अन्ना भारत हो गए, भारत अन्ना हो गया…इंदिरा गांधी से पहले और बाद में अब तक किसी और शख्स के लिए ये नारा नहीं लगा था…अन्ना के लिए लगा है…सत्तर के दशक में देवकांत बरूआ ने इंदिरा के लिए कहा था इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा…अब टीम अन्ना की अहम सदस्य और देश की पहली महिला आईपीएस अफसर किरण बेदी ने अन्ना के लिए ये नारा लगाया…किसी शख्स को इंडिया बताने का नारा न साठ के दशक में समाजवाद के प्रतीक राम मनोहर लोहिया के लिए लगा और न ही सत्तर के दशक में संपूर्ण क्रांति के नायक जयप्रकाश नारायण के लिए…
इंदिरा सत्ता की प्रतीक थी…अन्ना सत्ता के अहंकार को तोड़ कर जनसंसद की लड़ाई लड़ रहे हैं…इंदिरा गांधी की राजनीतिक समझ का लोहा उनके विरोधी भी मानते थे…जेपी ने इंदिरा की राजनीतिक समझ की काट बदलाव के नारे के साथ अपने पीछे जनसैलाब खड़ा करके ढूंढी थी…ठीक वैसे ही जैसे आज अन्ना के पीछे हुजूम उमड़ रहा है…
अन्ना की सियासी समझ को उनकी टीम के सदस्य अरविंद केजरीवाल देश की राजनीतिक लीडरशिप में शून्यता का जवाब बता रहे हैं…बकौल केजरीवाल- “मैंने अन्ना से बहुत कुछ सीखा है…उनके जैसी राजनीतिक बुद्धिमत्ता किसी के पास नहीं है…वे आध्यात्मिकता और राजनीति के तालमेल की बेजोड़ मिसाल हैं…हमारे देश की जनता को राजनीतिक लीडरशिप में जो खालीपन दिखता है, उसे अन्ना भर रहे हैं”…
केजरीवाल ने साथ ही साफ किया कि राजनीति या 2014 के चुनावों में उतरने का टीम अन्ना का कोई इरादा नहीं है…एक तरफ टीम अन्ना खुद को राजनीति से दूर रखना चाहती है, वहीं साथ ही अन्ना के रास्ते को मौजूदा हालात में भारत की समस्याओं का समाधान बताकर सियासी सिस्टम पर चोट करना चाहती है…जताना चाहती है कि देश की वर्तमान राजनीतिक धारा लोगों का भरोसा खो चुकी है और देश की सारी आस अन्ना पर ही आ टिकी है..इसलिए केजरीवाल ये जताना भी नहीं भूले कि अन्ना जैसा चाहते हैं आंदोलन की दिशा को वैसे ही बढ़ाया जा रहा है और अन्ना को कोई बरगला नहीं सकता…
ये पहला मौका है जब टीम अन्ना ने देश में राजनीतिक शून्यता और अन्ना इज़ इंडिया, इंडिया इज़ अन्ना की बात एकसाथ की है…वही टीम अन्ना जिसने अब तक ये सावधानी बरती है कि कोई भी राजनेता मंच पर अन्ना के आसपास भी न फटके…टीम अन्ना खुद को चुनावी राजनीति से हमेशा दूर रखने की बात कर रही है…लेकिन वो देश को ईमानदार राजनीतिक विकल्प देने की बात क्यों नहीं सोचती…
