रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर हंगामा है क्यूं बरपा? (पार्ट 2)…खुशदीप


कौन हैं रोहिंग्या?



कहा जाता है कि म्यांमार (बर्मा) के रोहिंग्या दुनिया में सबसे
ज़्यादा ज़ुल्म का सामना करने वाले अल्पसंख्यक हैं.
म्यांमार की 90
फीसदी आबादी बौद्ध हैं. एक अनुमान के मुताबिक़ म्यांमार में रोहिंग्या की संख्या
11 से 13 लाख है जो कमोवेश सारे के सारे पश्चिमी तटीय रखाइन प्रांत में बसे हुए
हैं. इस प्रांत को पहले अराकान के नाम से जाना जाता था. रोहिंग्या आबादी में हिन्दुओं
के छोटे से हिस्से को छोड़ बाकी सारे मुस्लिम हैं. 



म्यांमार के रखाइन के अलावा
दुनिया के अन्य देशों में भी करीब 10 लाख रोहिंग्या हैं. इनमें बांग्लादेश में
6,70,000, पाकिस्तान में 2,00,000, थाईलैंड में 1,00,000, मलयेशिया में 40,070,
भारत में 40,000, इंडोनेशिया में 11,941 और नेपाल में 200 है. रोहिंग्या को लेकर म्यांमार
के बहुसंख्यक बौद्धों का वैमनस्य पुराना है. वो इन्हें अपनी ज़मीन पर घुसपैठिया
मानते हैं. रोहिंग्या को बहुसंख्यक बौद्धों की नफ़रत और फौज के दमन, दोनों का ही
सामना है. इन्हें नागरिकता, सरकारी शिक्षा या सरकारी नौकरियों जैसे कोई अधिकार
प्राप्त नहीं हैं. इनके मुक्त रूप से आवाजाही करने पर भी रोक है.



रोहिंग्या के ख़िलाफ़ क्रूरता


रोहिंग्या के ख़िलाफ़ म्यांमार में क्रूरता की बड़ी घटनाएं 1978,
1991-92, 2012, 2015, 2016-17 में हुईं. वहां हिंसा का भयानक दौर बीते 5 साल से
रूक-रूक कर जारी है.
2012 में साम्प्रदायिक तनाव का सिलसिला जो शुरू
हुआ, थमने का नाम ही नहीं ले रहा. बौद्ध अल्ट्रा नेशनलिस्ट्स की ओर से रोहिंग्या
गांवों पर हमला हुआ
, घर जलाए गए, खेत तबाह कर दिए
गए. सिस्टेमेटिक दमन में
मुस्लिम फ्री ज़ोन बनाना, पहचान पत्रों से वंचित रखना, इस्लामिक
छुट्टियों पर रोक लगाना आदि शामिल है. फौज ने ना सिर्फ हमलावरों का साथ दिया बल्कि
खुद भी ज़ुल्म ढहाने में पीछे नहीं रही. हजारों रोहिंग्या लोगों ने जान बचाने के
लिए ज़मीन और नौकाओं से दूसरे देशों का रुख किया. सैकड़ों रास्ते में ही समुद्र
में डूब गए. कुछ मलयेशिया
, इंडोनेशिया, फिलीपींस के तटों तक पहुंचने
में कामयाब रहे.



