देख लूँ तो चलूँ…समीर जी को पढ़ने से पहले की तैयारी…खुशदीप

गुरुदेव समीर लाल समीर जी की हाल ही में विमोचित हुई उपन्यासिका…देख लूँ तो चलूँ… 21 जनवरी को मेरे लखनऊ जाने से पहले ही डाक के ज़रिए मुझे मिल गई थी…उपन्यासिका को मुझे एक ही गो में पढ़ना था, इसलिए ऐसा मौका ढूंढ रहा था कि बिना कहीं ध्यान भंग किए इस पुनीत कार्य को करूं…पहले सोचा लखनऊ साथ ले जाऊं, लेकिन नई दिल्ली से लखनऊ का सफर रात को ही होना था…यानि ट्रेन में लाइट जला कर पढ़ता…इससे दूसरों की नींद में व्यवधान पड़ता…कोई न कोई महानुभाव मुझे ज़रूर टोकता और मुझे लाइट बंद करते हुए कुढ़ कर रह जाना पड़ता…और लखनऊ में शादी की रेलम-पेल में तो पढ़ने का मौका मिलना ही नहीं था…

ऊपर से तुर्रा ये कि मेरी पत्नीश्री उपन्यासिका को पढ़ने के बाद समीर जी की लेखन-शैली की इतनी कायल हो चुकी थी कि इसे पढ़ने की मेरी इच्छा और हिलोरे मारने लगी…लेकिन मेरी भी शर्त थी कि पढ़ूंगा तो एक ही स्ट्रेच में…आज 29 जनवरी को मुझे ये मौका मिल गया…दरअसल मुझे एक ज़रूरी काम के लिए मेरठ जाना था…अकेले ही जाना था, इसलिए टैक्सी की जगह बस से ही जाने का फैसला किया…मैं जब अकेला सफ़र करता हूं तो ज़्यादा से ज़्यादा पैसे बचाने की कोशिश करता हूं…और जब परिवार के साथ होता हूं तो इसका ठीक उलट होता है, ज़्यादा से ज़्यादा खर्च…

हां तो मैंने घर से चलने से पहले बैग के साथ उपन्यासिका भी साथ ली तो पत्नीश्री की एक्स-रे दृष्टि से बचा नहीं सका…उसी वक्त ताकीद कर दिया, उपन्यासिका साथ ले जा रहे हो तो संभाल कर वापस भी ले आना…दरअसल पत्नीश्री सफ़र में साथ होती है तो बैगेज, टिकट वगैरहा को लेकर काफ़ी सजग रहती है..मेरा ठीक उलटा स्वभाव है…मस्तमौला कुछ कुछ लापरवाह…इसी चक्कर में कई बार जेब से वैलेट निकल चुका है…ट्रेन में जब भी पत्नीश्री साथ होती है तो एक बार इस बात पर ज़रूर तकरार होती है कि बैगेज को कहां रखा जाए…मैं कहता हूं सीट के नीचे रखा जाए…पत्नीश्री कहती है बैगेज को बांट कर सिरों के नीचे रखा जाएगा…अब मैं ठहरा छह फुटा…सिर के नीचे बैग आ जाता है तो गर्दन शतुरमुर्ग की तरह उठ जाती है और टांगे जंगलजलेबी जैसी अकडू़ हो जाती है…यानि आराम से लमलेट नहीं हो सकता…लेकिन क्या करूं पहला और अंतिम फैसला पत्नीश्री का ही होता है…इसलिए गर्दन अकड़ाए ही सफ़र करना पड़ता है…चलिए ऐसे ही सही कभी कभी हमारे जैसे अनइम्पॉर्टेंन्ट जीवों को भी इस बहाने अकड़ने का मौका तो मिल जाता है…

खैर छोड़िए, समीर जी को जैकेट की जेब के हवाले किया…मतलब समीर जी की उपन्यासिका को…बस स्टैंड पहुंचा…यहां बस अड्डे पहुंचना भी किसी किले को फतेह करने से कम नहीं है…नोएडा में इन्फ्रास्ट्र्क्चर बेशक दुनिया के बड़े से बड़े शहरों को होड़ दे रहा हो लेकिन यहां की कुछ विसंगतियां भी हैं…नोएडा से पूरे दिल्ली के लिए मेट्रो की कनेक्टिविटी है…लेकिन ये दुनिया के सबसे बड़े रेलवे नेटवर्क यानि भारतीय रेलवे से नहीं जुड़ा है…यहां सबसे नज़दीकी रेलवे स्टेशन गाज़ियाबाद जंक्शन है…