मैं तो कहता हूं कि टीम अन्ना के सारे सदस्य चुनाव लड़ें…उन्हें पक्का जिताने की ज़िम्मेदारी सारी देश की जनता की है…इस तरह कुछ ईमानदार सांसदों की गारंटी तो देश को मिलेगी…और अगर टीम अन्ना और अच्छे लोगों को भी साथ जोड़कर चुनाव में उतारती है तो उससे देश में बहुत कुछ सुधरेगा…मेरा मानना है कि अगर जनता जिसे जिताने पर आ जाए तो उसे कोई नहीं रोक सकता…न धनबल और न ही बाहुबल…अगर ऐसा ही हो कि अच्छे लोगों को चुनाव लड़ाने की व्यवस्था भी उस क्षेत्र की जनता ही करे…वोट के साथ चुनावी इंतज़ाम के नोट लेकर भी साथ आए…इस तरह चुना गया जनप्रतिनिधि ही जनता का सच्चा नुमाइंदा होगा…सही तरह से जनता के हक की आवाज संसद, विधानसभा या पंचायतों में उठा सकेगा…
टीम अन्ना को राजनीति से इतना परहेज़ क्यों हैं…क्या राजनीति में शतप्रतिशत लोग बुरे हैं…या टीम अन्ना जानती है कि राजनेताओं को लेकर ही लोगों में सबसे ज़्यादा गुस्सा है…और एक रणनीति के तहत राजनीति से दूरी रखी जा रही है…ये सच है कि देश में त्याग की भावना दिखाने वालों को इंस्टेंट हीरो का दर्जा मिल जाता है…लेकिन ये वक्त त्याग का नहीं आगे बढ़ कर कमान संभालने का है…सभी वर्गों को साथ जोड़ने का है…
अभी कहा जा रहा है कि ये मीडिया का अन्ना उत्सव है और शहरों तक ही सीमित है…इंटरनेट जेनेरेशन या खाए-पिए-अघाए लोग ही अन्ना के पीछे हैं…ऐसे आरोपों को टीम अन्ना को खारिज करना है…गांवों में ये मुहिम अन्ना के गांव रालेगण सिद्धि तक ही न सिमटी रहे…देश के सभी गांवों में भी इसका असर दिखे…गांधी की स्वीकार्यता बिना कोई भेद हर तबके में थी…उस वक्त बिना किसी मीडिया के संजाल गांधी ने पूरे देश को अपने पीछे जोड़ा…शहरों में भी गांव मे भी…जेपी के वक्त भी सरकारी दूरदर्शन का ही बोलबाला था…उन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितिओं के बावजूद संपूर्ण क्रांति को सफल बना कर दिखाया…ये बात अलग है कि उन्हीं के आंदोलन से निकले कुछ चेले राजनीति में बड़ा नाम बनकर महाभ्रष्ट साबित हुए…
अन्ना के इस आंदोलन का क्या नतीजा सामने आएगा…मैं नहीं जानता…लेकिन इस अन्ना इफैक्ट का ये फायदा ज़रूर होगा कि नेता या अफसर भ्रष्टाचार करते हुए अब सोचेंगे ज़रूर…मेरी शुभकामनाएं हैं कि अन्ना की इस मुहिम से देश से भ्रष्टाचार खत्म हो जाए…जनलोकपाल या लोकपाल जैसी संस्था या व्यक्ति में सारे अधिकार सीमित कर देने को लेकर मेरी कुछ शंकाएं हैं जो हमेशा रहेंगी…भगवान करे मैं गलत साबित हूं और जनलोकपाल भ्रष्टाचार को देश से जड़ से मिटाने में कामयाब हो…
इस पूरे आंदोलन में शुक्रवार रात को रामलीला मैदान एक अद्भुत नज़ारा देखने को मिला…एक युवती बड़े जोश में अन्ना के लिए नारे लगा रही थी…ठीक वैसे ही जैसे वैष्णोदेवी तीर्थ पर भक्त लगाते हैं…ज़ोर से बोलो जय माता की तर्ज पर…आगे वाले भी बोलो…पीछे वाले भी बोलो…सारे बोलो…मिल कर बोलो…जय अन्ना की…
अन्ना को एक ही दिन में इंडिया और भगवान बनते देखना वाकई सुखद था….
अन्ना हजारे जी का आन्दोलन! फायेदा किसका-किसका ??
