“आप ज़िंदा क्यों रहे?”…खुशदीप

पिछली पोस्ट में किश्तवाड़ दंगों के संदर्भ में सांप्रदायिकता के ज़हर का हवाला देते हुए मैंने आपको 1947 के अतीत में ले जाने का वादा किया था…गांधी से मिलवाने के लिए कहा था…ये इतिहास का वो कोना है जिस पर गांधी के पोते और पश्चिम बंगाल के पूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी ने अपने एक लेख में रौशनी डाली थी…गांधी से मिलवाने से पहले थोड़ी आज की बात…
देश
ने आज़ादी की 66वीं सालगिरह का जश्न आज मनाया…प्रधानमंत्री के भाषण के साथ पहली बार
इस मौके पर
भावी
प्रधानमंत्री
का
भाषण भी सुना…विकास के  उद्घोष के साथ
देश की सारी समस्याओं को दूर करने के संबंध में दावे-प्रतिदावे सुने…ज़ाहिर है
चुनावी साल है, हर कोई खुद को जनता-जनार्दन का सबसे बड़ा हितैषी साबित करने की
कोशिश करेगा…नतीजा वही रहेगा जो आज़ादी के बाद अब तक देश मे होता आया है…



अब गोपाल कृष्ण गांधी के लेख के हवाले से बापू की बात…
1946
का अंत आते-आते बंगाल के नोआखली में हिंदुओं का बड़ा नरसंहार हुआ…प्रतिक्रिया
बिहार में मुसलमानों के जबर्दस्त कत्ले-आम से हुई…दिल्ली और पंजाब को भी सांप्रदायिकता
की इसी आग ने जकड़ लिया…उस वक्त एक इनसान ने जो किया, जो कहा, उसका सबूतों की बाध्यता से कोई लेना-देना नहीं था..
.वो इनसान था मोहनदास कर्मचंद
गांधी…
नाओखली में दंगा प्रभावितों से बात करते गांधी
गांधी
उस वक्त बंगाल के प्रभावित ज़िलों का दौरा करने के बाद बिहार आए थे…उन्हें बताया
गया कि हिंसा में कुछ कांग्रेसजनों को भी शामिल देखा गया…कुछ कांग्रेसियों ने
इसे ग़लत बताया तो कुछ ने सही…



