दो दिन से मेरठ था…आज आकर नेट खोला तो सतीश सक्सेना भाई की पोस्ट और अविनाश वाचस्पति भाई की ईमेल…शहरोज़ भाई को लेकर पढ़ीं…तब से मन इतना खट्टा है कि बता नहीं सकता…देश के सिस्टम पर क्रोध भी बड़ा आ रहा है कि कोई ईमानदार, उसूलों के साथ जीने वाला शख्स इज्ज़त के साथ दो जून की रोटी कमाते हुए परिवार के साथ गुज़र-बसर भी नहीं कर सकता…
बरसों पहले धर्मेंद्र की फिल्म सत्यकाम इस वक्त मेरे ज़ेहन में घूम रही है…उस फिल्म में धर्मेंद्र ईमानदार इंजीनियर होने के नाते क्या क्या नहीं भुगतते, ऋषिकेश मुखर्जी ने बड़ा मार्मिक चित्रण किया था…सतीश सक्सेना भाई शहरोज़ भाई की मदद के लिए जो कुछ भी कर रहे हैं, इसके लिए उन्हें साधुवाद…ये वक्त शहरोज़ भाई की सिर्फ आर्थिक मदद का ही नहीं, बल्कि उनके अंदर दोबारा ये विश्वास जगाने का भी है, कि उन जैसी शख्सीयत की देश में सच्चाई और ईमानदारी को ज़िंदा रखने के लिए कितनी ज़रूरत है…मैं मशहूर कार्टूनिस्ट इरफ़ान भाई से भी बात कर रहा हूं…शायद दिल्ली सरकार में उनकी जान-पहचान से कोई रास्ता निकल आए…
फिलहाल मैं यही सोच रहा हूं कि चमकदार मॉल्स के बीच कॉमनवेल्थ गेम्स का झंडा उठाए हम तेज़ी से विकसित देश होने का दंभ भरते हैं…और हमारे इसी देश में शहरोज़ जैसी खुद्दार प्रतिभाओं को इस तरह के हालात से दो-चार होना पड़ता है…ये विकास है या विनाश…
विकास या विनाश
वो कहते हैं,
विकास हुआ है,
मैं कहता हूं,
विनाश हुआ है,
वो कहते हैं,
सभ्यता फूली-फली है,
मैं कहता हूं,
मानवता सड़ी-गली है,
वो कहते हैं,
पहले इनसान नंगा था,
मैं कहता हूं,
अब आत्मा नंगी है,
वो कहते हैं,
सबको हक़ मिले हैं,
मैं कहता हूं,
ज़ेबों के मुंह खुले हैं,
वो कहते हैं,
नारी को अधिकार मिले हैं,
मैं कहता हूं,
नारी को बाज़ार मिले हैं,
वो कहते हैं,
मैं बहुत बोलता हूं,
मैं कहता हूं,
वो मतलबी ही क्यों बोलते हैं,
वो कहते हैं,
विकास हुआ है,
मैं कहता हूं,
विनाश हुआ है…
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