एक थी रुचिका, एक है राठौर…खुशदीप

मैं रुचिका हूं…आज मैं आपके बीच होती तो 33 साल की होती…अपना घर बसा चुकी होती…शायद स्कूल जाने वाले दो बच्चे भी होते…लेकिन मुझे इस दुनिया को छोड़े सोलह साल हो चुके हैं…मेरे पापा, मेरा भाई ज़िंदा तो हैं लेकिन गम़ का जो पहाड़ उनके सीने में दफ़न है वो किसी भी इंसान को जीती-जागती लाश बना देने के लिए काफ़ी है…मुझे याद है टेनिस खेलने का बड़ा शौक था…लेकिन मुझे क्या पता था कि यही शौक मेरा बचपन, मेरी खुशियां, मेरा चहचहाना एक झटके में मुझसे छीन लेगा…

मैं

मेरे छोटे होते ही मां बेशक दुनिया छोड़ गई थी…लेकिन मेरे पापा ने मुझे और मेरे भाई को कभी मां की कमी महसूस नहीं होने दी..लेकिन उस 12 अगस्त 1990 की एक मनहूस तारीख ने ही हमारी दुनिया बदल दी….मेरे हंसते-खेलते परिवार को कब्रस्तान की मुर्दनी में बदल डाला…14 साल की उम्र में मुझे क्या पता था कि अंकल की शक्ल में एक अधेड़ एसपीएस राठौर मेरे साथ वो हरकत करेगा जिसके बारे मे मैंने कभी सुना भी नहीं था…मैं तो उन्हें ऐसा अंकल मानती थी जो मेरे टेनिस के करियर को संवार देंगे…मुझे क्या पता था कि वो अधेड़ इंसान की खाल में भेड़िया निकलेगा…

मुझे कई दिन लग गए अपने को संभालने में…लेकिन फिर मैंने हिम्मत करके पापा को सब कुछ बताया…पापा का खून खौल उठा…फिर किसी की बेटी के साथ वो भेड़िया ऐसी हरकत न करे, मेरे पापा ने आवाज़ उठाने का फैसला किया…लेकिन शिकायत करें तो किससे करें…वो अधेड़ तो खुद पुलिस में आईजी रैंक का अफ़सर था…ऊपर से सत्ता के गलियारों में बैठे हुक्मरानों का चहेता…उसका भला कौन बाल-बांका कर सकता था…आवाज़ उठाने पर कोई कार्रवाई की जगह मेरे परिवार को ही धमकियां दी जाने लगीं…मेरे भाई आशु पर एक साल में ही ग्यारह मुकदमे ठोक दिए गए…थाने बुलाकर उसे टॉर्चर किया जाता रहा…हर बार यही कहा जाता रहा कि हम सब अपने होंठ सी लें…नहीं तो इस दुनिया में रहना मुश्किल कर दिया जाएगा…

मेरा गुनहगार राठौर

मेरे पापा इंसाफ़ के लिए दर-दर भटकते रहे लेकिन कहीं से कोई मदद नहीं मिली…हां मेरी प्यारी सहेली आराधना का परिवार ज़रूर चट्टान की तरह हमारे साथ डटा रहा…लेकिन भाई और पिता की हालत देखकर मैं टूटती चली गई…कहीं न कहीं परिवार की खुशियां छीन जाने के लिए खुद को ही कसूरवार मानने लगी…एक दिन मेरा सब्र का बांध टूट गया और सत्रह साल की उम्र में मैंने दुनिया को छोड़ने का फैसला किया…ये वो उम्र होती है जब सपनों को पंख लगते हैं…और मैंने 28 दिसंबर 1993  को इस बेरहम दुनिया से ही हमेशा के लिेए उड़ान भर ली….

मैंने सोचा था मेरी मौत से मेरे परिवार का गम कम हो जाएगा…लेकिन पिछले सोलह साल से शायद ही एक दिन भी ऐसा आया होगा जब मेरे पापा और भाई ने चैन की नींद ली हो…आखिर चैन आता भी कहां से…उनकी लाडली को छीनने का सबब बनने वाला खूसट पुलिस अधिकारी छूट्टा जो घूम रहा था…सज़ा तो दूर तरक्की दर तरक्की पाता हुआ सूबे में पुलिस की सबसे ऊंची पोस्ट तक पहुंच गया…पुलिस सेवा मेडल तक पा गया…उन्नीस साल में हरियाणा में कई सरकारें बदलीं…कई मुख्यमंत्री आए और गए लेकिन मेरे गुनहगार पर चींटी सा भी असर नहीं हुआ…नेताओं के सब सफेद-काले धंधों में मदद जो किया करता था…

मेरे पिता को अदालत से फिर भी इंसाफ़ का भरोसा था…दस साल ऐडियां रगड़ने के बाद मुकदमा दर्ज हुआ…नौ साल अदालत जा-जा कर कई जोड़ी जूते घिसने के बाद फैसला आया….एसपीएस राठौर को छह महीने की सज़ा और एक हज़ार रुपये जुर्माना…फैसले के दस मिनट बाद ही राठौर को ज़मानत भी मिल गई…अदालत और कर भी क्या सकती थी…उसके हाथ जो बंधे हुए थे…जो लचर सबूत उसके सामने रखे जाएंगे वो उसी पर तो अपना फैसला सुनाएगी…सबूत मज़बूत होते भी कहां से ….पुलिस तो गुनहगार की खुद मातहत थी…अपने सबसे आला अधिकारी को बचाने के लिए वो क्यों न क़ानून का गला घोंटती…

और सियासतदां उनकी तो बात ही न की जाए…ये सफेद झक कपड़े बेशक कितने पहन लें, लेकिन इनके अंदर का जो अंधेरा है वो सड़कों पर जलने वाली मोमबत्तियों से कभी दूर नहीं हो सकता…पांच दिन पहले अदालत के फैसले के बाद राठौर का शैतानी हंसी हंसता चेहरा टीवी के कैमरों के ज़रिए पूरी दुनिया ने देखा…उन्नीस साल के इंतज़ार के बावजूद इंसाफ़ का ये हश्र देखकर मेरे पापा और भाई बिल्कुल टूट गए हैं…उन्हें इस वक्त आप सबकी ज़रूरत है…आप ही उनके आंसू पोंछ सकते हैं…मैं चाह कर भी ये काम नहीं कर सकती…आप उनकी आवाज़ के साथ अपनी आवाज़ इतनी ज़ोर से मिलाएं कि चंडीगढ़ और दिल्ली में बैठे बहरे कानों में भी झनझनाहट हो जाए…

याद रखिए जब तक मेरा गुनहगार अपने अंजाम तक नहीं पहुंचेगा…मेरी रूह को चैन नहीं मिलेगा…बस अब खत्म करती हूं…खुशदीप अंकल मेरी कहानी कल भी आपको सुनाएंगे…अब मुझे इस वादे के साथ इजाज़त दीजिए कि आप मेरा चेहरा याद रखेंगे और मेरे पापा को क़ानून की देवी से इंसाफ़ दिला कर ही दम लेंगे…

आपकी बिटिया
रुचिका