26 जनवरी विशेष…डॉ राजेंद्र प्रसाद-नेहरू की खींचतान…खुशदीप

कल की कड़ी में आपने पढ़ा था कि किस तरह गणतंत्र के तौर पर भारत में सरकार चलाने की व्यवस्था का चुनाव किया गया था…आज की किस्त में पढ़िए पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद और पहले प्रधानमंत्री नेहरू के बीच कैसे रिश्ते थे…

संविधान में राष्ट्र प्रमुख के तौर पर राष्ट्रपति और शासन प्रमुख के तौर पर प्रधानमंत्री के अधिकार और दायित्व स्पष्ट होने के बावजूद पिछले छह दशक में ऐसे कई मौके आए जब राष्ट्रपति और सरकार के बीच मतभेद उभरे। कभी इन मतभेदों ने तल्खी का भी रुख अख्तियार किया। पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद से लेकर मौजूदा राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल तक कुल बारह हस्तियों ने राष्ट्रपति के पद को सुशोभित किया। डॉ प्रसाद अकेले शख्स हैं जिन्हें दो कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति चुना गया। लेकिन इतिहास गवाह है कि दोनों बार ही देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू डॉ प्रसाद को राष्ट्रपति बनाए जाने के हक में नहीं थे। ये माना जाता है कि नेहरू सी राजगोपालाचारी को देश का पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे। लेकिन सरदार पटेल और कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं की राय डॉ राजेंद्र प्रसाद के हक में थी। आखिर नेहरू को कांग्रेस की बात माननी पड़ी और राष्ट्रपति के तौर पर प्रसाद को ही अपना समर्थन देना पड़ा।

नेहरू और प्रसाद में वैचारिक और व्यावहारिक मतभेद थे। ये मतभेद 1950 से 1962 तक प्रसाद के राष्ट्रपति रहने के दौरान लगातार बने रहे। हिंदू परंपरावादी प्रसाद के राष्ट्रपति बनने से पहले भी आधुनिक और पश्चिमी सोच वाले नेहरू से उनकी पटरी नहीं बैठती थी। अगस्त 1947 में गायों के वध पर रोक लगाने के लिए चलाए जा रहे आंदोलन को प्रसाद के समर्थन से नेहरू नाखुश थे। 7 अगस्त 1947 को नेहरू ने प्रसाद को चिट्ठी में लिखा…”जहां तक मैं समझता हूं कि बापू भी गायों की हिफ़ाज़त के प्रबल समर्थक हैं लेकिन गायों के वध पर ज़बरदस्ती रोक लगाए जाने के वो भी खिलाफ हैं। मेरी राय के मुताबिक इसकी वजह ये है कि बापू चाहते हैं कि हमें हिंदू राज्य की तरह नहीं बल्कि ऐसे समग्र राज्य की तरह काम करना चाहिए जिसमें हिंदू अगुवाई करें।”

संविधान सभा में भी प्रसाद चाहते थे कि इंडिया का नाम बदल कर भारत कर दिया जाए। लेकिन नेहरू इंडिया के ही हक में थे। बाद में बीच का रास्ता निकाला गया और संविधान में लिखा गया- “इंडिया, दैट इज़ भारत।” प्रसाद देश के संविधान को लागू करने के लिए 26 जनवरी 1950 की तारीख चुने जाने के खिलाफ थे। प्रसाद को उनके ज्योतिषियों ने राय दी थी कि 26 जनवरी 1950 का दिन गणतंत्र दिवस के लिए शुभ नहीं है। लेकिन नेहरू इसी तारीख पर अड़ गए। नेहरू ने 22 सितंबर 1951 को एन जी आयंगर को लिखे पत्र में कहा भी था-“मुझे खेद है, राष्ट्रपति कुछ मुद्दों पर कैबिनेट की सिफारिश की जगह ज्योतिषियों की राय को अहमियत दे रहे हैं। लेकिन मेरा ज्योतिष जैसी बातों पर कोई विश्वास नहीं है।” नेहरू ने प्रसाद की बनारस यात्रा में ब्राह्मणों के पैर छूने का भी विरोध किया था।

प्रसाद हिंदू कोड बिल में महिलाओं को ज़्यादा अधिकार दिए जाने के हक में नहीं थे। उन्होंने नेहरू से कहा कि जब हिंदू कोड बिल पर संसद में बहस होगी तो वो प्रेसीडेंट बॉक्स में मौजूद रहेंगे। जिससे सांसदों पर प्रभाव पड़ेगा। लेकिन नेहरू का कहना था कि प्रेसीडेंट बॉक्स का इस्तेमाल राष्ट्रपति संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करने के लिए ही कर सकते हैं। अन्यथा इसका इस्तेमाल विदेश से आने वाले सम्मानित मेहमानों के लिए ही किया जाना चाहिए। उस वक्त ऐसी भी अफवाहें थीं कि प्रसाद आरएसएस, जनसंघ और बिल के विरोधी कुछ कांग्रेस सांसदों के साथ मिलकर तख्तापलट कर सकते हैं। नेहरू ने ये धमकी तक दे दी थी कि अगर प्रसाद ने अपना रुख नहीं छोड़ा तो वो इस्तीफ़ा दे देंगे। प्रसाद ने संयम दिखाया और अपनी बात पर ज़ोर नहीं दिया।