यदि आन्दोलन की टाइमिंग पर विचार किया जाये तो बहुत से तथ्य स्वम ही स्पष्ट हो जायेंगे. सर्वप्रथम आते है की इस आन्दोलन से लाभान्वित कौन कौन होगा
http://parshuram27.blogspot.com/2011/08/blog-post_20.html
अंशुमाला जी,
अगर व्यवस्था सही रहती तो सब सही रहता…फिर डंडे वाले जनलोकपाल की ज़रूरत ही कहां पड़ती…घर का मुखिया यानि प्रधानमंत्री इच्छाशक्ति वाला हो तो मजाल है कि घर का कोई सदस्य गलत रास्ते पर चला जाए…मैं टीम अन्ना की जनलोकपाल की मुहिम के ख़िलाफ़ कतई नहीं हूं…मैं बस एक अच्छे आलोचक की तरह इन्हें सत्ता की हर उस बुराई से सचेत करते रहना चाहता हूं जो खुद भी ताकत मिलने पर किसी का भी दिमाग खराब कर सकती है…सवाल यहां निर्दलीयों या पार्टी से किसी चुन कर भेजने का नहीं, बस संसद में गलत व्यक्ति नहीं पहुंचने चाहिए…
जब हर सीट से अच्छे लोग संसद में पहुंचेंगे तो इसका स्तर भी बढ़ेगा…ये अच्छे लोग भले ही पहले छोटे ब्लॉक में हों, लेकिन इनसे जो पॉजिटिव वाइब्रेशन्स निकलेगी वो दूसरों को भी उनके जैसा ही होने के लिए प्रेरित करेंगी…युवा जनप्रतिनिधियों पर भी अच्छा असर पड़ेगा…उनका मकसद जनसेवा ही रहेगा ये नहीं कि ज़्यादा से ज़्यादा संपत्ति अर्जित करना…चलिए शुरुआत तो कहीं से हुई…अब जनता जनार्दन का ये डर ही शायद राजनीतिक दलों को रास्ते पर ले आए…
जय हिंद…
अन्ना भारत हो गए, भारत अन्ना हो गया….आपके ये शब्द सार्थकता कि और बढ़ रहे हैं ऐसा लग रहा है और इस मैं सभी युवावर्ग बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रहें हैं ये देखकर खुशी हुई कि जब भी देश कि बात आएगी उसमे सभी वर्ग का योगदान होता रहेगा और जब साथ हैं तो कुछ भी असंभव नहीं |
सार्थक लेख जय भारत |
veerji……..tussi…….achhi nabz pakar rahe ho…….
pranam.
खुशदीप जी
समस्या ये है की यदि हम निर्दलियो को जीता दे या छोटी पार्टियों को जीता दे ( पर वहा भी अच्छे लोग कहा है वहा तो और भी मौका परस्ती है ) तो संसद त्रिसंकू हो जाएगी ये तो लोकतंत्र के लिए और भी बुरा होगा भानुमती का पिटारा कैसे बिखरता है हम सभी पहले ही देख चुके है | किसी पार्टी के अच्छे व्यक्ति को चुन कर भेजे तो क्या होता है वो संसद में जा कर पार्टी के लिए काम करने लगता है पार्टी द्वारा जारी विहिप पर उसे वोट देना पड़ता है अपने अपने सुप्रीमो के आगे किसी की भी नहीं चलती है | तो अच्छे लोग भी किसी काम के नहीं रहा जाते है | चुनाव सुधार तो जरुरीर है ही ये इस टीम के लिस्ट में दूसरे नंबर पर है और उसे लागु करवाना तो इसी बात पर निर्भर होगा की आज के मूद्दे का क्या हाल होता है यदि जनता जीतती है तो कल को कई बदलावों के लिए आशा जागेगी जनता भी समझेगी की वो बदलाव ला सकती है किन्तु आज इतने के बाद भी हार गया आम आदमी तो मान कर चलिये को वो दुबारा फिर कभी इस तरह उठने की हिम्मत नहीं कर पायेगा |
और कोई भी भ्रष्ट क्यूँ बन जाता है..क्यूंकि उसे भ्रष्ट होने के अवसर उपलब्ध होते हैं और उसे अपनी हरकतों का कोई डर भी नहीं होता….
