क्या आप अपने बच्चों को अच्छी तरह जानते हैं…उनके दिमाग में हर वक्त क्या रहता है, आप उसे पढ़ना जानते हैं…मुझे आज ये मुद्दा उठाने के लिए मजबूर किया है ऐसी कुछ उम्मीदों ने जो हक़ीक़त बनने से पहले ही दम तोड़ गईं…इन उम्मीदों को बचाया जा सकता था…इन छोटे-छोटे सपनों का दम निकालने के लिए कौन ज़िम्मेदार है…सबसे आगे रहने की अंधी दौड़…एजुकेशन सिस्टम या खुद आप और हम…
मध्य प्रदेश के देवास में दसवीं की छात्रा सपना चौहान ने स्कूल में ही सल्फास खाकर खुदकुशी कर ली…सपना ने सुसाइड नोट में बड़ा-बड़ा लिखा “I QUIT”…ठीक वैसे ही जैसे फिल्म थ्री इडियट्स में हॉस्टल में रहने वाला एक छात्र गले में फंदा डालकर जान देने से पहले लिख कर छोड़ जाता है…बताया जाता है कि सपना को स्कूल के एक टीचर ने एक ही दिन में साइंस प्रैक्टीकल की कॉपी पूरी करने के लिए धमकाया था…सपना दबाव में टूट गई और जान देकर अपने मां-बाप के सपनों को भी तोड़ गई…
कोल्हापुर का दशरथ पाटिल, मुंबई के माटुंगा में बीकॉम फर्स्ट इयर की छात्रा शिवानी सेठ, विरार में दसवीं का छात्र सूरज, नासिक की प्रियंका और धनश्री पाटिल….कई नाम हैं खुदकुशी करने वाले छात्र-छात्राओं की फेहरिस्त में…अकेले महाराष्ट्र मे पिछले 12 दिन में 25 युवा उम्मीदें दम तोड़ चुकी हैं…क्या बच्चों में आगे निकलने की होड़ का चेहरा इतना ख़ौफनाक हो गया है कि बच्चों को दबाव सहने की जगह खुदकुशी में ही छुटकारा नज़र आने लगा है…ऐसी स्थिति लाने के लिए ज़िम्मेदार कौन है…आज ज़रा बच्चों की दिनचर्या पर ज़रा नज़र दौड़ाइए…स्कूल में पढ़ाई, ट्यूशन में पढ़ाई, घर पर पढ़ाई…और अगर रिलेक्स होने के लिए थोड़ा ब्रेक लेते हैं तो कंप्यूटर, टीवी या वीडियो गेम…और किसी काम के लिए घर से बाहर निकलना तक नहीं…आउटडोर खेलने के लिए जाएं तो जाएं कहां…कहीं पार्क बचे ही नहीं…और अगर कहीं हैं भी तो वहां इतनी बंदिशें लगा दी जाती हैं कि बच्चे उन्हें दूर से ही राम-राम कर लेना बेहतर समझते हैं…
इंटरनेट, आरकुट ने बच्चों की ऐसी साइट्स तक भी पहुंच बना दी है जहां तनाव, अवसाद को बढ़ावा देने वाले लेख भरे रहते हैं…ये सब बच्चों को शारीरिक दृष्टि से तो नुकसान पहुंचा ही रहा है उनकी मनोस्थिति पर भी बुरा असर डाल रहा है…कहते हैं न अच्छी चीज़ सीखने में उम्र बीत जाती है और बुरी चीज़ पकड़ने में दो मिनट नहीं लगते…कमाई के सारे रिकॉर्ड तोड़ देने वाली फिल्म थ्री इ़डियट्स को सपना चौहान की खुदकुशी के लिए कटघरे में खड़ा किया जा सकता है…लेकिन क्या वास्तव में सारा कसूर फिल्म का ही है…फिल्म में दबाव से बचने के लिए खुदकुशी का रास्ता कहीं नहीं दिखाया गया है…फिल्म में तो यही संदेश दिया गया है कि सिर्फ अच्छे मार्क्स ही कामयाबी की गारंटी नहीं होते…दूसरा बहुत कुछ भी ज़रूरी होता है आदमी की सक्सेस के लिए…
क्या आपने नोट किया है कि बच्चे फेसबुक, आरकुट पर वर्चुअल में अपने को एक्सप्रेस करते हुए पूरा दिन बिता सकते हैं…लेकिन किसी अनजान आदमी या परिचित से भी फोन पर भी बात करनी हो तो कन्नी काटने की कोशिश करते हैं…दरअसल बच्चों ने अपनी ही एक दुनिया बना ली है…छोटी उम्र, बड़ी उम्मीदें…सक्सेस के लिए शार्टकट की उधेड़बुन में ये अपरिपक्व मस्तिष्क न जाने क्या-क्या सोच लेते हैं…और अगर इन्हें उस सोच के मुताबिक असल ज़िंदगी में होता नहीं दिखता तो ये अतिरेक में कोई भी कदम उठाने का भी दुस्साहस कर सकते हैं…हमारी दिक्कत ये है कि हम अपनी उम्र के हिसाब से सोचते हैं…और बच्चों से भी यही उम्मीद रखते हैं कि वो भी वैसा ही सोचें…ऐसा करते हुए आप ये भूल जाते हैं कि आप भी एक झटके में इस स्थिति में नहीं पहुंचे…क्या-क्या पापड़ नहीं बेले…आपके पास तज़ुर्बा दर तज़ुर्बा बनी सोच है…बच्चों के पास जब वो तजु़र्बा ही नहीं है तो ये कैसे मुमकिन है कि आप जैसे नज़रिए से ही दुनिया को समझने लगे…आज काउसलिंग की भी बड़ी वकालत की जाती है…लेकिन बच्चे को जो काउंसलिंग माता-पिता या घर के दूसरे सदस्यों से मिल सकती है वो बाहर से हर्गिज़ नहीं मिल सकती..