ये सच है कि नेहरू की मौजूदगी में प्रसाद खुल कर अपनी बात नहीं कह पाते थे। लेकिन नेहरू से लिखित संवाद में साफ तौर पर अपनी राय जताते थे। प्रसाद ने नेहरू को चेतावनी दी थी कि भ्रष्टाचार कांग्रेस के ताबूत में आखिरी कील साबित होगा। प्रसाद ने सीधे राष्ट्रपति के तहत लोकायुक्त बनाए जाने की सिफारिश का समर्थन किया था जिससे कि मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के सभी आरोपों की स्वतंत्र रूप से जांच की जा सके। नेहरू ने इस सिफ़ारिश को प्रसाद की किसी रणनीति के तहत देखते हुए नहीं माना। प्रसाद नेहरू की चीन-तिब्बत नीति को लेकर भी नाखुश थे। 1962 में प्रसाद की जगह राधाकृष्णन राष्ट्रपति बने तो नेहरू ने राहत की सांस ली।

क्रमश:

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shikha varshney
13 years ago

काफी अंदर की बातें मालूम हुईं. कई अनकहीं रह गईं.पर काश राजेन्द्र प्रसाद की इंडिया को भारत कहने की बात मान ली गई होती.

दीपक 'मशाल'

बेशक सी.राजगोपालाचारी डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद से ज्यादा योग्य व्यक्ति थे लेकिन उनकी राजनैतिक पहुँच डॉ. प्रसाद के आगे ज्यादा नहीं थी. डॉ.प्रसाद और नेहरु में यही फर्क था कि नेहरु स्पष्टवादी थे प्रसाद पाखण्ड में यकीं रखते थे.
आप ये बताना भूल गए कि राष्ट्रपति भवन में पहुँचने के बाद डॉ.प्रसाद ने सबसे पहला काम क्या किया, वो सबसे महत्त्वपूर्ण काम था वहाँ काम करने वाले सारे मुस्लिम कर्मचारियों की राष्ट्रपति भवन से छुट्टी करना. उसके बाद हमारे महान राष्ट्रपति जी ने राष्ट्रपति भवन और उसके परिसर के सुरक्षाकर्मियों को आदेश दिया कि बंदरों की आवाजाही को ना रोका जाए क्योंकि वो हनुमान जी के दूत होते हैं.
नेहरु गायों की हिफाज़त के खिलाफ नहीं थे लेकिन बात सम्पूर्ण गौवंश को लेकर की जा रही थी जिसमे बैल और सांड भी शामिल थे उसके अतिरिक्त नेहरु को सबसे अधिक आपत्ति इस बात को लेकर थी कि उस बिल में बंदरों(हनुमान दूत के नाम पर) की हिफाज़त के लिए भी क़ानून बनाने की बात हो रही थी.
बनारस में ब्राह्मणों के पैर छूना क्या ठीक था? क्या इतने बड़े देश का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्ति को ये शोभा देता? गौरतलब है कि राजेन्द्र प्रसाद एक जमींदार परिवार से थे और उनके यहाँ अस्पृश्यों की वही हालत थी जो उस समय देश के अन्य हिस्सों में थी, गांधी जी के हरिज़नों के साथ जानवरों से भी बुरा सलूक होता था.
उस समय के अखबारों ने डॉ.प्रसाद की बहुत तारीफ की थी कि उनको मनोरंजन के लिए १ लाख रुपये महीने खर्च करने की अनुमति थी मगर उन्होंने कभी २-४०० रुपये से ज्यादा खर्च नहीं किये. पर जब हकीकत पता चली तो नेहरु प्रसाद से बहुत नाराज़ हुए और चेतावनी दी कि आगे से ऐसा नहीं चलेगा…. क्योंकि सच ये था कि मनोरंजन में तो डॉ.प्रसाद २-४०० रुपये ही खर्च करते थे लेकिन बाकी का पैसा अपने रिश्तेदारों में बाँट देते थे, ना कि सरकारी खजाने में वापस जमा करते थे… क्या ये ठीक था?
कहने को वो साधुओं की तरह रहते थे क्योंकि राष्ट्रपति भवन में जहाँ प्रसाद जी रहते थे उस कमरे की संगमरमरी दीवारों पर चटाईयाँ चढ़ा दी गई थीं. मगर मेरी नज़र में यह सादगी नहीं बल्कि पाखण्ड है कि आप रह तो रहे हैं संगमरमर के बीच ही और दुनिया को कुटिया दिखाना चाहते हैं. यदि ऐसे ही रहना था तो कौटिल्य की तरह अलग से कुटिया बनवा सकते थे.. भले ही सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए वो राष्ट्रपति परिसर के भीतर ही बनवाते. बात ठीक ही है कि ज्योतिषी महत्त्वपूर्ण हैं या कैबिनेट की राय.
डॉ.प्रसाद का नेहरु के सामने कभी खुलकर कुछ ना कह पाने का कारण यही था कि उन्हें पता था कि नेहरु पाखंडी नहीं बल्कि एक स्पष्टवादी व्यक्ति हैं, जो अन्दर से हैं वही बाहर से भी हैं. जहाँ एक तरफ जवाहरलाल नेहरु भारत को समय के साथ कदमताल मिलाना सिखाना चाह रहे थे वहीँ राजेन्द्र प्रसाद उसे वापस सामंतवादी युग में ले जाने को उतावले दीखते थे. जिसे आप प्रसाद का संयम बता रहे हैं वो उनकी भीरुता और राष्ट्रपति पद पर बने रहने की मंशा ही थी वर्ना उन्हें भी पता था कि सी.राजगोपालाचारी जैसे प्रखर विद्वान् की देश को उस वक़्त कितनी जरूरत थी.
नेहरु और प्रसाद में भारत को कौन बेहतर जानता और समझता था ये तो नेहरु की पुस्तक 'भारत एक खोज' से पता चलता है. प्रसाद जहाँ एक रूढ़िवादी और अन्धविश्वासी नेता थे वहीं नेहरु एक बेहतरीन लेखक और दर्शन की समझ रखने वाले गंभीर व्यक्तित्व थे.