19 मार्च 1947 को बीर, बिहार में कांग्रेसजनों के
एक समूह से मुखातिब गांधी जी ने कहा- “क्या ये सच है या नहीं कि बड़ी संख्या में
कांग्रेसी गड़बड़ी में शामिल थे
? मैं ये इसलिए पूछ रहा हूं कि लोग ऐसा आरोप लगा रहे
हैं…लेकिन यहां एकत्र कांग्रेसी खुद सच बता सकते हैं…आप की कमेटी के 132
सदस्यों में से कितने सदस्य शामिल थे
? ये अच्छी बात होगी जब आप में
से सब इस बात पर ज़ोर दें कि आप शामिल नहीं थे…लेकिन इस तरह की सफ़ाई नहीं दी जा
सकती…मैं आपसे पूछना चाहता हूं कि आप ये देखने के लिए कैसे ज़िंदा रहे कि 110
साल की एक वृद्धा को मौत के घाट उतार दिया गया
? आपने
ये कैसे बर्दाश्त किया
? मैं
आपसे और कुछ बात नहीं करना चाहता…मैंने करो या मरो की कसम खाई है…ना मैं खुद
चैन से बैठूंगा और ना दूसरों को बैठने दूंगा…मैं सब जगह चलता हुआ जाऊंगा…पड़े
हुए कंकालों से पूछूंगा कि कैसे ये सब हुआ
मेरे
अंदर अब ऐसी आग़ जल रही है कि मैं इस सब का जब तक समाधान नहीं ढूंढ लूंगा, शांति
से नहीं बैठूंगा”…
गांधी ने कांग्रेसियों
से कुछ जुमले और भी बोले-
मैं आपसे पूछना चाहता हूं…आप ज़िंदा क्यों रहे ? सब
बातें छोड़कर मैं यही सवाल उठाना चाहता हूं…आप ज़िंदा क्यों रहे
?”
यें
तो रही 1947 और गांधी की बात…अब लौटते है 1984 और 2002 पर…ना 1984 में
कांग्रेस या बीजेपी का कोई शख्स निर्दोषों को बचाते हुए मरा और ना ही 2002 में…ये
हो सकता है कि जिन नेताओं पर दंगे करवाने के लिए या हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहने के
लिए उंगली उठी वो सबूतों के अभाव में आखिर में साफ़ बच जाएं…लेकिन कहीं ऐसा भी
तो सबूत नहीं है कि उन्होंने हिंसा की आग़ को बुझाने के लिए खुद को झोंक
दिया…आख़िर आप ज़िंदा क्यों रहे
?
ऐसा
नहीं कि देश में पहले कभी ऐसी बहादुरी की मिसाल नहीं मिलती…1 जुलाई 1946 को अहमदाबाद
में रथ यात्रा के दौरान शहर साम्प्रदायिक दंगे की आग़ से जल रहा था…कांग्रेस
सेवा दल के वसंतराव हेगिश्ठे और रज़ब अली लखानी पूरा दिन निर्दोषों को बचाने में
लगे रहे…उन्मादी दंगाइयों ने दोनों से भाग जाने के लिए कहा…लेकिन दोनों डटे
रहे…आख़िर दंगाइयों ने उन्हें भी क़त्ल कर दिया…
एक
साल बाद कलकत्ता में सचिन मित्रा और स्मृतिश बनर्जी भी बेगुनाहों को दंगाइयों से
बचाते हुए ऐसे ही मारे गए…
क़ानून
सबूत मांगता है…अदालतें सबूतों के अभाव में आरोपियों को बरी कर सकती है…लेकिन जो
सच में गुनहगार है उन्हें उनकी अंतर्रात्मा कैसे बरी करेगी
? 1984
या 2002 को लेकर सब कुछ छोड़कर एक ही सवाल...”आपने मारा नहीं, लेकिन मारने वालों को
मारते देखा…आप ज़िंदा क्यों रहे
? ” सबूतों
की बाध्यता ये सवाल नहीं पूछेगी जो गांधी ने 66 साल पहले पूछा था…



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Unknown
11 years ago

हो सकता है की वहा का समाज दोगला नहीं है यहाँ के समाज की तरह …..

जय बाबा बनारस…..

ताऊ रामपुरिया

आपकी बात से सहमत हूं. अन्ना हजारे का मैं खुद भी प्रसंशक हूं. अन्ना की नियत में कोई खोट नही था बस मुझे यह कमी भारत की जनता के खराब भाग्य की लगती है जो इन भ्रष्टाचारी नेताओं के जाल से निकल नही पा रही.

आजादी की जंग और आज की इस नई आजादी की जंग में एक बहुत बडा फ़र्क आ गया है. पहले हमें अंग्रेजों से लडना था आज हमें घर के भीतर लडना पड रहा है.

आपका यह कथन सौ प्रतिशत सच है कि महत्वाकांक्षा की लडाई ने एक बहुत ही काबिल व्यक्ति द्वारा खडे किये गये अंदोलन को ताश के महल की तरह ढहा दिया.

मुझे सच में कई बार ऐसा लगता है कि साक्षात गांधी भी आज आकर आंदोलन करें तो उनका हश्र भी अन्ना जैसा ही होगा.

रामराम.

Khushdeep Sehgal
11 years ago

कौशल भाई,

हिंदू धर्म को सही परिप्रेक्ष्य में समझने के बाद ये सारे सवाल ही बेमानी हो जाते हैं…वो परिप्रेक्ष्य जिसकी वजह से पूरे विश्व में भारत की पहचान है…मेरा एक सवाल है, इस दुनिया में करीब सात अरब की आबादी है…जिसमें सिर्फ एक अरब तीस करोड़ लोग ही विकसित देशों में रहते हैं और बाक़ी सब विकासशील देशों में…जो विकसित देश है, अगर वहां भी हमारी तरह धार्मिक विद्वेष, जात पात, प्रांतवाद के झगड़े होते तो वो भी शायद कभी विकसित नहीं बन पाते…

जय हिद…

Unknown
11 years ago

दंगा बस एक ही हुआ है वह है गुजरात का दंगा न तो उसके बाद कोई दंगा हुआ न उसके पहले दंगा हुआ ऐसा सेक्युलर कीड़े मानते है ….

