संविधान में राष्ट्र प्रमुख के तौर पर राष्ट्रपति और शासन प्रमुख के तौर पर प्रधानमंत्री के अधिकार और दायित्व स्पष्ट होने के बावजूद पिछले छह दशक में ऐसे कई मौके आए जब राष्ट्रपति और सरकार के बीच मतभेद उभरे। कभी इन मतभेदों ने तल्खी का भी रुख अख्तियार किया। पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद से लेकर मौजूदा राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल तक कुल बारह हस्तियों ने राष्ट्रपति के पद को सुशोभित किया। डॉ प्रसाद अकेले शख्स हैं जिन्हें दो कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति चुना गया। लेकिन इतिहास गवाह है कि दोनों बार ही देश के पहले प्रधानमंत्री नेहरू डॉ प्रसाद को राष्ट्रपति बनाए जाने के हक में नहीं थे। ये माना जाता है कि नेहरू सी राजगोपालाचारी को देश का पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे। लेकिन सरदार पटेल और कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं की राय डॉ राजेंद्र प्रसाद के हक में थी। आखिर नेहरू को कांग्रेस की बात माननी पड़ी और राष्ट्रपति के तौर पर प्रसाद को ही अपना समर्थन देना पड़ा।
नेहरू और प्रसाद में वैचारिक और व्यावहारिक मतभेद थे। ये मतभेद 1950 से 1962 तक प्रसाद के राष्ट्रपति रहने के दौरान लगातार बने रहे। हिंदू परंपरावादी प्रसाद के राष्ट्रपति बनने से पहले भी आधुनिक और पश्चिमी सोच वाले नेहरू से उनकी पटरी नहीं बैठती थी। अगस्त 1947 में गायों के वध पर रोक लगाने के लिए चलाए जा रहे आंदोलन को प्रसाद के समर्थन से नेहरू नाखुश थे। 7 अगस्त 1947 को नेहरू ने प्रसाद को चिट्ठी में लिखा…”जहां तक मैं समझता हूं कि बापू भी गायों की हिफ़ाज़त के प्रबल समर्थक हैं लेकिन गायों के वध पर ज़बरदस्ती रोक लगाए जाने के वो भी खिलाफ हैं। मेरी राय के मुताबिक इसकी वजह ये है कि बापू चाहते हैं कि हमें हिंदू राज्य की तरह नहीं बल्कि ऐसे समग्र राज्य की तरह काम करना चाहिए जिसमें हिंदू अगुवाई करें।”
संविधान सभा में भी प्रसाद चाहते थे कि इंडिया का नाम बदल कर भारत कर दिया जाए। लेकिन नेहरू इंडिया के ही हक में थे। बाद में बीच का रास्ता निकाला गया और संविधान में लिखा गया- “इंडिया, दैट इज़ भारत।” प्रसाद देश के संविधान को लागू करने के लिए 26 जनवरी 1950 की तारीख चुने जाने के खिलाफ थे। प्रसाद को उनके ज्योतिषियों ने राय दी थी कि 26 जनवरी 1950 का दिन गणतंत्र दिवस के लिए शुभ नहीं है। लेकिन नेहरू इसी तारीख पर अड़ गए। नेहरू ने 22 सितंबर 1951 को एन जी आयंगर को लिखे पत्र में कहा भी था-“मुझे खेद है, राष्ट्रपति कुछ मुद्दों पर कैबिनेट की सिफारिश की जगह ज्योतिषियों की राय को अहमियत दे रहे हैं। लेकिन मेरा ज्योतिष जैसी बातों पर कोई विश्वास नहीं है।” नेहरू ने प्रसाद की बनारस यात्रा में ब्राह्मणों के पैर छूने का भी विरोध किया था।
प्रसाद हिंदू कोड बिल में महिलाओं को ज़्यादा अधिकार दिए जाने के हक में नहीं थे। उन्होंने नेहरू से कहा कि जब हिंदू कोड बिल पर संसद में बहस होगी तो वो प्रेसीडेंट बॉक्स में मौजूद रहेंगे। जिससे सांसदों पर प्रभाव पड़ेगा। लेकिन नेहरू का कहना था कि प्रेसीडेंट बॉक्स का इस्तेमाल राष्ट्रपति संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करने के लिए ही कर सकते हैं। अन्यथा इसका इस्तेमाल विदेश से आने वाले सम्मानित मेहमानों के लिए ही किया जाना चाहिए। उस वक्त ऐसी भी अफवाहें थीं कि प्रसाद आरएसएस, जनसंघ और बिल के विरोधी कुछ कांग्रेस सांसदों के साथ मिलकर तख्तापलट कर सकते हैं। नेहरू ने ये धमकी तक दे दी थी कि अगर प्रसाद ने अपना रुख नहीं छोड़ा तो वो इस्तीफ़ा दे देंगे। प्रसाद ने संयम दिखाया और अपनी बात पर ज़ोर नहीं दिया।
ये सच है कि नेहरू की मौजूदगी में प्रसाद खुल कर अपनी बात नहीं कह पाते थे। लेकिन नेहरू से लिखित संवाद में साफ तौर पर अपनी राय जताते थे। प्रसाद ने नेहरू को चेतावनी दी थी कि भ्रष्टाचार कांग्रेस के ताबूत में आखिरी कील साबित होगा। प्रसाद ने सीधे राष्ट्रपति के तहत लोकायुक्त बनाए जाने की सिफारिश का समर्थन किया था जिससे कि मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के सभी आरोपों की स्वतंत्र रूप से जांच की जा सके। नेहरू ने इस सिफ़ारिश को प्रसाद की किसी रणनीति के तहत देखते हुए नहीं माना। प्रसाद नेहरू की चीन-तिब्बत नीति को लेकर भी नाखुश थे। 1962 में प्रसाद की जगह राधाकृष्णन राष्ट्रपति बने तो नेहरू ने राहत की सांस ली।
क्रमश: