना भी चाहे तो बाकी सभी उस पर दबाव डालकर रोक देती हैं…
नोएडा की घटना कोई मामूली बात नहीं है…ये सामाजिक ताने-बाने में बढ़ती जा रही दूरियों की ओर इशारा है…आर्थिक दृष्टि से अब देश में कई वर्ग बन गए हैं…लेकिन क्या एक दूसरे के बिना किसी का अस्तित्व बनाए रखना मुमकिन है? जब एक नए शहर का प्रोजेक्ट बनाया जाता है तो वहां सिर्फ आर्थिक दृष्टि से मजबूत लोगों को बसाने के बारे में ही नहीं सोचा जाता…वहां मार्केट, लेबर क्लास, सब्जी मंडी हर तरह के तबकों के रहने के लिए जगहें चिह्नित की जाती हैं…जिस तरह गाड़ी चार पहियों पर चलती है उसी तरह समाज भी अलग-अलग तबकों के पहियों के सहारे ही आगे बढ़ता है…अगर कोई ये समझता है कि वो अकेले पहिए से ही गाड़ी को भगा कर ले जाएगा तो ये उसकी नादानी के सिवा कुछ नहीं है…
हमारे देश की सरकार का कंसेप्ट वेलफेयर सरकार का है…यानि ये देखना उसकी जिम्मेदारी है कि कल्याणकारी योजनाओं का समाज के सभी वर्गों को लाभ मिले…खास तौर पर जो वंचित हैं, जो आखिरी पायदान पर खड़े हैं, उन तक भी तरक्की की बयार पहुंचे…सरकार के अलावा ये समाज के हर वर्ग की भी जिम्मेदारी है कि वो सह-अस्तित्व के सिद्धांत का सम्मान करे…अपने लिए उन्नति-प्रगति के रास्ते तैयार करे तो जरूरतमंदों के दुख-दर्द को भी अपने दिल में महसूस करे…
नोएडा की घटना मेड पर केंद्रित है…इसी को लेकर मुझे 28 अगस्त 2009 को लिखी पोस्ट ‘पत्नीश्री की मददगार’ आ गई…पढ़ेंगे तो आज भी प्रासंगिक लगेगी…आप भी इस विषय पर अपने विचार रखें, बहस को नया आयाम दें तो अच्छा रहेगा…
पत्नीश्री की मददग़ार
आप सोच रहे होंगे कि मैं किस मददग़ार की बात कर रहा हूं. जनाब माया नाम की ये वो मोहतरमा है जो एक दिन घर में अपने चरण ना डालें तो घर में भूचाल-सा आ जाता है. अपना तो घर में बैठना तक दूभर हो जाता है. पत्नीश्री के मुखारबिन्दु से बार-बार ये उदगार निकलते रहते हैं- यहां मत बैठो, वहां मत बैठो. एक तो ये मेरी जान का दुश्मन लैप-टॉप. मैं सुबह से घर में खप रही हूं. इन्हें है कोई फिक्र. पत्नीश्री का ये रूप देखकर अपुन फौरन समझ जाते हैं, आज माया घर को सुशोभित करने नहीं आने वाली है.
तो जनाब ऐसी है माया की माया. वैसे तो ये मायाएं हर घर में आती हैं लेकिन इन्हें नाम से इनके मुंह पर ही बुलाया जाता है. जब ये सामने नहीं होती तो इनके लिए नौकरानी, आया, बाई, माई, कामवाली और ज़्यादा मॉड घर हों तो मेड जैसे संवेदनाहीन शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है. जैसे इंसान की कोई पहचान ही न हो. किटी पार्टी हो या कोई और ऐसा मौका जहां दो या दो से ज़्यादा महिलाओं की गपशप चल रही हो, वहां ये सुनने को मिल ही जाता है- इन कामवालियों ने तो नाक में दम कर रखा है. जितना मर्जी इनके साथ कर लो, लेकिन ये सुधरने वाली नहीं.