हिन्दू पहले इंसान है बाद मैं हिन्दू …मुसलमान पहले मुसलमान है बाद मैं और कुछ ….अगर सहमत न हो तो अपने मुसलमान दोस्तों जो की बचपन से लेकर आज तक आप के साथ हो उनसे पूछ कर देख ले जरा जरा सी बातो पर उनका इस्लाम खतरे मैं पड़ जाता है वह तो एक हिन्दू धरम है जो की आज तक खतरे मैं रह कर भी खतरे मैं नहीं है …हिन्दू धरम के संत लोग अपनी तरफ से जिस दिन यह कहना शुरु कर दे की आप के धरम को मुसलमानों से खतरा है बस उसी दिन से इस्लाम दुनिया से ख़तम होना शुरु हो गया समझो …मुसलमानों के धरम गुरु …और नेता लोग क्या कहते है यह आप लोग जानते ही है …बस इतना ही काफी है ….
जय बाबा बनारस….

Khushdeep Sehgal
11 years ago

ताऊ जी,

दो साल पहले अन्ना हज़ारे राजघाट पर जाकर बैठे थे तो गांधी के बाद पहली बार उन जैसी कुछ संभावनाएं जगी थीं…लेकिन राजनीतिक महत्वाकांक्षा के चलते अन्ना के सहयोगियों ने ही उन्हें दूध से मक्खी की तरह बाहर निकाल फेंका था…जिस समय अन्ना और आईएसी एक थे, उस वक्त मैंने अन्ना को ख़बरदार करते हुए कुछ लेख लिखे थे…उस वक्त देश में अन्ना के लिए बहुत जोश था, इसलिए मरे आलोचनात्मक स्वरों के कारण मुझे कई लोगों से बहुत कुछ सुनने को मिला था…आज अन्ना खुद ही अफ़सोस कर रहे हैं कि कैसे लोगों के झांसे में आ गया था…भ्रष्टाचारियों के तख्त वही जनआंदोलन पलट सकते हैं जिनकी अपनी कोई महत्वाकांक्षा ना हो…गांधी दर्शन के इसी सबसे महत्वपूर्ण पक्ष का आज कोई खरीदार नहीं है…

जय हिंद…

ताऊ रामपुरिया

शायद हमारा जमीर ही मर चुका है, गांधी के स्तर का एक आधा भी इंसान आज भारत में होता तो हालात ऐसे नही होते.

आपने १९४६ से वर्तमान तक के इतिहास का एक मिनी डाक्यूमैंट ही इस आलेख में लिख दिया है, बहुत सशक्त आलेख.

रामराम.

पी.सी.गोदियाल "परचेत"

सहगल साहब , एग्रीड , बट आपने पूरी बात पर गौर नहीं फरमाया, मैंने कहा ; और यदि हिंदुत्व संघठनो की बात करें तो वे उसवक्त जो कुछ पंजाब में हुआ उससे खफा थे और अनादर कहीं न कहें एक क्रोध था जिसकी वजह से वे खुलकर नहीं आये…
इस परिपेक्ष में आरएसएस पर उंगली उठाते वक्त हमें उस भिंडरावाले दौर को नहीं भूलना चाहिए !

Khushdeep Sehgal
11 years ago

शाहनवाज़ भाई,

बिल्कुल ठीक कह रहे हैं…किश्तवाड़ में स्थिति खराब होने के बाद मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी बयान देते हुए खतरनाक काम किया…उन्होंने दंगे में मरे तीन लोगों की पहचान दो मुस्लिमों और एक हिंदू के तौर पर की…ये नहीं कहा कि तीन इनसान मरे…ऐसे नाज़ुक मौकों पर एक गलत शब्द भी आग़ में घी डालने का काम करता है…

जय हिंद…

पी.सी.गोदियाल "परचेत"

शाहनवाज जी, आपकी बात १०० % सही है, किन्तु मैंने हिन्दू परिवार शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया क्योंकि सवाल सिर्फ हिंदुत्व संगठनों से सम्बंधित था !