सही कहा रश्मि बहना…
यही है कड़वी सच्चाई…
हम तब तक ही ईमानदार हैं, जब तक हमें बेइमानी का मौका नहीं मिलता…और पावर (सरकार ही नहीं किसी भी फील्ड की पावर) उस पर पर्दा डाल कर बच निकलने का रास्ता देती है…ये शुद्धि किसी डंडे के बल पर नहीं सच्चे मन से आत्मावलोकन पर ही होगी…
जय हिंद…
@खुशदीप भाई,
राजनीति अछूत नहीं है…पर अगर राजनीतिज्ञों के खिलाफ कोई आवाज़ उठाये तो उसे राजनीति में शामिल होने के लिए मजबूर करना या सलाह देना भी सही नहीं है. आपका कहना बिलकुल सही है कि जितनी जनता अभी सडकों पर दिख रही है..मतदान के वक़्त ये सब घरों के अंदर क्यूँ होते हैं. शायद आनेवाले चुनाव में ये हालात बदलें.
जनता को ,अच्छे लोगों को चुन कर भेजना चाहिए…पर चुनाव में कैसे हथकंडे अपनाए जाते हैं….ये जग-जाहिर है. यही वजह है कि गलत लोग चुनाव जीत जाते हैं…और कई बार विकल्प भी नहीं होता.
अगर सचमुच…राजनीति से ये गन्दगी दूर हो गयी तो अच्छे लोग भी आएँगे…और कोई भी भ्रष्ट क्यूँ बन जाता है..क्यूंकि उसे भ्रष्ट होने के अवसर उपलब्ध होते हैं और उसे अपनी हरकतों का कोई डर भी नहीं होता…अगर जनता का अंकुश रहा तो..शायद नेता भ्रष्ट हो ही ना पाएं…या भ्रष्टाचार से डरें…राजनीति भी दूसरे प्रोफेशन की तरह बस, एक प्रोफेशन ही हो…वैसे इतनी उम्मीद करना कुछ ज्यादा ही है…पर धीरे-धीरे कुछ तो होगा..
और हाँ,सबसे ज़रूरी हमें खुद भी पाकसाफ़ रहना होगा…सत्य वचन.
जय हिंद…:)
मेरी इस पोस्ट पर आई टिप्पणियां ही सार्थक ब्लॉगिंग है…बिना मन में किसी भेद के मतभेद जाहिर किए जा रहे हैं…एक दूसरे के विचारों के सम्मान के साथ…
बहस को आगे बढ़ाता हूं…राजनीति अछूत क्यों…जबकि ऐसा कोई फील्ड नहीं जहां राजनीति न होती हो…संसदीय राजनीति के प्रति देश की जनता में आक्रोश है जो अन्ना की आंधी में खुल कर सामने आ भी रहा है…ठीक एक प्रैशर कुकर के वाल्व की तरह…सरकार ने कभी परवाह नहीं की कि ये कुकर कभी फट भी सकता है…जनप्रतिनिधि जनता के सेवक हैं और उन्हें वैसे ही काम करना होगा जैसे जनता चाहेगी…सत्य वचन…और हम राजनीति क्यों करें…जिन्हें इस काम के लिए चुना है, वही सही तरह से अपनी ज़िम्मेदारियों को अंजाम दें…ये भी बिल्कुल सही तर्क है….लेकिन मेरा सवाल है कि जनप्रतिनिधियों के दायित्व है तो क्या जनता की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है…जिस तरह का प्रैशर अब हम गलत चुन कर आ गए सांसदों या विधायकों पर बना रहे हैं…क्या चुनाव के वक्त हम ऐसा प्रैशर नहीं बना सकते….उस वक्त या तो हम वोट डालने ही नहीं जाएंगे…वोट देने जाएंगे भी तो देखेंगे कि कौन से उम्मीदवार से अच्छी जान-पहचान है, जो वक्त पड़ने पर अपने काम (निजी प्रायोजन) आ सकता है…वही घिसी-पिटे चार-पांच राजनीतिक दलों में से ही किसी न किसी के नाम पर बटन दबा आएंगे…यही काम उम्मीदवार बदल-बदल कर करते रहते हैं…राइट टू रीकाल की बात हम कर रहे हैं कि हमने गलत व्यक्ति चुना, इसलिए उसे वापस बुला लिया जाए….लेकिन एफर्ट टू गुड पिक की बात हम क्यों नहीं करते…पार्टी लाइन को गोली मार कर क्यों नहीं हम इलाके के किसी ईमानदार, बेदाग रिकार्ड वाले व्यक्ति को खड़ा कर देते…फिर उसे जी-जान से जिताने के लिए लग जाते…व्यवस्था या सिस्टम सिर्फ पार्टियों के भरोसे नहीं बदलेगा…उसके लिए हमें ही कमर कसनी होगी…झाडू़ अपने-अपने इलाकों से ही लगेगी तब जाकर सही सफ़ाई होगी…और सबसे ज़रूरी हमें खुद भी पाकसाफ़ रहना होगा…
जय हिंद…
हमेशा ये क्यूँ कहा जाता है कि अगर राजनीतिज्ञों से शिकायत है तो खुद चुनाव के मैदान में उतर कर चुनाव लड़ें…..जिन्हें हमने चुनकर भेजा है…उनसे हम अच्छे काम..सही निर्णय की उम्मीद नहीं कर सकते??