ये सही है कि सभी बच्चों का आईक्यू एक-सा नहीं हो सकता…लेकिन ये भी सच है कि अगर बच्चा पढ़ाई में ज़्यादा तेज़ नहीं है तो उसमें कोई न कोई हुनर ऐसा ज़रूर होगा, जिसमें वक्त बिताना उसे अच्छा लगता होगा….बच्चे में छिपी इन छोटी-छोटी क्वालिटी को पहचानिए…उसे प्रोत्साहित कीजिए…साथ ही ये बताना शुरू कीजिए कि करियर के लिए अब बेशुमार अवसर उपलब्ध हैं…अब वो ज़माने लद गए जब बच्चा इंजीनियरिंग या मेडिकल एंट्रेस में सफल नहीं होता था तो उसे बेकार मान लिया जाता था…आज हर फील्ड में संभावनाएं हैं…बच्चे में हुनर कैसा भी है उसे निखार कर करियर की शेप देने वाले संस्थान बाज़ार में मौजूद है…बच्चों को बस ये समझाना है कि अगर एक रास्ता बंद होता है तो सौ रास्ते और खुल जाते हैं...दिल्ली में आजकल बीए, बीकॉम, बीएससी कराने वाले कॉलेजों में भी प्लेसमेंट के लिए कंपनियां आने लगी हैं….बच्चों को बताया जाए कि अगर वो ज़िंदादिली के साथ चुनौतियों का सामना करते हैं तो किसी भी तरह की पढ़ाई के बाद शानदार करियर बना सकते हैं…दसवीं, बारहवीं में परसेंटेज का पहाड़ न खड़ा कर पाने या एंट्रेस एग्ज़ाम में कामयाबी न मिलने से ही दुनिया नहीं रुक जाती…
बच्चों को उन महान हस्तियों की नज़ीर दी जा सकती हैं जिन्होंने नाकामी पर नाकामी झेलने के बाद भी हिम्मत नहीं हारी और उन ऊंचाइयों तक ही पहुंच कर दम लिया जहां से सारी दुनिया बौनी नज़र आती है..सिर्फ एक उदाहरण देता हूं…अमिताभ बच्चन का…जिन्हें उनके पिता हरिवंश राय बच्चन ने कभी नैनीताल में शेरवुड स्कूल में नसीहत दी थी…मन का हो तो अच्छा और न हो तो और भी अच्छा…वही अमिताभ बच्चन युवावस्था में रेडियो पर नौकरी मांगने गए तो उनकी आवाज़ को फेल कर दिया गया था…बाद में उसी आवाज़ का पूरा देश दीवाना हुआ…अमिताभ के करियर की शुरुआत में एक के बाद एक दर्जनों फिल्में पिटी लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी…अपने अंदर की आग़ को बुझने नहीं दिया…इसी का नतीज़ा रहा…ज़ंज़ीर, दीवार, शोले का एंग्री यंगमैन…जो वनमैन इंडस्ट्री बन गया…लेकिन इन्हीं अमिताभ बच्चन के लिए नब्बे के दशक में फिल्मों की असफलता के साथ ऐसा बुरा दौर भी आया कि उनकी कंपनी एबीसीएल का भट्ठा बैठ गया…गले तक अमिताभ को कर्ज़ में डुबो दिया…लेकिन हिम्मत अमिताभ ने यहां भी नहीं हारी…कठिनाइयों से लड़े और कौन बनेगा करोड़पति के ज़रिए फिर मुकद्दर का सिकंदर बन कर दिखाया….
बच्चों को ऐसे ही प्रेरक प्रसंग ढूंढ ढूंढ कर सुनाना चाहिए…किसी उपदेशक की तरह नहीं बल्कि उनका दोस्त बनकर…उसी उम्र में पहुंच कर जिस उम्र में आपके बच्चे हैं….और किसी भी तरह हफ्ते में एक बार ही सही बच्चों के साथ आउटिंग पर जाने की कोशिश कीजिए…चाहे घर के सबसे पास वाले पार्क में ही सही…बच्चों में यही विश्वास भरें कि वो कितने अहम हैं…घर के लिए भी और देश के लिए भी…मैंने खुद की गिरेबान में झांककर देखा तो बच्चों का सबसे बड़ा गुनहगार मुझे अपने में ही दिखा…अब पक्का ठान लिया है, छुट्टी वाले दिन कुछ भी हो जाए, बच्चों को साथ लेकर घर से बाहर मस्ती करने के लिए कहीं न कहीं ज़रूर जाऊंगा…
स्लॉग चिंतन
रेत अगर मुट्ठी से फिसलती है तो उसका भी एक मकसद होता है…ईश्वर उस मुट्ठी को इसलिए खाली कराता है क्योंकि वो वहां आसमान को उतारने के लिए जगह बनाना चाहता है…हर कोई चाहता है…इक मुट्ठी आसमान…