Khushdeep Sehgal
11 years ago

तो आपको याद दीलाना चाहूँगा कि तब बीजेपी ना के बराबर अस्तित्व में थी !

आप उस समय की घटनाओं का अध्धयन करें तो आपको बहुत से ऐसे किस्से मिलेंगे जिनमे हिन्दू परिवारों ने अपनी जान जोखिम में डाल अपने सिख पड़ोशियों की जान बचाई !

गोदयाल जी, बीजेपी का जन्म बेशक 1980 में हुआ लेकिन जनसंघ के तौर पर बहुत पहले से ही अस्तित्व में थी…1977 में जनसंघ का जनता पार्टी में विलय ज़रूर हुआ था लेकिन उसके कई नेताओों ने जीत हासिल की थी…खैर यहां किसी पार्टी विशेष नहीं सभी पार्टियों का आचरण सवालों के घेरे में रहा…

मैं यहां लोगों की बात नहीं कर रहा…मैं नेताओं की बात कर रहा हूं, उन्होंने उस वक्त क्या किया था…अच्छी सोच के लोग तो हमेशा सौहार्द बनाए रखते है और पड़ोसियों पर आंच नहीं आने देते हैं…

जय हिंद…

Shah Nawaz
11 years ago

इंसानियत का तकाज़ा यही है कि जब कोई भी दंगो का शिकार हो तो हमारी आत्मा काँप उठे, लेकिन हर कोई यही पूछता है कि कितने हिन्दू/मुसलमान मरे, शर्म से डूब मरने का मुकाम है!

Shah Nawaz
11 years ago

गोदियाल जी, उस वक़्त हिन्दू परिवारों ने ही नहीं बल्कि मुस्लिम परिवारों ने भी अपनी जान जोखिम में डाल कर सिखों की जान बचाई, और दूसरों की क्या मैं तो खुद अपने घर और अपने माता-पिता की ही बात बयां कर सकता हूँ।

Khushdeep Sehgal
11 years ago

गोदियाल जी,

त्रुटि की ओर ध्यान दिलाने के लिेए शुक्रिया…कायदे से आज़ादी के ये 66 साल पूरे हुए…

जय हिंद…

पी.सी.गोदियाल "परचेत"

वैसे तो आज कोई भी दूध का धुला नहीं है किन्तु मैं कहना चाहूँगा की मैं कोई बीजेपी की तरफदारी नहीं कर रहा…….. आपने पिछले लेख के अंत मे यह सवाल उठाया था "..इसी तरह बीजेपी के कर्णधार जवाब दे कि जब 1984 में बेगुनाह सिखों का कत्ले-आम हो रहा था तो क्यों नहीं उन्होंने सड़कों पर अपने कार्यकर्ताओं के साथ निकलकर दंगाइयों का विरोध किया…अगर 2002 में गुजरात में एक भी कांग्रेसी नेता या 1984 में सिखों को बचाते हुए एक भी बीजेपी नेता अपनी कुर्बानी दे देता तो इन् पार्टियों को ज़रूर आज लंबे चौड़े बयान देने का अधिकार होता…"…………………तो आपको याद दीलाना चाहूँगा कि तब बीजेपी ना के बराबर अस्तित्व में थी ! और यदि हिंदुत्व संघठनो की बात करें तो वे उसवक्त जो कुछ पंजाब में हुआ उससे खफा थे और अनादर कहीं न कहें एक क्रोध था जिसकी वजह से वे खुलकर नहीं आये हालांकि यदि आप उस समय की घटनाओं का अध्धयन करें तो आपको बहुत से ऐसे किस्से मिलेंगे जिनमे हिन्दू परिवारों ने अपनी जान जोखिम में डाल अपने सिख पड़ोशियों की जान बचाई !

