एवरीथिंग इज़ लेस, मेकिंग अस सेंसलेस…खुशदीप

गाओ मेरे मन,
चाहे रे सूरज,
चमके न चमके,
लगा हो ग्रहण,
गाओ मेरे मन….

ऊपर जो मैंने गाने का लिंक दिया है, थोड़ा वक्त हो तो इसे ज़रूर सुन लीजिए…वाकई हम भारतवंशी भी बड़े संतोषी जीव होते हैं…जिस हाल में भी हो, खुश रहना जानते हैं…हमारे प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था में इतनी कुव्वत है कि पेट्रोल-डीजल की बढ़ी कीमतों को झेल सकती है वो भी महंगाई बढ़े बिना…सही कह रहे हैं डॉक्टर मनमोहन सिंह…हम हर हाल में जीना जानते हैं…

कभी कहा जाता था कि दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ…अब तो दाल रोटी भी पहुंच से बाहर होती जा रही है…फिर प्रभु के गुण कैसे गाए…भूखे पेट तो भजन भी न होए गोपाला..लेकिन आज मैं आपको बेहद अजीज की ओर से भेजे गए ई-मेल से रू-ब-रू कराता हूं…इक्कीसवीं सदी में कैसे हर बीतते दिन के साथ हमारे जीवन से सब कुछ लेस (कम या गायब) होता जा रहा है…

लेस…लेस…लेस…लेस

हमारा कम्युनिकेशन…वायरलेस

हमारी ड्रैस….टॉपलेस

हमारा टेलीफोन…कॉर्डलेस


हमारा खाना बनाना…फायरलेस (माइक्रोवेव)


हमारे युवा…जॉबलेस (बेरोज़गार)


हमारा खाना…फैटलेस (वसामुक्त)


हमारा श्रम…एफर्टलेस (बिना ज़ोर लगाए)


हमारा आचरण…वर्थलेस (बिना किसी मोल )


हमारे रिश्ते…लवलेस (बिना प्यार)


हमारा रवैया…केयरलेस (बेपरवाह)


हमारी भावनाएं…हार्टलेस (पत्थरदिल)


हमारी राजनीति…शेमलेस (बेशर्म)


हमारी शिक्षा….वेल्यूलेस (मूल्यहीन)


हमारी गलतियां….काउंटलेस (अनगिनत)


हमारे तर्क…बेसलेस (आधारहीन)


हमारा जॉब…थैंकलेस (जिसकी कोई कद्र नहीं)


हमारी तनख्वाह…वेरी वेरी लेस (बहुत कम)


हमारे ई-मेल्स…यूज़लेस ( अनुपयोगी)


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