63 साल पहले हमें आज़ादी मिली…आज़ाद भारत में तराने गूंजने लगे…
तूफ़ान से हम लाए है कश्ती निकाल के,
मेरे बच्चो रखना इसे संभाल के…
इंसाफ की डगर पे बच्चो दिखाओ चल के,
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्ही हो कल के…
क्या खूब चल के दिखाया है हमने इंसाफ़ की डगर पे, क्या खूब संभाल कर रखा है हमने तूफ़ान से निकाल कर लाई कश्ती को…देश के तौर पर तो हमें आज़ादी मिल गई…क्या भूख से हमें आज़ादी मिली, क्या जात-पांत से हमें आज़ादी मिली…हमने एक देश में ही दो देश बना दिए…तूफ़ान से निकाल कर लाई कश्ती के दो टुकड़े हो गए…एक आलीशान क्रूज़ में बदल गया जिस पर चढ़े चंद लोगों को ऐशो-आराम की हर सुविधा मिल गई…दूसरा हिस्सा ऐसी नाव में बदल गया जिसमें छेद दिन-ब-दिन बड़ा होता जा रहा है…इस नाव पर चढ़े लोगों के लिए अपना वजूद बचाए रखना ही सबसे बड़ी जंग है...हमारा देश ऐसी गाड़ी बन गया जिसमें एक पहिया जंबो जेट का लगा है…और दूसरा पहिया बैलगाड़ी का है, वो भी जगह-जगह से चरमरा रहा है…फिर ये गाड़ी भागे तो भागे कैसे…जंबो जेट वाले तो स्पीड पकड़कर दुनिया पर छा रहे हैं…और बैलगाड़ी वाले आगे बढ़ना तो दूर, अपने पहिए को ही टुकड़े-टुकड़े होने से बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं…
दुनिया भर में मंदी की मार पड़ी हो लेकिन भारत में पिछले साल अरबपतियों की तादाद दुगने से ज़्यादा हो गई…पहले 24 थे अब 49 हो गए हैं….वहीं ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के ताजा सर्वे के मुताबिक भारत में गरीबी रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या 64 करोड़ 50 लाख है…ये देश की आबादी का कुल 55 फीसदी है…देश में ज़्यादातर जो नए लोग वो अरबपतियों की फेहरिस्त से जुड़े हैं, उनका धंधा ज़मीन, रियल एस्टेट, प्राकृतिक संसाधन से जुड़ा है…ये दौलत की बरसात ऐसे ही धंधों में हुई है जिनमें सरकारी लाइसेंस की ज़रूरत होती है…यानि सरकारी सिस्टम को अगर दोहने की आपमें कूव्वत है तो आप दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर सकते हैं…ब्यूरोक्रेट्स सरकारी नौकरी छोड़ने के बाद ऐसे ही धंधों के सलाहकार बन जाते हैं…सरकारी सिस्टम के लूपहोल्स का फायदा उठा कर फिर ये धंधेबाज़ जमकर चांदी कूटते हैं…अगर ऐसा न होता तो सरकार जहां फायदे की संभावना होती है वो सारे धंधे प्राइवेट हाथों में न सौंपती…और जहां नुकसान होता है, उन उपक्रमों को सरकार सफेद हाथी की तरह खुद पालती नहीं रहती…चोट सरकारी ख़जा़ने को ही लगती है…वो ख़ज़ाना जिसमें आप और हम जैसे टैक्स देने वालों का ही पैसा पहुंचता है…
टैक्स वेलफेयर स्टेट के नाम पर लिया जाता है…लेकिन वेलफेयर किसका…गरीबों का….कॉमनमैन का या उन दो फीसदी अमीरों का जो पूरे देश को हांकने की ताकत रखते हैं…कहा जाता है कि गांवों में प्राथमिक स्कूलों या हेल्थ सेंटरों को केंद्र से पैसा भेजा जा रहा है…जताया ये जाता है कि सरकार बहुत बड़ी चैरिटी कर रही है…लेकिन ये भी देखा जाता है कि पैसा सही जगह पहुंच भी रहा है या पहले ही बंदरबांट हो जाती है…अगर ऐसा न होता तो क्यों गांवों के प्राथमिक स्कूल और हेल्थ सेंटर बदहाल होते…वहां पढ़ने वाले बच्चे क्या किसी प्रतियोगिता में टिक सकते हैं…इन हेल्थ सेंटरों में इलाज़ कितना कारगर होता है, क्या इस पर कुछ कहना ज़रूरी है…क्यों नहीं अल्टीमेटम दिया जाता कि जहां सरकारी पैसा दिया जा रहा है वो स्कूल या हेल्थ सेंटर एक साल में परफॉर्म करके दिखाएं नहीं तो ताला लटकाने के लिए तैयार रहें…
अगर हमें वाकई एक देश में दो देश का फर्क पाटना है तो पहले चार चीज़ों का ध्यान देना बहुत ज़रूरी है…पहला- गांवों को शहरों से जोड़ने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर, दूसरा- गांव-शहर के गरीबों के लिए शिक्षा, तीसरा-स्वास्थ्य और चौथा- अर्थव्यवस्था के लाभ में समूचे देश की हिस्सेदारी…अगर इसे दुरूस्त कर आगे बढ़ते हैं तो सही मायने में देश विकसित बन पाएगा…और अगर इंडिया और भारत के बीच की खाई यूहीं चौड़ी होती रही तो एक दिन अराजकता का ऐसा विस्फोट होगा कि न फिर गरीब बचेंगे और न ही अमीर…
फिर तो वो गाना ही याद आएगा…
वक्त ने किया क्या हसीं सितम,
हम रहें न हम, तुम रहे न तुम…
(मेरा ये लेख रवींद्र प्रभात जी आज़ादी की लेखमाला में शामिल कर चुके हैं)
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