ARSA ने रोहिंग्या के लिए मुसीबत बढ़ाई


रोहिंग्या के ख़िलाफ़ दमनचक्र का नतीजा ये रहा कि कुछ रोहिंग्याई
युवकों ने प्रतिरोध जताने के लिए अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी (
ARSA) का गठन कर लिया. इन्होंने पुलिस स्टेशनों और सत्ता प्रतिष्ठानों पर गुरिल्ला हमले
शुरू किए.
ARSA को अभी छोटे मोटे गुटों का समूह बताया जाता
है जो चाकू
, डंडे और आईईडी से लैस हैं. इनका प्रतिरोध
सशस्त्र लेकिन असंगठित है. लेकिन आशंका जताई जा रही है कि म्यांमार में रोहिंग्या
के ख़िलाफ़ ऐसे ही चलता रहा तो मुस्लिम देशों में गुस्सा बढ़ेगा. इससे चरमपंथ को
और हवा मिलेगी. ऐसी स्थिति में
ARSA के पीछे अंतरराष्ट्रीय
जेहादी समूहों के आ खड़े होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. होना तो ये
चाहिए था कि म्यांमार का सत्ता प्रतिष्ठान सदियों से रखाइन में रह रहे रोहिंग्या
को अपना नागरिक मानते हुए उनके अधिकार बहाल करता. मानवाधिकार नियमों का पालन करता.
लेकिन म्यांमार ने ठीक उलटी दिशा पकड़ रखी है जिससे हालात बद से बदतर होते जा रहे
हैं. पहले अक्टूबर 2016 और फिर अगस्त 2017 में वहां फौज की तरफ से एक तरह से
जातीय सफाये का ही अभियान छेड़ दिया गया.



रखाइन में हिंसा का ताज़ा दौर 24-25 अगस्त की रात के बाद शुरू हुआ.
म्यांमार सरकार की ओर से बताया गया कि उस रात को उत्तरी राखाइन के मौंगडोव,
बुथीडॉन्ग और राथेडॉन्ग में
ARSA ने 24 बॉर्डर गार्ड चौकियों
पर हमले किए. इसमें 10 पुलिसवाले, एक सेना का जवान और एक अन्य शख्स मारा गया. इसे
ARSA
का सबसे बड़ा हमला बताया गया. इस घटना के बाद सुरक्षाबलों ने
मौंगडोव ज़िले की सीमा को पूरी तरह से बंद कर दिया और बड़ा अभियान शुरू किया गया.
निशाने पर पूरी रोहिंग्या आबादी आ गई. बताया जा रहा है कि हिंसा के इस ताजा दौर
में 400 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं. म्यांमार के सैनिकों पर प्रताड़ना,
बलात्कार और हत्या के संगीन आरोप लग रहे हैं. ऐसे आरोप भी सुनने को मिल रहे हैं कि
माओं से उनके शिशुओं को छीन कर आग़ के हवाले कर दिया गया या नदियों में फेंक दिया
गया. इस दमनचक्र में म्यांमार की फौज की ओर से हेलीकॉप्टर्स इस्तेमाल किए जाने की
भी ख़बर है. हालांकि म्यांमार की फौज और सरकार की ओर से ऐसे आरोपों का खंडन किया
जा रहा है. उनका कहना है कि रोहिंग्या सरकार और फौज को बदनाम करने के लिए खुद ही
अपने गांवों में आग़ लगा रहे हैं. लेकिन एक स्वतंत्र पर्यवेक्षक का कहना है कि
उसने एक ऐसे गांव को भी जलते देखा जहां से सारे रोहिंग्या पहले ही भाग चुके हैं. 



एक अनुमान के मुताबिक हिंसा के ताजा दौर में एक लाख से ज्यादा रोहिंग्या रखाइन को
छोड़ कर जा चुके हैं. इनमें सबसे ज्यादा बांग्लादेश में पहुंचे हैं. लेकिन वहां
पहले ही बड़ी संख्या में रोहिंग्या मौजूद हैं जो बड़ी दयनीय स्थिति में खचाखच भरे
शिविरों में रह रहे हैं.  



म्यांमार में रोहिंग्या कहां से आए?