उन नेताओं की राजनीति में रूचि है..हमारी नहीं है…हमारी रूचि, लिखने-पढ़ने….चिकित्सा-सेवा..अभियांत्रिकी…समाज-सेवा..में है तो क्या हमसे अपने देश के नेताओं की करतूतों पर नज़र रखने का हक़ छिन जाता है??..अगर कोई डॉक्टर-शिक्षक-इंजिनियर..अपने काम को सही अंजाम नहीं दे रहा…तो उसके दोष निकालने वाले से ये तो नहीं कहा जाता कि तुम डॉक्टर-इंजिनियर बन कर दिखाओ…पर राजनीति के लिए हमेशा कहा जाता है…'खुद इस कीचड़ में उतर कर देखो"… क्यूँ??…राजनीति कीचड़ क्यूँ बन गयी है??..और अगर बन गयी है…तो उसकी गन्दगी को वही लोग साफ़ करें…जिन्होंने गन्दगी फैलाई है…और जनता ने उन्हें चुन कर भेजा है…तो जनता ही उनसे ये काम करवाएगी.
और 'इंदिरा इज इण्डिया' का नारा इंदिरा गांधी के एक चापलूस ने लगाया था….'अन्ना इज इंडिया'..शायद इसलिए किरण बेदी ने कहा क्यूंकि आज आम जनता…"मैं अन्ना हजारे हूँ" की टोपी लगाए घूम रही है. उनलोगों को "आई एम अन्ना हजारे"….."मी अन्ना हजारे आहे" की टोपी पहनने के लिए किरण बेदी या किसी ने भी मजबूर नहीं किया ना ही उन्हें इसकी एवज में कम्बल या रुपये दिए गए हैं.
अन्ना की वजह से जो एक जागरूकता ,उन्माद और एकता का अनुभव समाज में हुआ है वह सराहनीय है.
आलोचना के लिए अनेक मुद्दे और कमियाँ हो सकती हैं. अन्ना के अभियान को गाँधी,जयप्रकाश जी से तुलना करना,या कम ज्यादा आकना बेमानी है.अभी एक ऐसे समय में जब सब ओर निराशा ही निराशा है,एक आशा की किरण दिखलाई पड़ने लगी है.जिसने सभी को सोचने पर मजबूर तो किया ही है.
