वहां का पूरा माहौल बड़ा रहस्यमय लगता था…उसी एरिया की सड़क से कुछ दूसरी कॉलोनियों में रहने वाली भले घरों की लड़कियों को भी स्कूल-कालेज जाने के लिए पास होना पड़ता था…मैं तब यही सोचा करता था कि जब लड़का होने के बावजूद मेरी हालत यहां से निकलते हुए खराब हो जाती है तो इन भले घरों की लड़कियों को यहां से पास होते हुए कैसा महसूस होता होगा…इस सवाल का जवाब उस वक्त तो नहीं मिला था…
लेकिन आज ब्लॉग पर एक पोस्ट पढ़ने के दौरान मिला…इस पोस्ट में नई छप कर आई किताब औरत की बोली का ज़िक्र है…किताब को लिखा है पत्रकारिता-लेखन की जाने मानी हस्ताक्षर और ब्लॉगवुड की सम्मानित सदस्य गीताश्री ने….
सामयिक प्रकाशन से छपी किताब के एक अंश को प्रभात रंजन जी ने अपनी पोस्ट में जगह दी है…गीताश्री की इस मुद्दे पर बेबाक बानगी की झलक के लिए किताब की कुछ पंक्तियों को यहां दे रहा हूं…
खैर.. रानी बाई ने नाचना गाना शुरु किया…”चाल में ठुमका, कान में झूमका…कमर पे चोटी लटके..हो गया दिल का पुरजा पुरजा”। लगे पचासो झटके। शामियाने में जोर से सिसकारियां गूंजी। कोने से कोई उठा गाता हुआ..वो तेरा रंग है नशीला,,अंग अंग है नशीला…पैसे फेंके जाने लगे, बलैया ली जाने लगीं। रानी बाई के साथ और भी लड़कियां थीं, वो भी ठुमक रही थीं, फिर देखा, रानी बाई किसी रसूखदार से दिखने वाले बंदे के पास गईं और अपने घूंघट से दोनो का चेहरा ढंक लिया। जब लौटी तो पैसो की बरसात होने लगी। शामियाने में हर कोई पैसे लुटा रहा था। साजिंदे और सहयोगी लड़कियां पैसे चुने और ठुमके लगाएं। विचित्र सा था सब कुछ। जीवन में पहली बार ये सब देख रही थे। गाना, बजाना, नाच और वो बाई! वो जितनी अच्छी लग रही थी, उतना ही बुरे लग रहे थे शामियाने में जमघट लगाए बैठे लोगों का व्यवहार। चुपके-चुपके हम लोग देख रहे थे वो सब। हमारे लिए वो सब बेहद नया था, लेकिन बड़ों की नजर में यही गुनाह था। कोई देखता तो हमारी पिटाई तय थी। मेरे साथ इस ‘चोरी’ में शामिल चचेरी बहनो ने कई बार कहा भी कि चल अब चलते हैं..और वो चली भी गईं। मैं अकेली नाच में डूबी सोचती रही कि अंदर लड़कियां नाच रही हैं तो हमें देखने से क्यो मना कर रहे हैं। तभी मुझे तलाशती हुई चाची आई। एक थप्पड़ जमाया और घसीटती हुई ले चलीं। वह बड़बड़ा रही थीं…”अगर चाचा ने देख लिया तो मार डालेंगे। चल अंदर शादी हो रही है, वहां बैठ…।” उस महाआंनद से वंचित होने से चिढी हुई मैंने पूछ ही लिया…”क्यों, लड़कियां ही तो नाच रही हैं, मैं क्य़ो नहीं देख सकती?” ” वे लड़कियां नहीं, रंडी हैं,रंडी…समझी। रंडी की नाच हमारे यहां औरतें नहीं देखती। ये पुरुषों की महफिल है, जहां इनका नाच होता है। देखा है किसी और को,है कोई औरत वहां..सारे मरद हैं-” चाची उत्तेजना से हांफ रही थी। मेरे दिल का पुरजा पुरजा हो गया था। मैं मंडप के पास बैठी सोचती रही। फिर अपने हमउम्र चचेरे भाई से जानकारी बटोरी तो पता चला वे मुजफ्फरपुर से आई हैं, जहां एक पूरा मोहल्ला उन्हीं का है। इनके कोठे होते हैं, वे शादियों में नाचती गाती है, यही उनका धंधा है…आदि आदि….।
तस्वीर का पूरा रुख जानने के लिए आपको प्रभात रंजन जी के इस लिंक पर जाना होगा…
शहर छूटा, लेकिन वो गलियां नहीं!
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