कैसे ब्लॉगर हो आप, PSPO भी नहीं जानते…खुशदीप

टीवी पर अक्सर ओरिएंट पंखों की एक एड देखने को मिल जाती थी जिसमें उनकी बड़ी खिल्ली उडाई जाती थी जो PSPO के बारे में नहीं जानते…PSPO यानि पीक स्पीड परफॉरमेंस आउटपुट…ये एड कम्पेन इतना हिट हुआ था कि अगर कोई कुछ नहीं जानता था तो लोग तकिया कलाम की तरह इस्तेमाल करने लगे थे कि हॉ, ये PSPO भी नहीं जानता…ऐसा ही कुछ हाल ब्लॉगवुड के ज्ञानी-ध्यानियों की पोस्ट पढ़कर मेरा भी हो जाता है…

…अंग्रेज़ी मिश्रित हिंदी ऐसे-ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है कि अपन के पास बगले झांकने के सिवा और कोई चारा नहीं रह जाता…सही है जनाब ब्लॉगिंग का क्या मज़ा, जब तक पोस्ट में दो-चार ऐसे करारे शब्द न डाले जाएं कि पढ़ने वाले कहने को मजबूर न हो जाएं…हाय, हम PSPO भी नहीं जानते….अगर हम ऐसा नहीं कर सकते तो लानत है हमारे ज्ञानी होने पर…ऐसा नहीं करेंगे तो घाट पर बकरियों के साथ पानी पीते अपने लेखन के शेर को अलग कैसे दिखा पाएंगे…

खैर इससे पहले कि ये पढ़ते-पढ़ते आप सबका मेरा गला घोटने का मन करने लगे, मैं उस शब्द पर आता हूं जिसने मुझे ये सोचने को मजबूर कर दिया कि मैं PSPO भी नहीं जानता…ये शब्द था घेटो (GHETTO)…माफी चाहूंगा, पहले कभी सुना नहीं था, इसलिए पता नहीं वर्तनी सही भी लिख पा रहा हूं या नहीं…तो जनाब घेटो शब्द का इस्तेमाल ब्लॉगर मीट या संगठन के लिए किया गया था…नया सा लगा, मतलब नहीं जानता था इसलिए सही शाब्दिक अर्थ जानने के लिए डिक्शनरी खोल कर बैठ गया…जो अर्थ मिले वो ये थे…अलग-थलग किए गए लोगों की बस्ती….या द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले चाहरदीवारी से घिरी यहूदियों की बस्ती…

पहली बार दिव्य-ज्ञान हुआ कि अगर अजय कुमार झा जैसा घर फूंक तमाशा देखने वाला कोई नेक बंदा मिलने-मिलाने की महफिल में प्यार से बुलाता है तो वो घेटो बना रहा होता है…या अविनाश वाचस्पति जैसा ब्लॉगरों का भला चाहकर खुद के पैर पर कुल्हाड़ी मारने वाला कोई सज्जन घर पर चाय के लिए किसी को बुलाता है तो अपने घेटो का भूमि-पूजन कराने की सोच रहा होता है…अब जो घेटो शब्द का इस्तेमाल कर निशाना साध रहे हैं वो बेचारे सही तो कह रहे हैं…अजय कुमार झा या अविनाश वाचस्पति अलग-थलग प्रजाति का ही तो प्रतिनिधित्व करते हैं…हां, बड़ी संख्या में मूर्खों का जमावड़ा ज़रूर इन दोनों की पोस्ट का इंतज़ार करता रहता है…

खैर, आज नहीं तो कल, ये सभी मूर्ख झक मार कर हमारी पोस्ट ही पढ़ने आएंगे…और जाएंगे कहां….भई अजय कुमार झा तो संवेदनशील जीव हैं, उन्हें विद्वतता के कोड़ों से ताने मार-मार कर इतना परेशान कर दो कि या तो वो टंकी पर ही चढ़े रहें या वो अच्छे-अच्छे विषयों पर लेखन भूलकर बस हमारे सवालों के जवाब देने में ही उलझे रहें….अविनाश वाचस्पति जी ज़रूर जीवट वाले लगते हैं…इसलिए उन पर गुटबाज़ी को बढ़ावा देने सरीखे बाण चलाकर घायल किया जाए…बस उन्हें ऐसा कर दिया जाए कि उनकी कलम से कविता के सिवा और कुछ निकले ही नहीं…

जनाब इस तरह कोई भला होता है ब्लॉगिंग का जिस तरह अजय कुमार झा और अविनाश वाचस्पति ने सीधा-सच्चा सोच लिया था…इसके लिए तो क्रांतिकारी ग्लास्नोस्त और पेरेस्त्रोइका की ज़रुरत होती है…अब ये झा या वाचस्पति जैसे प्राणी क्या जानें कि ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका क्या होता है…PSPO जो नहीं जानते…हमसे पूछो हम बताते हैं…अरे ये वो हथियार हैं जिनके दम पर मिखाइल गोर्बाच्योव ने अस्सी के दशक के मध्य में इस्तेमाल कर सोवियत यूनियन की तस्वीर बदल कर वो रूस बनाया था जिसे आज हम देखते हैं…ये एक दो लंच या टी मीटिंग से कहीं क्रांतियां आती है…अब आपमें से विद्वानों को छोड़कर सीधे-साधे ब्लॉगर चकराने लगे होंगे कि ये ग्लास्नोस्त और पेरेस्त्रोइका क्या बला होती हैं…ये दोनों बलाएं घेटो के ही बड़े भाई बहन है…ग्लास्नोस्त का मतलब है खुलापन और पेरेस्त्रोइका का मतलब है वो अभियान जिसके तहत रूस की आर्थिक और राजनीतिक पॉलिसी को नया रूप दिया गया था…अब तो आप भी मानेंगे न ब्लॉगिंग को ग्लास्नोस्त और पेरेस्त्रोइका का झंडा उठाने वाले की ज़रूरत है न कि अजय कुमार झा और अविनाश वाचस्पति जैसे लोगों कि जिनके बारे में कहा जा सकता है…आई मौज फकीर की, दिया झोंपड़ा फूंक…

भई और किसी को हुआ हो या न हो मैं ज़रूर PSPO जान गया हूं…कबीर जी का दोहा ही आज से अपने लिए बदल रहा हूं….

ज्ञानी जो देखन मैं चला, ज्ञानी न मिलया कोए,

जो मन खोजा आपना, तो मुझसे ज्ञानी न कोए…

(डिस्क्लेमर…होली की तरंग में लिखी गई पोस्ट है, अन्यथा न लें)

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