आपकी पिछली पोस्ट की अपेक्षा इस पोस्ट में सकारात्मकता बढती दिख रही है। इस पोस्ट से मिलते-जुलते मनोभाव से भरी टिप्पणी थोडी देर पहले पिछली पोस्ट पर की है।
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ट्रेड यूनियनों को अन्ना टीम से मीडिया मैनेजमेंट सीखना चाहिए।
इसी साल 23 फ़रवरी को भारत के सभी प्रमुख ट्रेड यूनियन संगठनों ने राष्ट्रीय राजधानी में एक बड़ी रैली आयोजित की…महँगाई लोगों के जीवन को बहुत ही बुरी तरह प्रभावित कर रही है…ट्रेड यूनियनों की इस रैली के ज़रिए दुनिया को दरअसल ये दिखाने की कोशिश की गई थी कि चीज़ों को देखने का एक दूसरा नज़रिया भी हो सकता है…ये एक वैकल्पिक रास्ता था जिसके प्रति दिल्ली और दूसरी जगहों पर स्थित कई समाचार चैनलों का रवैया उदासीन ही रहा…
अगले दिन अख़बारों का कवरेज अधिकतर इसी बात पर रहा कि किस तरह रैली की वजह से व्यापक पैमाने पर यातायात प्रभावित हुआ…अब १६ अगस्त से लगातार अन्ना मीडिया पर छाए हुए है…इसका मतलब है कि इस खबर के अलावा शायद ही इतने बड़े देश में कुछ हो रहा है…कई हिस्सों में यातायात बुरी तरह प्रभावित हुआ लेकिन इस बार श्रमिकों की तरह मीडिया को ये सब नहीं दिखा…क्यों…मध्यम वर्ग या उच्च मध्यम वर्ग क़ानून भी हाथ में ले तो सही…बेचारे श्रमिक करें तो करेक्टर ढीला…श्रमिक इतना बड़ा उपभोक्ता नहीं है न जो कॉरपोरेट या मीडिया का ग्राहक बनने का पोटेंशियल रखता हो…इसीलिए मेरा निवेदन ये है कि भ्रष्टाचार को फैशन की तरह इस्तेमाल करने की जगह सभी वर्गों की जनआंदोलन में भागीदारी की कोशिश की जाए…अन्ना के नाम की टोपियां, टीशर्ट और न जाने क्या क्या बाज़ार में आ गए हैं…ठीक वैसे ही जैसे ऋतिक रोशन की फिल्म कृष की रिलीज के वक्त प्रचार सामग्री बाज़ार में उतारी गई थी…अन्ना की ज़मीन गांव से जुड़ी है…मीडिया की लाइमलाइट में उनका इतना शहरीकरण न कर दिया जाए कि गांव से नाता ही टूट जाए….
जय हिंद…
अन्ना हजारे की नीयत बिल्कुल ठीक है बिल्कुल जयप्रकाश जी की तरह लेकिन उन्हीं के आंदोलन से जो लेग निकले उन्होने व्यक्तिगत लाभ से लेकर भ्रष्टाचार की सभी सीमाएं पार कर दी । नाम सबी को पता हैं कहने की जरूरत नहीं गाय भैंस का चारा भी जिन्होने नहीं छोड़ा वो भी जेपी आंदोलन की ही उपज हैं । इसलिए किसी को भी अभी क्लीन चिॉ देना संभव नहीं है । सरकार अगर अपना घर संवार ले तो बहुत कुछ संवर जायेगा । अन्ना की तरह उनसे जुड़ लोग बी निस्वार्थ ही रहें यही हम चाहते हैं लेकिन ऐसा हो पाएगा क्या ?
टीम अन्ना खुद को चुनावी राजनीति से हमेशा दूर रखने की बात कर रही है…लेकिन वो देश को ईमानदार राजनीतिक विकल्प देने की बात क्यों नहीं सोचती…
आप का उक्त कथन स्पष्ट करता है कि आप वर्तमान व्यवस्था को उचित मानते हैं और केवल सरकार बदलने पर सारी चीजें ठीक हो जाने में विश्वास करते हैं।
मौजूदा व्यवस्था में कोई भी दल या समूह चुनाव लड़ कर सरकार बना ले उसे वही करना पडे़गा जो यूपीए या एनडीए ने किया। अन्ना टीम चुनाव लड़ कर भी वही करेगी। यदि हम चाहते हैं कि सब कुछ दुरुस्त हो तो पहले व्यवस्था में परिवर्तन लाना होगा। उस के लिए मुझे अन्ना टीम का यह निश्चय अच्छा लगा कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे। वे व्यवस्था परिवर्तन के लिए काम करेंगे। वे चुनाव क्यों लड़ें? अभी वे जनता हैं। मालिक हैं देश के चुनाव लड़ कर जीतने वाला जनता का नौकर है। हमें चुनाव लड़ कर जीतने वालों से काम लेना है। इस का अर्थ मेरी समझ में यह है हूँ कि जनता की इच्छा से सरकार, न्यायपालिका और विधायिका को चलाने की व्यवस्था का निर्माण करना है। अर्थात जनतंत्र का विस्तार करना है। यही आज की सबसे बड़ी आवश्यकता भी है।