पी.सी.गोदियाल "परचेत"

आपने बहुमूल्य जानकारी दी, लेकिन अफ़सोस कि आपने भी वहीं गलती दोहराई जो इस देश के तमाम क्षद्म-निर्पेक्षवादी नेता अक्सर दोहराते है!हर वो विवेकशील इंसान जिसमे ज़रा सी भी मानवता शेष हो, वह कभी भी किसी निर्दोष के साथ हुए जुल्म को सही नहीं ठहरा सकता, वो चाहे हिन्दू हो, मुसलमान हो, सिख हो या फिर इसाई ! किन्तु एक गैर-क्षद्म-निरपेक्ष वादी जब इस मामले में कुछ भी बोलता है तो ये तथाकथित क्षद्म-निरपेक्ष मौकापरस्त उसे भुनाने की भरसक कोशिश करते है! जो भी , जिस तरह का भी दंगा हो उसमे जिसे जान गवानी पड़ती है, उसे तथा उसके परिजनों के लिए वह दंगा छोटा-बड़ा नहीं होता, दंगे में एक मरे अथवा १००० , पीड़ित के लिए सारे दंगे बराबर हैं ! आपको यह तो मालूम ही होगा( आंकड़े मौजूद हैं ) कि आजादी से अब तक तकरीबन ६००० छोटे-बड़े दंगे हुए जिसमे अल्पसंख्यक वर्ग का कंट्रीब्युशन (दंगे शुरू करने का) तकरीबन ६८ फीसदी और बहुसंख्यकों का ३२ फीसदी रहा ! आपने सिर्फ दो ही दंगों १९८४ और २००२ का प्रमुखता से उल्लेख किया साथ ही आपने अपने पिछले आलेख में उमर सरकार के गृह राज्य मंत्री और स्थानीय विधायक सज्जाद अहमद किचलू की दंगे के दौरान किश्तवाड़ में मौजूदगी का जिक्र तो किया लेकिन आप भी हमारे इन क्षद्म-निरपेक्ष नेताओं की ही तरह कुछ स्पष्ट कहने से बचे! जब मुद्दा उठा ही लिया था तो कायदे से आपको उस पृष्ठ- भूमि में जाने की जरुरत थी जब २००८-०९ में(इसी इलाके में ) अमरनाथ का मुद्दा गर्माया था, और फिर उसका जबरदस्त लाभ उन इलाकों मे जहां मुस्लिम वोटर ही बहुतायात में हैं उसका फायदा फारूख को हुआ! इस बार भी कल अगर यह मालूम पड़े की एक ख़ास मौके पर, एक ख़ास उद्देश्य को टार्गेट कर ( चुनाव और मौजूदा सरकार की नाकामियाँ ) यह सब किसी सोची समझी रणनीति के तहत हुआ, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए ! तो सवाल वही रह जाता है कि ये क्षद्म-निर्पेक्श्वादी सलेक्टिव्लि ही क्यों टार्गेट चुनते है ? और एक गैर-क्षद्म निर्पेक्श्वादी (तथाकथित कम्युनल ) और एक सेक्युलर ( क्षद्म) के बीच हमेशा लड़ाई का असल मुद्दा यही होता है न की पीड़ित ! क्रम्श…….

पी.सी.गोदियाल "परचेत"

खुशदीप जी, पहले तो आपके आलेख में एक त्रुटि की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा कि यह जो कल देश ने मनाया वह ६७वी सालगिरह नहीं अपितु ६६वी साल गिरह और ६७वा आजादी दिवस था !
क्रमश …

Khushdeep Sehgal
11 years ago

द्विवेदी सर,

रघुपति राघव राजा राम, सबको सम्मति दे भगवान…

जय हिंद…

Khushdeep Sehgal
11 years ago

सतीश भाई,

बरसात की पहली बूंदों को तपते रेगिस्तान को ठंडा करने के लिए खुद को फ़ना करना ही पड़ता है…

जय हिद…

दिनेशराय द्विवेदी

जब तक सियासत लोगों को फिरकों में बाँटती रहेगी लोगों की जानें इसी तरह लेती रहेगी।

Satish Saxena
11 years ago

ज़मीर और संस्कारों की बातें करते अच्छी लगती हैं ..क्योंकि किताबों में पढ़ा है , अच्छी बातों को !
बस्स..

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