दीपक 'मशाल'

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वाणी गीत
14 years ago

विष बीज पनपे थे जो आजादी के समय अब वृक्ष बन गए हैं !
बहुत कुछ नवीन जानकारी भी प्राप्त हुई !

Rohit Singh
14 years ago

इसमें कोई शक नहीं कि बड़े नेताओं की गलती औऱ अह्म का टकराव देश को जनता को भुगतना पड़ता है। पर राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति बनने के लिए गांधी जी के ही कहने पर तैयार हुए थे औऱ किसी के नहीं। गांधी नेहरु पर अंकुश के तौर पर राजेंद्र प्रसाद को छोड़ गए थे।

rashmi ravija
14 years ago

बहुत ही जानकारियों भरा आलेख…कई अंदर की बातें पता चल रही हैं..

दिगम्बर नासवा

नेहरू और बाद में गांधी परिवार हमेशा से ही देश की सत्ता में हावी रहा है … शुरू में तो फिर कई नेता थे जो उनका विरोध कर ते थे … पर आज तो ये बस भी मुमकिन नहीं … नेहरू के समय से ही राजनीति में गिरावट चालू हुयी जो आज भी बरकरार है ..

प्रवीण पाण्डेय

भ्रष्टाचार पे कब से हाहाकार मचा है,
देखो पठ्ठा फिर भी तालै ठोंक डटा है।

निर्मला कपिला

कौन सही था कौन गलत लेकिन महान विभूतिओं मे टकराव का खामियाज़ा जनता को ही भुगतना पडता है। शुभकामनायें।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen

प्रसाद साहब काफी दूरदर्शी थे..

दिनेशराय द्विवेदी

आज जिन मामलों का आप ने उल्लेख किया उन में से अधिकतर मामलों में नेहरू अधिक सही थे। अलावा इस के कि भ्रष्टाचार के मामले में उन डॉ.राजेन्द्र प्रसाद का कथन सही था।

शिवम् मिश्रा

नेहरू ने ओर किया ही क्या … सिर्फ़ … मैं … मैं … मैं … जो भी उनकी राय के खिलाफ बोलता था उनका निजी शत्रु सा बन जाता था !
आज देश की जो हालत है उसकी नींव तो बहुत पहले ही इन्होने रख दी थी … नाम का लोकतंत्र है … चल रही राजशाही है … जिस राहुल गांधी ने अभी ठीक से चलना भी शुरू नहीं किया उसको यह लोग देश का प्रधानमंत्री बनने की सोच रहे है … कोई वसीयत है क्या किसी की ?

जय हिंद !

ब्लॉ.ललित शर्मा


बबुल का पेड़ तो उस समय ही लग गया था और आज आम की अपेक्षा है।

परदेशी की प्रीत-देहाती की प्रेम कथा

अरुण चन्द्र रॉय

खुशदीप जी बहुत खोजी जानकारी दे रहे हैं आप… देश की नीव में कुछ ईंट गलत लग गए थे.. आज जो ईमारत देख रहे हैं हम वही तो है..

राज भाटिय़ा

प्रसाद ने नेहरू को चेतावनी दी थी कि भ्रष्टाचार कांग्रेस के ताबूत में आखिरी कील साबित होगा। …. ओर यह चेतावनी अब सच होने जा रही हे,

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