तो जनाब मैं अपनी पत्नीश्री की मददगार माया की बात कर रहा था. माया की तीन साल की एक बेटी है-लक्ष्मी और पति ढाबे पर काम करता है. काम क्या करता है, बस जो मेहनताना मिलता है, ज़्यादातर ढाबे पर ही दारू में उड़ा आता है. माया और उसके पति को यहां नोएडा में एक कोठी में रहने के लिए उसकी मालकिन ने एक छोटा सा टीन की छत वाला कमरा दे रखा है. अब ये भी सुन लीजिए कि ये मालकिन इस दयादृष्टि की माया से कीमत क्या वसूल करती है. कोठी की सफ़ाई, घास की कटाई, पेड़-पौधों में पानी देना, मालकिन के कहीं जाने पर कोठी की चौकीदारी करना और न जाने क्या-क्या. ज़रा सी चूक हुई नहीं कि बोरिया-बिस्तर उठा कर सड़क पर फेंक देने की धमकी. ठीक उसी अंदाज में जिस तरह कभी अमेरिका में गुलामी के दौर में अफ्रीकियों के साथ बर्ताव किया जाता था. ऐसी दासप्रथा नोएडा की कई कोठियों में आपको देखने को मिल जाएगी.
ऐसे हालात में माया को जब भी मैंने घर पर काम के लिए आते-जाते देखा, ऐसे ही लगा जैसे कि किसी तेज़ रफ्तार से चलने के कंपीटिशन में हिस्सा ले रही हो. अब जो मां काम पर आने के लिए छोटी बच्ची को कमरे में अकेली बंद करके आई हो, उसकी हालत का अंदाज़ लगाया जा सकता है. ऐसे में मेरी पत्नीश्री ने भी गोल्डन रूल बना लिया है जो भी दान-पुण्य करना है वो माया पर ही करना है. हां, एक बार पत्नीश्री ज़रूर धर्मसंकट में पड़ी थीं- पहले देवों के देव महादेव या फिर अपनी माया. दरअसल पत्नीश्री हर सोमवार को मंदिर में शिवलिंग पर दूध का एक पैकेट चढ़ाती थीं. दूध से शिवलिंग का स्नान होता और वो मंदिर के बाहर ही नाले में जा गिरता. सोमवार को इतना दूध चढ़ता है कि नाले का पानी भी दूधिया नज़र आने लगता. एक सोमवार मैंने बस पत्नीश्री को मंदिर से बाहर ले जाकर वो नाला दिखा दिया. पत्नीश्री अब भी हर सोमवार मंदिर जाती हैं…अब शिवलिंग का दूध से नहीं जल से अभिषेक करती हैं… और दूध का पैकेट माया के घर उसकी बेटी लक्ष्मी के लिए जाता है.. आखिर लक्ष्मी भी तो देवी ही है ना.
लक्ष्मी की बात आई तो एक बात और याद आई. मेरी दस साल की बिटिया है. पांच-छह साल पहले उसके लिए एक फैंसी साइकिल खरीदी थी. अब बिटिया लंबी हो गई तो पैर लंबे होने की वजह से साइकिल चला नहीं पाती थी… साइकिल घर में बेकार पड़ी थी तो पत्नीश्री ने वो साइकिल लक्ष्मी को खुश करने के लिए माया को दे दी. लेकिन बाल-मन तो बाल-मन ही होता है…हमारी बिटिया रानी को ये बात खटक गई…भले ही साइकिल जंग खा रही थी लेकिन कभी बिटिया की जान उसमें बसती थी..वो कैसे बर्दाश्त करे कि उसकी प्यारी साइकिल किसी और को दे दी जाए…वो लक्ष्मी को दुश्मन मानने लगी.. लाख समझाने पर आखिर बिटिया के कुछ बात समझ आई. दरअसल ये मेरी बिटिया का भी कसूर नहीं है. पब्लिक स्कूलों में एक्स्ट्रा करिकुलर एक्टिविटीज़, फ्रेंच-जर्मन भाषाएं न जाने क्या-क्या सिखाने पर ज़ोर दिया जाता है लेकिन ये छोटी सी बात कोई नहीं बताता कि एक इंसान का दिल दूसरे इंसान के दर्द को देखकर पिघलना चाहिए. हम भी बच्चों को एमबीए, सीए, डॉक्टर, इंजीनियर बनाने के लिए तो कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते लेकिन ये कम ही ध्यान देते हैं कि हमारे नौनिहाल कुछ भी बनने से पहले अच्छे इंसान बने.
चलिए अब माया की गाथा यहीं निपटाता हूं. 10 बज गए हैं, माया अभी तक नहीं आई है और पत्नीश्री का पारा धीरे-धीरे चढ़ना शुरू हो रहा है..इससे पहले कि अपने लैपटॉप बॉस को पत्नीश्री के अपशब्द सुनने पड़ें, सीधे स्लॉग ओवर पर आता हूं.
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