अब बस अड्डे पहुंचा तो पता चला कि एक मिनट पहले ही मेरठ की बस निकली है…अगली बस आधे घंटे बाद मिलेगी…अब घर भी वापस नहीं जा सकता…टाइम तो पास करना ही था…पास ही मूंगफली का ठेला खड़ा था…सोचा कुछ प्रोटीन इनटेक ही हो जाए…मूंगफली चाबने की जगह पीनट्स प्रोटीन इनटेकिंग कितना हाई-क्लास लगता है…दस रुपये की मूंगफली तौलने को कहा…वो मूंगफली तौलने लगा और मैं इस दौरान उसके ठेले से नॉन स्टाप जितनी मूंगफलियां उठा कर खा सकता था, खाता रहा…हम भारतीयों को इस तरह उठा-उठा कर या टेस्ट-टेस्ट के नाम पर मुफ्त का माल खाने में जो मज़ा आता है वो भला खऱीद कर खाए हुए माल में कहां आता है…मल्टीनेशन कंपनियों ने मॉल या रिटेल स्टोर खोले तो भारतीयों की इसी नब्ज़ पर रिसर्च कर बाय वन गेट वन..टू…थ्री जैसी स्कीम निकालीं…हम इन आफर्स के फेर में जो चीज़ खऱीदनी है उसके ब्रैंड, कीमत, क्वालिटी पर ज्यादा ध्यान नहीं देते बशर्ते कि साथ में फ्री में कुछ मिल रहा हो…बचपन में देखा था कि जब किराना स्टोर पर सामान खरीदने कोई आता था तो साथ में लुभाव मांगा करता था…लाला जी भी लुभाव में गुड़ की टांगड़ी या लेमनचूस जैसी कोई चीज़ फ्री में पकड़ा देते थे…इससे लाला जी का ग्राहक भी पक्का रहता था और और ग्राहक भी खुश…अब उसी लुभाव को बड़े रिटेल स्टोर्स ने आफर्स की शक्ल दे दी है…

बस आ गई, और मैं बस में चढ़ गया…

क्रमश:
(गुरुदेव समीर जी की उपन्यासिका को पढ़ कर समीक्षा जैसी न तो मेरी कोई मंशा है और न ही सामर्थ्य…मैं तो बस इसे पढ़ते हुए जैसा दिल से महसूस हुआ, जिस एम्बियेंस में महसूस हुआ, बस वही आप तक पहुंचाने की कोशिश करुंगा…)


देख लूँ तो चलूँ (उपन्यासिका)
समीर लाल ‘समीर’
प्रकाशक- शिवना प्रकाशन
पी. सी. लैब, सम्राट कॉम्पलेक्स बेसमेंट
बस स्टैंड, सीहोर-466001 (म.प्र.)

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नीरज गोस्वामी

बस स्टैंड पहुँचने का वर्णन और हम भारतियों की आदतों का कच्चा चिठ्ठा पढ़ कर मजा आ गया…समीर जी की किताब विलक्षण है…उन्होंने जिस अंदाज़ में इसे लिखा है वैसा अंदाज़ हिंदी साहित्य में दूसरा मिलना दुर्लभ है…पहले पन्ने से वो अपने पाठक को पकड़ लेते हैं और आखरी पन्ने पर पहुँच कर पाठक को लगता है हाय मैं इतनी जल्दी क्यूँ छूट गया…

नीरज

वाणी गीत
14 years ago

रोचक विवरण …
उपन्यास तो होगा ही !

Udan Tashtari
14 years ago

बहुत आभार..इतने सारे स्नेह के लिए. तुमको अच्छा लगेगा उससे ज्यादा खुशी है कि बहु ने पसंद किया. फिर तुम्हें न भी पसंद आये तो फिकर नॉट. 🙂

ऐसा ही स्नेह बनाये रखो. जल्द मुलाकात हो रही है.

प्रवीण पाण्डेय

पढ़ डालिये।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen

जल्दी से लिखिये इस किताब के बारे में…बाकी सब कुछ…

शिवम् मिश्रा

समीर भाई ने अपना वादा तो निभा दिया है पर मैं भी आपकी ही तरह एक ही बार में उपन्यासिका पूरा पढने का इच्छुक हूँ सो अभी तक पढना शुरू नहीं कर पाया हूँ … इस बीच बेटे राम भी कुछ बीमार है सो … मामला टालता जा रहा है !