बंगाल (विभाजन के बाद पहले पूर्वी पाकिस्तान और 71 के
बाद बांग्लादेश के नाम से जाना जाने वाला क्षेत्र) और राखिन (पूर्व में अराकान) के
बीच सदियों से ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध रहे हैं. वैसे तो राखिन में रोहिंग्या
की जड़ें आठवीं सदी से बताई जाती है. लेकिन दस्तावेजी रिकॉर्ड की बात की जाए तो 15वीं
सदी से
बांग्लाभाषी सेटलर्स का राखिन में बसना डाक्यूमेंटेड है. कुछ तो
हिन्दू, इस्लाम और बौद्ध धर्म के प्रसार की वजह से ऐसा हुआ. फिर 17वीं सदी में राखिन
में रोहिंग्या की आबादी बढ़ी जब अराकानी आक्रांता और पुर्तगाल सेटलर्स इन्हें मजदूरी
कराने के लिए यहां लाए. रोहिंग्या शब्द को ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1799 में रिकार्ड
किया. हालांकि म्यांमार के अल्ट्रा नेशनलिस्ट इसे विवादित बताते हैं.

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1824 से 1937 तक म्यांमार ब्रिटिश इंडिया के तहत रहा. द्वितीय विश्व
युद्ध के बाद से ही रोहिंग्या को अवैध मानने पर म्यांमार में बौद्ध बहुसंख्यकों की
ओर से जोर दिया जाने लगा. यहीं से रोहिंग्या के लिए नस्ली भेदभाव शुरू हो गया. 1948
में म्यांमार को आजादी मिली. 1948 से 1962 तक म्यांमार में लोकतांत्रिक व्यवस्था
रही. 1962 में फौज के कमान संभालने के बाद रोहिंग्या के लिए हालात बद से बदतर होते
गए. 1982 में फौजी हुकूमत ने रोहिंग्या को नागरिकता के अधिकार से वंचित कर दिया. 



आंग सान सू की के चुप रहने से दुनिया हैरान


नोबेल विजेता आंग सान सू की को लंबे समय तक म्यांमार के फौजी शासकों ने हिरासत में
रखा. मानवाधिकारों की दुनिया में जब भी बात आती थी तो आंग सान सू की का नाम दुनिया,
खास तौर पर पश्चिमी जगत में नायिका के तौर पर लिया जाता था. दुर्भाग्य की बात है
कि आंग सान सू की चुनाव जीतने के बाद अब म्यांमार की स्टेट काउंसलर हैं लेकिन
रोहिंग्या को लेकर दुनिया भर के दबाव के बावजूद उन्होंने चुप्पी साध रखी है.



म्यांमार में लोकतंत्र बहाली की दिशा में 2008 में पहल शुरू हुई तो
कुछ रोहिंग्या भी देश की संसद के लिए चुने गए. लेकिन ना तो ये राखिन प्रांत के मुख्यमंत्री
(मिलिट्री का चुना नुमाइंदा) को मंजूर था और ना ही बहुसंख्यक बौद्धों को. इसी का
नतीजा था कि अगले चुनाव में ही पूरी रोहिंग्या आबादी से मत देने का अधिकार छीन
लिया गया.
 इसी चुनाव में आंग सान सू की की पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी को विजय मिली. लेकिन इसके
बावजूद रोहिंग्या के लिए हालात में कोई बदलाव नहीं हुआ. सू की इस मामले में
पत्रकारों से भी बात नहीं कर रही हैं. जब इस मामले में उन पर दबाव पड़ा तो
उन्होंने कहा कि रखाइन स्टेट में जो भी हो रहा है वह
 
रूल ऑफ लॉ‘ के
तहत है.  



सरकार से सवाल पूछा जा रहा है कि
आख़िर रखाइन में पत्रकारों को क्यों नहीं जाने दिया जा रहा है, इस पर सरकार की ओर
से कोई जवाब नहीं दिया जा रहा. म्यांमार की फौज का कहना है अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रोहिंग्या
के बारे में ग़लत रिपोर्टिंग हो रही है.



क्रमश:
(अगली कड़ी में पढ़िएगा कि रोहिंग्या पर भारत सरकार की बोली दुनिया के स्टैंड से अलग क्यों?)


ये भी पढ़िए…

रोहिंग्या मुसलमानों का क्या किया जाए (पार्ट 1)…खुशदीप


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