यदि ऐसा है तो आंदोलन सही राह पर जा रहा है। लेकिन अभी इसे राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण करना है। उस में बहुत कमियाँ हैं। अभी दक्षिण प्रान्तों का प्रतिनिधित्व इस में कम है। दूसरी और देश की जनता का बहुसंख्यक भाग श्रमजीवी मजदूर किसानों का भी इस आंदोलन में हिस्सा आनुपातिक नहीं है।
एक घाघ राजनीतिज्ञ द्वारा उच्च कोटी की चमचागिरी करने के तहत कही गई बात और किरण बेदी के बस लोगो के समर्थन को देखते हुए कही गई बातो में जमीन आसमान का फर्क है | मै व्यक्ति पूजा के सख्त खिलाफ हूँ इसलिए कभी अपनी पोस्टो में किसी व्यक्ति विशेष का समर्थन नहीं करती हूँ | जे पी आन्दोलन सत्ता परिवर्तन और सत्ता पाने के लिए था ये आन्दोलन इसलिए नहीं है | ये जरुरी नहीं है की हर व्यक्ति राजनीति में आ कर ही देश सेवा करे कितने है जो बाहर रह कर भी देश की सेवा और देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कर सकते है राजनीति में तो वही रहे जो उसमे रहना चाहते है | राजनीति में दबाव समूह समूहों की भी अपनी भूमिका होती है जो राजनीती से बाहर के समूह भी होते है उनमे एक मिडिया भी होती है | यदि ये सारा आन्दोलन बस और बस मिडिया का खड़ा किया है तो मै मिडिया को धन्यवाद दूंगी और निवेदन करुँगी की हर पांच साल बाद वो ऐसे ही आन्दोलन को खड़ा कर दिया करे ताकि आम जनता सोये नहीं और जागृत रहे और उससे ये शिकायत भी है की अभी तक उसने पहले एइसा कोई आन्दोलन क्यों नहीं खड़ा किया |
प्रशासनिक और सामाजिक संवेदनशीलता का समन्वय हो देश का नेतृत्व।
अभी एक पोस्ट पर एक टिप्पणी की है उसे यहाँ भी चस्पा कर रही हूँ –
"जब जेपी आंदोलन हुआ था तब इस देश को अनेक राजनेता मिले थे और आज यदि इस देश को इस आंदोलन के कारण कुछ सामाजिक जनचेतना जागृत करने वाले जननायक मिलते हैं तो इस आंदोलन की सबसे बड़ी सफलता होगी। वर्तमान दौर का युवा अपना आनन्द कभी क्रिकेट में तो कभी फिल्म और टीवी में खोज रहा है लेकिन इस सामाजिक आंदोलन से वह सक्रिय हुआ है और उसे वास्तविक आनन्द का अनुभव हुआ है। इसलिए मैं समाज की ओर मुड़ रहे युवाजन का अभिनन्दन करती हूँ और इस आन्दोलन को इसी दृष्टि से देखती हूँ। देश यदि जागृत हो जाए तब समस्याओं का समाधान अवश्य होगा। सुप्त समाज को तो राजनेता ही हांकते हैं।
एक बात और कहना चाहती हूँ कि गांधी और विवेकानन्द भी हमारे समाज से ही निकले हैं इसलिए दूसरा कोई अन्य ऐसा नहीं बन सकता यह बात मेरे गले नहीं उतरती। समाज निर्माण में जिस किसी का भी योगदान है उसे तदुनुरूप सम्मान मिलकर ही रहता है। हम कभी भी एक ईश्वरवादी नहीं रहे, हमारे यहाँ श्रेष्ठ महापुरुष भगवान की श्रेणी में आते रहे हैं तो यदि अन्ना भी गांधी और विवेकानन्द की श्रेणी में रखे जाते हैं तो इसमें गलत कुछ भी नहीं है।"
मेरी मान्यता है कि इस देश को अच्छे राजनेताओं से अधिक अच्छे सामाजिक जननायकों की आवश्यकता है। समाज अच्छा होगा तो राजनीति भी अच्छी होगी। जिस युग में भी राम जन्म लेते हैं उस काल में समाज राम को पैदा करता है। इसलिए पहलं समाज पुष्ट होना चाहिए।