क्या हमें बड़े-बड़े बोल बोलने का हक़ है?…खुशदीप

नन्हा मुन्ना राही हूं, देश का सिपाही हूं, बोलो मेरे साथ जय हिंद, जय हिंद….
एक दौर था, जब ‘सन ऑफ इंडिया’ फिल्म का ये गाना हर बच्चे के लबों पर रहता था…ये वो दौर था जब फैंसी ड्रेस कंपीटिशन में कोई बच्चा मिलिट्री ड्रेस पहनता था तो सबसे ज़्यादा तालियां भी उसे ही मिलती थी…ये वो दौर था, जब एनडीए के ज़रिए सेना में अफ़सर के तौर पर करियर युवा पीढ़ी को सबसे आकर्षक नज़र आता था…


अब आइए आज के दौर पर? ये दौर जहां देश के किसी नौनिहाल को ‘नन्हा मुन्ना राही हूं, देश का सिपाही हूं’ गाते नहीं सुना जा सकता…ये दौर यो यो हनी सिंह का है…जहां युवा गाते हैं…मरजाणी पाउंदी भंगड़ा, अंग्रेज़ी बीट ते...ये कसूर किसका है?…इन बच्चों का?…इन बच्चों के मां-बाप का?…या फिर बाइस साल पहले देश में शुरू हुए मनमोहनी आर्थिक सुधारों का?…
आता हूं इस सवाल पर लेकिन पहले इसी संदर्भ में बात कर ली जाए एलओसी पर पाकिस्तान की ताज़ा पाशविक करतूत की…दो भारतीय सैनिकों की निर्मम हत्या और उनमें से एक का सर कलम किए जाने की घटना को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता…लेकिन यहां ये सवाल है कि क्या पाकिस्तान ने ऐसा पहली बार किया…क्या करगिल युद्ध के दौरान कैप्टन सौरभ कालिया के शव के साथ भी पाकिस्तानी सैनिकों ने यही बर्बरता नहीं दिखाई थी? संसद हो या देश की आर्थिक राजधानी, सरहद पार से कहां-कहां नहीं हमले हो चुके?…
एक बार फिर ये सवाल देश की फ़िज़ा में तैर रहा है कि पाकिस्तान को हमेशा-हमेशा के लिए करारा सबक क्यों नहीं सिखाया जाता? देशभक्ति के गीत फिर ज़ोर-शोर से सुनने को मिल रहे हैं? वैसे भी देशभक्ति के ये गीत हमें या तो 15 अगस्त या 26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय दिवसों पर सुनने को मिलते हैं या फिर मातृभूमि के लिए शहादत देने वाले किसी रणबांकुरे को अंतिम विदाई देते वक्त?
आज युद्ध जैसा उन्माद है…ख़ून खौला देने वाली बहसें छिड़ी हुई हैं…ज़ाहिर है इस गुस्से का सियासतदानों और सेना पर भी दबाव है…प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कह रहे हैं- इस बर्बर घटना के बाद पाकिस्तान के साथ रिश्ते पहले जैसे नहीं रह सकते…थलसेनाध्यक्ष जनरल बिक्रम सिंह की ललकार है कि समय और स्थान चुन कर जवाब देंगे...विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज गरज रही हैं- वो एक सर लेके गये हैं, हम दस लेके आएंगे…
सोशल मीडिया के इस दौर में आज हर कोई अपने तरीके से बता रहा है कि पाकिस्तान को कैसे सबक सिखाना चाहिए…सवाल दाग़े जा रहे हैं कि आख़िर कब तक चुप बैठे रहेंगे?…हर कोई खुद को सबसे बड़ा राष्ट्रभक्त साबित करना चाहता है…फेसबुक पर कुछ लाइकस और कमेंट आ गये तो मानो देश के लिए सारा कर्तव्य पूरा हो गया…शहीद का कुछ दिन सुर्खियों में नाम और फिर सब लग जाते हैं अपने-अपने काम में…आज हम जो इतनी बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं, ज़रा अब दिल में झांक कर भी देख ले…जहां तक देश के लिए बलिदान की बात है तो हम भगत सिंह तो चाहते हैं, लेकिन पडोसी के घर…
आज कितने मां-बाप है जो बच्चों को सेना में भेजना चाहते हैं…क्या ये सच नहीं कि आज हमारी सेना के तीनों अंगों को अफ़सरों की कमी से जूझना पड़ रहा है? दिल पर हाथ रख कर कहिए, क्या हम अपने बच्चों को ऐसे प्रोफेशनल कोर्सेज़ से ट्रेंड नहीं करना चाहते कि वो करियर की शुरुआत में ही बड़े से बड़ा सेलरी पैकेज बटोर सकें? अगर ऐसा है तो फिर हमें देश के लिए युद्ध जैसे बड़े-बड़े बोल बोलने का कोई अधिकार रह जाता है क्या ?

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