वैसे जान अच्छा लगा कि हम भी असरदारो की सूचि में आते है ! 😉

जय हिंद !

Unknown
14 years ago

समीर लाल यह किताब ब्लैक में बेच रहे हैं , यह किताब मुझे आज तक नहीं मिल पायी है ! असरदार लोगों को यह कब की मिल गयी है वहां हम जैसे इंतज़ार कर रहे हैं
satish ji ne sahi kaha—————

डॉ टी एस दराल

मैं जब अकेला सफ़र करता हूं तो ज़्यादा से ज़्यादा पैसे बचाने की कोशिश करता हूं…और जब परिवार के साथ होता हूं तो इसका ठीक उलट होता है, ज़्यादा से ज़्यादा खर्च…
इसमें कॉज कौन सा है और इफेक्ट कौन सा ?

मूंगफली खाने का मज़ा तो इण्डिया में ही है । जहाँ चाहो छिलके डाल दो । लिट्रिंग का इतना आनंद और किसी काम में नहीं आता । और तो और गिल्टी कोंसिय्स भी फील नहीं होता ।
वैसे इसका भी इलाज़ है –मूंगफली के दाने -गर्मागर्म –५ रूपये के ५० ग्राम ।

समीक्षा का इंतज़ार रहेगा ।

Khushdeep Sehgal
14 years ago

अरे सतीश भाई,
ये तो कमाल हो गया, वही ठेले वाला मुझसे शिकायत कर रहा था कि अभी आ रहे होंगे सतीश भाई, हफ्ता वसूलने…

और हां समीर भाई ने किताब की ब्लैक की कीमत पिन्टू के श्यामवर्ण के हिसाब से तय कर दी है…अब ये पिन्टू कौन है, ये आपको समीर भाई की किताब पढ़ने के बाद ही पता चलेगा…हां, क्लू ये है कि भारत की गर्मी के चलते पिन्टू जी के हुस्न में और निखार आ जाता है…यानि श्यामवर्ण और गहरा जाता है…इसका मतलब आपको किताब ब्लैक में और महंगी मिलेगी…कोई बात नहीं आप भी मूंगफली वाले ठेलों से वसूली टैक्स बढ़ा दीजिए…

जय हिंद…

Satish Saxena
14 years ago

भाटिया जी का कमेन्ट पढने के बाद मैं उस ठेले वाले से मिलने गया था …कह रहा था वह खुशदीप मियां को खूब पहचानता है , ६ रूपये की मूंगफली दी थीं १० रूपये में !
:-))

Satish Saxena
14 years ago


समीर लाल यह किताब ब्लैक में बेच रहे हैं , यह किताब मुझे आज तक नहीं मिल पायी है ! असरदार लोगों को यह कब की मिल गयी है वहां हम जैसे इंतज़ार कर रहे हैं !
मगर ब्लैक में नहीं खरीदेंगे चाहे सेकेण्ड हैण्ड खरीदना पड़े …
🙁

दिनेशराय द्विवेदी

दिन में किया गया बस या ट्रेन का सफर किताबें पढ़ने को सब से मुफीद होता है। मैं भी उस किताब को पढ़ने के लिए ऐसा ही समय चुराने की फेर में हूँ। वैसे आज इतवार है, इस चोरी की गुंजाइश घर में ही निकालने का यत्न करता हूँ।

ब्लॉ.ललित शर्मा

काफ़ी तैयारी करनी पड़ी है उपन्यासिका पढने लिए।

शुभकामनाएं

राज भाटिय़ा

यह मुगफ़ली वाले से पूछो उस ने भी आप की खाने की रफ़तार देख कर द्स की जगह आठ रुपये की ही मुगफ़ली तोली होगी:) जब मेरी कपडे की दुकान थी तो यहां भाव तोल नही होता, जो दाम बता दिया या लिखा हे वो ही दो , लेकिन हम भारतिया ओर तुर्की एक समान हे,मोल भाव करने मे, जब भी यह लोग मेरी दुकान पर आते तो मै हर चीज के रेट १० € ज्यादा बताता था, ओर मोल भाव कर के वो अन्य ग्राहको से मुझे ज्यादा पेसे देते:) वो भी खुश ओर मै भी खुश…. यही मुगफ़ली वाले ने किया होगा. चलिये अब जल्दी से बस मे बेठ जाये वो आ गई… शुभ यात्रा जी

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